हिंदी की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रतिष्ठित पत्रिका "धर्मयुग" पहले टाइम्स ऑफ इंडिया की बेनेट कोलमैन कंपनी द्वारा 'नवयुग' के नाम से 1932 में निकल चुकी थी। बाद में कंपनी ने 1950 में उसका नाम बदलकर 'धर्मयुग' कर दिया और उसके पहले संपादक हिंदी के प्रसिद्ध लेखक एवं मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार इलाचन्द्र जोशी तथा उनके विद्वान भाई हेमचंद्र जोशी बनाए गए। उसके बाद सत्यकाम विद्यालंकर इस पत्रिका के दूसरे संपादक बने। लेकिन दोनों संपादक धर्मयुग को वह ऊंचाई तथा प्रतिष्ठा नहीं दिला सके, जो बाद में धर्मवीर भारती ने दिलाई।
1960 में भारती जी इस पत्रिका के संपादक बनकर मुम्बई आएं, तब तक उनका पहला उपन्यास 'गुनाहों का देवता' 1949 में छप चुका था और वह आज़ादी के बाद से अब तक की बेस्ट सेलर कृति बनी हुई है। उसके अब तक 169 संस्करण निकल चुके हैं। जब हिंदी के लेखक रॉयल्टी का रोना रो रहे थे, तब ज्ञानपीठ प्रकाशन हर वर्ष उन्हें रॉयल्टी में एक लाख रुपय देता था।
भारती जी का दूसरा (प्रयोगशील) उपन्यास 'सूरज का सातवां घोड़ा' 1953 में प्रकाशित हो चुका था तथा और 1954 -55 में 'अंधा युग' जैसा कालजयी नाटक छप चुका था, जो मूलतः रेडियो के लिए लिखा गया था औऱ जिसके बारे में गिरीश कर्नाड का कहना था कि यह नाटक गत एक हज़ार वर्ष का भारत का सर्वश्रेष्ठ नाटक है। यानी 'धर्मयुग' का संपादक बनने से पहले भारती जी एक लेखक के रूप में स्थापित हो चुके थे और तब उनकी उम्र मात्र 30 वर्ष की थी।
जब वह 1960 में 'धर्मयुग' के संपादक बने तो उनकी उम्र महज़ 34 वर्ष की थी। इतनी कम उम्र में भारती जी ने अपनी प्रतिभा का लोहा पूरे हिंदी साहित्य से मनवा लिया था। वे इलाहाबाद विश्व विद्यालय में हिंदी के मनीषी लेखक एवम हिंदी के विभागाध्यक्ष धीरेंद्र वर्मा के शिष्य थे, जिनका संत साहित्य पर बड़ा काम था। भारती जी इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका 'संगम' में काम कर चुके थे। इसके संपादक भी इलाचन्द्र जोशी थे। भारती जी ने जब 'धर्मयुग' ज्वाइन किया तो वह तत्कालीन सम्पादक सत्यकाम विद्यालय अलंकार के कमरे में ही बैठते थे और संपादक का कार्यभार संभालने से पहले अपने भावी अंक की तैयारी करते थे।
हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र श्रीवास्तव, सुनील श्रीवास्तव और टिल्लन रिछारिया की पुस्तक 'डॉक्टर धर्मवीर भारती की शख्सियत और पत्रकारिता' शीर्षक से आई है। इसमें करीब हिंदी के जाने-माने 35 लेखकों - पत्रकारों के भारती जी पर लिखे संस्मरण और इंटरव्यू शामिल हैं। इस पुस्तक के तीनों सम्पादक धर्मयुग में भारती जी के सहयोगी रह चुके थे। टिल्लन रिछारिया बाद में सहारा में काम करने लगे थे और कोविड में नहीं रहे। यह पुस्तक ऐसे समय में आई है जब भारती जी की जन्मशती मनाई जा रही है। इस पुस्तक से नई पीढ़ी को बहुत जानकारियां मिलेगी और हिंदी पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास को जानने का मौका भी।
पुस्तक में हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार, माधुरी के पूर्व संपादक विनोद तिवारी, रविवार के उदयन शर्मा,( जो सुरेंद्र प्रताप सिंह के साथ धर्मयुग में थे और दोनों ने धर्मयुग छोड़कर रविवार जॉइन किया था) चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्व विद्यालय के कुलपति एवम जनसत्ता से जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र, स्वर्गीय उषा किरण खान, चर्चित कथाकर चित्रा मुद्गल, दिनमान के पूर्व पत्रकार त्रिलोकदीप, विश्वनाथ सचदेव, पुष्पेश पंत वरिष्ठ पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी, रमेश निर्मल, अरविंद मोहन, अनिता गोपेश, महेश दर्पण और हाल ही में दिवंगत हुए के विक्रम राव जैसे अनेक लोगों के संस्मरण हैं जिससे धर्मयुग की पत्रकारिता के इतिहास को समझने में मदद मिलती है एवं भारती जी के व्यक्तित्व को भी समझने में मदद मिलती है।
आज तक आजादी के बाद हिंदी की किसी पत्रिका का कोई विधिवत इतिहास लिखा नहीं गया। आजादी के बाद जितनी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं सामने आई, चाहे वो कल्पना' हो, 'दिनमान' हो, 'सारिका' हो, 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' या फिर धमर्युग' हों, किसी का बकायदा इतिहास नहीं लिखा गया। अगर यह होता तो हिंदी पत्रकारिता की आधी सदी के बारे में पता चलता और पत्रकारिता ही नहीं बल्कि भारतीय समाज, राजनीति और संस्कृति के बारे में भी पता चलता। लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे पास इन पत्रिकाओं के इतिहास की बात तो दूर, इन सब की फाइलें भी मौजूद नहीं है और इनमें प्रकाशित सामग्री की कोई अनुक्रमणिका भी प्रकाशित नहीं हुई है।
यूं तो भारती जी की कृतियों पर और धर्मयुग पर शोध कार्य हुए हैं और अभी भी हो रहें, लेकिन उनकी पत्रकारिता पर अलग से कोई पुस्तक नहीं है। कुछ साल पहले भी भारती जी पर एक किताब सम्भवतः आलोक तोमर ने संपादित की थी। यह सम्भवतः दूसरी किताब है जिसमें इतने लोगों के संस्मरण है। वैसे इस किताब में प्रकाशित कुछ संस्मरण और इंटरव्यू पहले भी छप चुके हैं, लेकिन इस पुस्तक में उन सभी सामग्री को एक साथ रखने से भारती की एक मुक्कमल तस्वीर पेश होती है। अब तक हिंदी में उनकी जो छवि बनी है या बनाई गई है उसमें उनके बारे में लोगों की दो तरह की राय है। एक वर्ग का कहना है कि भारती जी बहुत सख्त और तानाशाह किस्म के थे, तो दूसरा वर्ग कहता है कि वे मानवीय एवम सरल थे, पर अनुशासन प्रिय भी थे।
हिंदी की दुनिया मे भारती जी की धूमिल छवि रवीन्द्र कालिया की कहानी 'काला रजिस्टर' और भारती जी की पहली पत्नी कांता भारती के उपन्यास ' रेत की मछली' से बनी, जिनमें भारती जी को एक खलनायक के रूप में पेश किया गया है। वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिंदुस्तानी ने सोशल मीडिया पर अपने एक पोस्ट में भारती जी को कर्मचारी विरोधी बताया है, लेकिन इस किताब में उनके संस्मरण नहीं हैं। इस किताब में जितने संस्मरण शामिल किए गए हैं वे प्रशंसात्मक ही हैं। इनमें से अधिकतर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से अभिभूत हैं।
आजादी के बाद जिन दो लेखकों का स्टारडम बना उनमें अज्ञेय के बाद भारती ही हैं। भारती जी के कार्यकाल में धर्मयुग की प्रसार संख्या 5 लाख तक पहुँच गयी थी, यह सौभाग्य अज्ञेय के 'दिनमान' को भी नहीं मिला था। वैसे दोनों की सामग्री, प्रकृति, आवरण, साज सज़्ज़ा में भी काफी अंतर था। 'धर्मयुग' एक पारिवारिक पत्रिका थी, जबकि दिनमान वैचारिक पत्रिका।
लेकिन यह सच है कि भारती जी गुणवत्ता से समझौता नहीं करते थे, चाहे सामने कोई कितने बड़े लेखक क्यों न हो, अगर रचना पसंद न आई तो वे उसे लौटा देते थे।
रवीन्द्र श्रीवास्तव ने लिखा है कि एक बार भारती जी ने सुमित्रनन्द पंत और अमृतलाल नागर की रचनाएं भी पसंद न आने पर लौटा दी थीं ।लेकिन रवींद्र जी से कहा कि पत्र में कुछ लिखकर उसे लौटाया जाए ताकि इतने बड़े लेखक को बुरा न लगे यानी सम्मान देते हुए लौटाया जाए। इसके लिए पत्र की भाषा कैसी हो, यह बात रवींद्र जी को समझाई गयी थी। इससे पता चलता है कि भारती जी एक सुलझे हुए पत्रकार थे। वे बड़े लेखकों का सम्मान करना भी जानते थे। लेकिन रचना के साथ न्याय करना भी। यहां कोई भेदभाव नहीं था।
इन संस्मरणों से पता चलता है कि भारती जी नए लोगों को प्रोत्साहित भी करते थे और उन्हें लिखने की स्वतंत्रता भी देते थे तथा उन्हें सुझाव भी...दिनमान के वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोक दीप का एक संस्मरण यह बताता है कि कैसे भारती जी ने उनसे सरदार हुकुम सिंह के बारे में संस्मरण लिखवाया। उन दिनों त्रिलोक दीप संसद सचिवालय में काम करते थे और पत्राचार के माध्यम से उनका भारती जी से संपर्क हुआ और वह जीवन भर बना रहा।
आज के बहुत कम संपादक दूरदराज बैठे युवा लोगों से पत्रों के जरिए संपर्क करते हैं या उन्हें कुछ लिखने के लिए प्रेरित करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भारती जी हर किसी व्यक्ति से कुछ लिखवा लेने की क्षमता रखते थे और उसमें छुपी संभावना को पहचानते और देखते थे और उसके अनुरूप ही उनसे काम लेते थे। वह समझ जाते थे कि किस व्यक्ति या अपने संपादकीय विभाग के किस कर्मचारी से क्या लिखवाया जा सकता है और क्या काम लिया जा सकता है। फिर वे उसी के अनुरूप उनसे काम लेते थे।
बिहार के वरिष्ठ कथाकार चंद किशोर जयसवाल का एक दिलचस्प संस्मरण यह है कि वह जब मुंबई गए तो उन्होंने भारती जी से मिलना चाहा। भारती जी ने उन्हें रात 12:00 बजे फोन करने का निर्देश दिया और जयसवाल जी ने उस समय उन्हें फोन किया और उनसे बातचीत हुई तथा मिलने का कार्यक्रम भी तय हुआ। लेकिन जायसवाल जी मुंबई में अपने एक रिश्तेदार के इलाज के सिलसिले में थे और उनके रिश्तेदार की तबीयत अत्यधिक खराब होने के कारण वह अगले दिन भारती जी से नहीं मिल सके। और उनके मन में यह मलाल हमेशा रहा कि उनकी भारती जी से मुलाकात नहीं हो सकी, जबकि भारती जी ने उनकी कहानियों को प्रकाशित किया था।
आज बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि ज्ञान रंजन, गंगेश गुंजन, मिथिलेश्वर, स्वदेश दीपक, दिनेश पाठक, बलदेव बंशी, लीलाधर जगूड़ी, अशोक वाजपेयी जैसे तब के युवा लोग ही नहीं बल्कि शिवानी, मालती जोशी, उषाकिरण खान, गीता पुष्प शा, प्रतिमा वर्मा, दीप्ति खंडेलवाल, निरूपमा सेवती, शशि प्रभा शास्त्री आदि धर्मयुग से उभरी थीं।
भारती जी खुद बंग्लादेश मुक्ति संग्राम की रेपोर्टिंग करने गए थे और उससे उनकी पत्रिका की प्रसार संख्या 4 लाख तक पहुंच गई थी। उस जमाने में धर्मयुग का खेल अंक 5 लाख तक पहुंच गया था।
धर्मयुग के होली अंक, दीपावली अंक, का लोग बेसब्री से इंतज़ार करते थे। वह एक सम्पूर्ण पत्रिका थी। धर्मवीर भारती 27 साल इसके सम्पादक रहे़, जब टाइम्स ऑफ इंडिया ने धर्मयुग को इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के अनुवाद की पत्रिका बनाना चाहा तो भारती जी ने समीर जैन को दो टूक जबाब दिया और नौकरी छोड़ दी। वे हिंदी पत्रकारिता से समझौता नहीं करना चाहते थे। "धर्मवीर भारती स्कूल ऑफ जर्नलिज्म" एक दिन में नहीं बना। उसके पीछे एक दृष्टि, मेहनत, समर्पण और सख्त अनुशासन था।
इन संस्मरणों को जरूर पढा जाना चाहिए। पत्रकारिता के हर छात्र को अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिए, ताकि वे जान सके पत्रकारिता कितना गम्भीर और सृजनात्मक काम है। भारती ने पत्रकारिता के जरिये राष्ट्र निर्माण का काम किया। समाज को एक दिशा दी।
पुस्तक: डा. धर्मवीर भारती की शख्सियत और पत्रकारिता
सम्पादक: रविन्द्र श्रीवास्तव सुनील श्रीवास्तव और टिल्लन रिछारिया
कीमत- 299
पृष्ठ- 288
प्रकाशक- साहित्य विमर्श प्रकाशन, गुरुग्राम