अनिकेतः देवानंदपुर- गाँव जिसमें रचा-बसा है शरतचंद्र का साहित्य

लेखक हमेशा से अनिकेत होते हैं। उनका कोई एक निश्चित घर नहीं होता और सारी दुनिया उनके लिए उनका घर होती है। फिर भी वो कोई एक ठौर तो होता ही है जीवन में, जहां वे जीते हैं, लिखते हैं, जहां उनका मन रमता है। लेखक भले चले जाये दुनिया से, सचमुच के अनिकेत हो जायें पर वह घर बना रहता है उनके होने की गवाही देते हुये। लेखकों के बगैर और लेखकों के बाद उनके इन्हीं घरों की कहानी है 'अनिकेत'। इसकी नवीनतम कड़ी के रूप में आज हम पढ़ते हैं देवानंदपुर यानी शरतचंद्र के पैतृक घर के बारे में। एक साधारण सा गाँव, परंतु असाधारण साहित्यिक गर्भगृह। अगर साहित्य जीवन की सबसे सच्ची परछाई है तो उस परछाई का जन्म, किसी न किसी देवानंदपुर की मिट्टी में संभव होता है। हंस राज ने देवानंदपुर को जैसा देखा-जाना, वह प्रस्तुत है....

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रेल की खिड़की से बाहर देख रहा हूँ तो खेतों का हरापन, कुछ झोपड़ियाँ, और दूर बहती सरस्वती नदी की झलक दिखाई दे रही है। सिओराफुली स्टेशन पहुँचते-पहुंचते मेरा मन एक अजीब-सी बेचैनी से भर उठा। आज मैं उस शरत बाबू (शरतचंद्र चट्टोपाध्याय) के गाँव की यात्रा पर हूँ, जिनकी लेखनी ने न केवल बंगाल, बल्कि पूरे भारत की आत्मा को स्पर्श किया है।

खेतों की हरियाली, पोखर का शांत जल, पगडंडियों पर चलते कदम और बांस की टहनियों से छनती धूप, ये सब मिलकर यहाँ एक ऐसा संसार रचते हैं, जहाँ शरतचंद्र की कथाएँ साँस लेती हैं। यहीं से जन्मे वे पात्र, जिन्होंने भारतीय साहित्य को करुणा, प्रेम और यथार्थ की गहराई दी। ‘देवदास’ की पीड़ा, ‘श्रीकांत’ की आत्मयात्रा, ‘महेश’ की करुणा और ‘परिणीता’ की ललिता। गाँव की स्त्रियाँ उनकी नायिकाओं में ढल गईं, किसान उनके पात्रों में और प्रकृति उनकी कहानियों की सहचर बन गई।वानंदपुर गाँव शरतचंद्र के साहित्य की केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि उसकी आत्मा है। उनके किरदारों की संवेदना, भाषा, विचार और द्वंद सभी कुछ इस गाँव के लोक-व्यवहार, संस्कृति और समाज की उपज हैं। अब तक सिर्फ सुना था कि देवानंदपुर उनका रचनात्मक गर्भगृह है और हर उस पाठक के लिए, जिसने कभी ‘देवदास’ में प्रेम, ‘महेश’ में करुणा और ‘श्रीकांत’ में आत्मयात्रा देखी है, उसे यहाँ जरूर आना चाहिए।

गाँव की पहली झलक और साहित्यिक आत्मा

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गाँव की पहली झलक में ही एक सादगी भरी गरिमा दिखाई दी। छायादार वृक्ष, संकरी पगडंडियाँ, पोखर किनारे गुनगुनी धूप सेंकते लोग और बांस की झुकी टहनियों से छनती धूप। यहाँ की प्रकृति कोई अलहदा वस्तु नहीं, बल्कि जीवन का एक सहज विस्तार है, ठीक वैसे ही जैसे शरतचंद्र की कहानियों में मौजूद है। यह सब देखते हुए लगा जैसे उनकी कहानियों का परिवेश किसी जीवित रूप में मेरी आँखों के सामने साकार हो गया है।

शरत बाबू के घर के द्वार तक पहुँचते-पहुँचते एक गहरी निस्तब्धता ने घेर लिया। दर-ओ-दीवार को छूते, महसूसते हुए मन में रील सा कुछ चलने लगा- ‘यह वही मकान है जहाँ बैठकर उन्होंने ‘चरित्रहीन’, ‘स्वामी’,‘पंडितमोशाई’, ‘दत्ता’ और न जाने कितनी कालजयी रचनाएँ रचीं। घर आज भी उनकी स्मृतियों को सँजोए खड़ा है। पुराना बरामदा, लकड़ी की खिड़कियाँ और आँगन में फैली धूप... जैसे शब्दों के माध्यम से जीवन की पीड़ा और करुणा को स्वर देने वाला एक यथार्थ संसार।’

शरत बाबू का घर और स्मारिका की आभा

घर से कुछ कदम की दूरी पर ही शरतचंद्र स्मारिका है। ऐसे भी समझा जा सकता है कि पोखर के एक महार पर उनका घर और दूसरे महार पर दालान (जो अब स्मारिका के रूप में परिवर्तित कर दिया गया) है। स्मारिका के पास ही एक चाय दुकान है। सुबह नियत समय पर स्मारिका को खोलने और शाम को बंद करने की जिम्मेदारी उसी दुकान के संचालकों के हाथों में है। इसलिए वहाँ लोगों की आवाजाही, बातों का सिलसिला और कोयले वाली भट्ठी पर केतली चढ़ने-उतरने का सिलसिला चलता रहता है।  

वहीं बातचीत में जाना कि शरत बाबू अक्सर पोखर किनारे बैठा करते थे। इसी पोखर का जिक्र तो ‘आवारा मसीहा’ में भी बार-बार आता है। जिसके पानी में शरतचंद्र के बाल सुलभ चंचलताओं और शरारतों की स्मृति भी घुली हुई है। शरत का तालाब में नहाना, तितली पकड़ना, पिता के पुस्तकालय से पुस्तकें पढ़ना जैसी घटनाएँ किताब के पन्ने की तरह रिवाइंड फ्रेम में पलटने लगा। यह भी याद आया कि शरतचंद्र जो कुछ भी सीखते थे, उसे अपने व्यावहारिक जीवन में भी लागू या प्रयोग करते थे। एक बार तो उन्होंने पुस्तक में साँप को वश में करने का मंत्र पढ़‌कर उसका प्रयोग कर डाला था।

पोखर के समीप ही जाना कि देवानंदपुर के बारे में विष्णु प्रभाकर का लिखा भी कितना जीवंत है। आवारा मसीहा में जैसा लिखा है- ‘उन्हें एकांत प्रिय था, लेकिन वह एकांत सन्नाटे का नहीं, जीवन की ध्वनियों से भरा हुआ होता था। देवानंदपुर में, जब वह पोखर किनारे या किसी पीपल के नीचे बैठे होते, तो आसपास की बातचीत, बच्चों की हँसी, पशुओं की आवाज़ें, खेतों की हरकतें इन सबका लेखा-जोखा वे भीतर जमा कर लेते।’ यह जगह अब तक वैसी ही है।

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देवानंदपुर की प्रकृति और कहानियों का ताना-बाना

देवानंदपुर में प्रकृति सिर्फ पृष्ठभूमि नहीं, कहानी की सहचर है। पोखर के किनारे लगे आम-जामुन के पेड़, पास ही हँसते बच्चों की टोली और शाम को छूती हवा, यह सब ‘श्रीकांत’ में स्पष्ट रूप से अनुभव होता है। चाय की दुकान पर ही यह जिक्र भी आया कि- ‘हम लोग तो कहानियाँ नहीं पढ़ पाए, लेकिन यहां आने वाले बताते हैं कि शरत बाबू ने हम गाँववालों की ज़िंदगी लिख दी थी। देवानंदपुर की मिट्टी में आज भी वो संवेदना सांस ले रही है।’ बगीचे में टहलते हुए किसी कथा-संसार के बीचों-बीच से गुजरने का अहसास होता रहा। बहुत देर तक लगता रहा जैसे अब कहीं से ‘श्रीकांत’ देवानंदपुर लौट रहा होगा, केवल शरीर से नहीं, पूरी आत्मा के साथ।

स्मारिका की भौतिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है लेकिन तस्वीरों और शरत बाबू की यादों से भरी पड़ी है। स्कल्पचर आर्ट के जरिए उनके बाल्यकाल से अंतिम दिनों तक को सहेजा गया है। बाल्यकाल की क्रीड़ाओं का तो इसमें बहुत ही सुंदर वर्णन है। साथ ही समकालीन लेखकों, समाज-सुधारकों के साथ की जीवंत मूर्तियाँ भी आकर्षित करती हैं।

स्मारिका परिसर में मिट्टी पर चलते हुए लगा कि उनकी रचनात्मकता की जड़ें यहीं थीं। परिसर में ही कुआँ है, जिसका जिक्र और जिसकी परछाई, दोनों ही शरत की कहानियों में आवाजाही करते हैं। कुंएं के चबुतरे पर बैठे-बैठे आज भी जितना गाँव दिखता है, उसमें ‘महेश’ में ग़रीब किसान और उसकी गाय की कथा ठीक वहीं किसी परिवार से ली गई लग रही थी। ‘चरित्रहीन’ की सावित्री की स्वतंत्रता की छटपटाहट भी पास के ही किसी नारी की स्थिति की प्रतिध्वनि प्रतीत हो रही थी। ‘निष्कृति’ और ‘स्वामी’ में घर की स्त्रियाँ, आँगन में तुलसी चौरा, कुंआ और चूल्हे सब कुछ देवानंदपुर के जीवन की झलकियाँ ही तो हैं।

गाँव का जीवंत परिवेश और कथा का मेल

‘गाँव के लोग ही मेरी सबसे बड़ी प्रेरणा हैं’- शरतचंद्र की यह बात कुंएं के पास बैठकर और स्पष्ट हो रही थी।

शरत भी घंटों तक गाँव के कुएँ के पास बैठ जाते होंगे, जहाँ स्त्रियाँ पानी भरने आती होंगी; वहाँ होने वाली बातचीत, तकरार, हँसी-मजाक, सब उनके भीतर कहानियों के बीज बोते होंगे। तभी तो देवानंदपुर में उनका मौन ही, उनके पात्रों का स्वर बन गया था।

वहां की स्त्रियों को राह से गुजरते देखते हुए बार-बार लग रहा था शरतचंद्र की कहानियों की स्त्रियाँ ललिता (परिणीता), पारो (देवदास), कल्याणी (निष्कृति), गौरी (दत्तागौरी) सिर्फ भावनात्मक पात्र नहीं, बल्कि गाँव की स्त्रियों के मानसिक, सामाजिक और नैतिक संघर्षों की साक्षी हैं। देवानंदपुर में स्त्रियों का जो यथार्थ था (शायद अभी भी है), वही इन रचनाओं में नायिकाओं का स्वरूप बन गया।

लोगों की बातों को सुनते-महसूसते हुए यह यकीन और पुख्ता हो रहा था कि उनके किरदारों की संवेदना, भाषा, विचार और द्वंद्व सभी कुछ इस गाँव के लोक-व्यवहार, संस्कृति और समाज की उपज हैं। इसलिए जब कोई पाठक ‘देवदास’ या ‘श्रीकांत’ को पढ़ता है, वह अनजाने में देवानंदपुर की गलियों से होकर गुजरता है।

sarat chandra home

‘आवारा मसीहा’ में शरत के लेखकीय जीवन का जो बिंब उभरता है, उसमें उनका गाँव देवानंदपुर एक लेखनाश्रय के रूप में उपस्थित होता है। विष्णु प्रभाकर का यह लिखना याद आता रहा-‘वे भीड़ में नहीं रहते थे, न ही लेखन के लिए उन्हें किसी ‘प्रेरित’ वातावरण की आवश्यकता थी। उन्हें एकांत प्रिय था, लेकिन वह एकांत सन्नाटे का नहीं, जीवन की ध्वनियों से भरा हुआ होता था। ‘देवदास’ जैसे पात्रों का मानसिक द्वंद्व हो या ‘महेश’ की करुणा, इन सबके पीछे शरतचंद्र का यही ग्रामीण अवलोकन था ।’

यहां होते हुए यह यकीन बढ़ता है कि शरतचंद्र ने किसी कल्पना से नहीं, बल्कि गाँव की स्त्रियों को जीकर ‘सावित्री’, ‘पारो’ और ‘ललिता’ जैसी स्त्रियाँ गढ़ीं। उन्होंने उस समाज में उनकी पीड़ा को देखा और जाना था और उसी को शब्दों में ढाल दिया। इसमें उनका गाँव, लोग, रिश्ते, स्त्रियों की पीड़ा और सामाजिक तानाबाना सब गहराई से सम्मिलित थे। इसलिए उनकी कहानियाँ आज भी पाठकों के हृदय में घर करती हैं। इसलिए भी कि वे वास्तविकता की प्रतिध्वनि हैं, कल्पना की गूँज नहीं।

गाँव की गलियों में घूमते हुए ऐसा लगता है जैसे ‘महेश’ की गाय किसी झोपड़ी से निकलती है, ‘सावित्री’ तुलसी चौरे पर दिया जला रही है, ‘ललिता’ चौखट पर बैठी है, और ‘देवदास’ नदी के किनारे चुपचाप बैठा अपने आप से बातें कर रहा है। यहाँ का हर दृश्य, हर आवाज़ शरत के साहित्य की प्रतिध्वनि है। खेतों की पगडंडी पर कुछ किशोर को चलते आते देखते हुए लगता है, कोई भी बच्चा ‘बिंदु का छेले (बेटा)’ हो सकता है। कोई किसान ‘महेश’ का मालिक, कोई किशोरी ‘कल्याणी’ और कोई वृद्धा ‘बिराज बहू’। गाँव बदल गया है, घर पक्के हो गए हैं, तकनीक का जाल बिछ चुका है लेकिन चरित्र वही हैं, संवेदनाएँ वही हैं।

भागलपुर से देवानंदपुर तक का साहित्यिक सेतु

devanandpur-village

देवानंदपुर की गलियों में चलते हुए जहाँ एक ओर मैं शरतचंद्र की कथाओं की जीवंत छाया में उतर रहा था, वहीं दूसरी ओर भागलपुर (बिहार) की स्मृति बार-बार मन को स्पर्श कर रही थी। यह भागलपुर ही था जहाँ शरत ने किशोर अवस्था में यथार्थ जीवन की पहली ठोकरें, गरीबी, मानव-व्यवहार की विविधता और स्वाभिमान की जटिलताएँ देखी थी। वहीं किशोरवय के संघर्षों और अनुभवों से साहित्यिक आत्मा को आकार दिया। यूं कहें कि भागलपुर ने उन्हें शिक्षित नहीं किया, उसने उन्हें ‘सचेत’ किया। मन कुछ सुखद स्मृतियों से भर गया। वहां से कुछ कोस दूर मेरा गाँव कोशिकापुर (अररिया ज़िला) भी तो उन्हीं सांस्कृतिक सन्दर्भों की परिधि में है!

शरतचंद्र के निजी पत्रों में इस बात का जिक्र भी मिलता है कि उन्होंने भागलपुर के समाज को देखा नहीं था, बल्कि उसे भुगता था। यही अनुभव उनके उपन्यासों की आत्मा बनी। शुरुआती कहानी ‘कानी लता’ उसी जमीन पर उपजी कहानी है। भागलपुर में उनके ननिहाल की स्त्रियाँ, उनका दर्द, उनकी चुप्पी, जीवन की जटिलताएँ और गहराई ही बाद में उनकी नायिकाओं में आई।

उस दौर का भागलपुर, जहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गीतांजलि के कुछ अंश लिखे, शरत ने वहां के अनुभवों पर देवदास, चरित्रहीन, निष्कृति, महेश जैसे उपन्यासों को गढ़ा। शिवपूजन सहाय ने हिंदी कथा की एक नई इबारत लिखी, फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी के सबसे बड़े आंचलिक कथाकार के रूप में जाने गए,  ताराशंकर बंद्योपाध्याय सरीखे कितने ही साहित्यकारों के लिए प्राणवायु की तरह रहा। जहाँ उन्होंने ग्रामीण यथार्थ, कोसी क्षेत्र की त्रासदी, बाढ़ और पलायन जैसी विभीषिका को देखा, भोगा और लिखा।

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शाम होते ज्यों-ज्यों सूरज की किरणें पोखर के पानी पर उतर रहा था, पोखर का सौंदर्य और उरूज छू रहा था। उन दृश्यों को छोड़कर घर लौटते हुए मन भारी था। देवानंदपुर केवल एक गाँव नहीं, मेरे लिए एक जीवित कथा-संसार बन चुका था जहां शरतचंद्र की स्मृति आज भी शब्दों से जीवन रचता है और जीवन से शब्द। यह यात्रा समाप्त नहीं हुई है। हर बार जब उनकी कोई कहानी पढ़ूंगा, यह गाँव, ये गलियाँ, ये लोग सब मेरे सामने होंगे और मैं जानूंगा कि साहित्य केवल कल्पना नहीं, जीवन की सबसे सच्ची परछाई है, ऐसी परछाई जिसे कभी किसी देवानंदपुर की मिट्टी ने जन्म दिया था। यह सिर्फ एक यात्रा नहीं, एक आत्मीय संवाद था। संवाद शरत बाबू के गाँव से, उनके साहित्य से और सबसे बढ़कर, उस मानवीय करुणा से, जिसे उन्होंने शब्दों का रूप दिया और जन-जन के मन में उतर गए। 

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