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यमुना नदी के करीब सिविल लाइंस एरिया में आबाद मेटकाफ हाउस सिर्फ ईंट और पत्थर का ढांचा नहीं, बल्कि दिल्ली के उस दौर की गवाह इमारत है जब ब्रिटिश राज अपने चरम पर था। मेटकाफ हाउस का नाम सुनकर शायद आपके मन में सवाल उठे कि ये नाम आया कहां से? तो चलिए, शुरू से शुरू करते हैं। मेटकाफ हाउस का नाम सर थॉमस थियोफिलस मेटकाफ ( जन्म 2 जनवरी 1795- 3 नवंबर 1853) के नाम पर पड़ा। वे 19वीं सदी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के एक बड़े अधिकारी थे।
वो कौन थे ?
वो दिल्ली में रेज़िडेंट के तौर पर तैनात थे, यानी वो ब्रिटिश सरकार और स्थानीय शासकों के बीच एक कड़ी की तरह काम करते थे। उस समय दिल्ली मुग़ल बादशाहों की राजधानी थी, लेकिन असल सत्ता ब्रिटिशों के हाथ में थी। मेटकाफ ने दिल्ली में अपनी मौजूदगी को मज़बूत करने के लिए एक शानदार हवेली बनवाई, जिसे आज हम मेटकाफ हाउस के नाम से जानते हैं।
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हाल ही में प्रकाशित किताब ‘मेटकॉफ हाउस’ में लेखक गोपाल शुक्ल बताते हैं कि यह इमारत 1830 के दशक में बननी शुरू हुई और 1844 तक पूरी तरह तैयार हो गई। इसका डिज़ाइन उस समय की ब्रिटिश औपनिवेशिक वास्तुकला से प्रेरित था, जिसमें यूनानी और रोमन शैली की झलक मिलती है। अगर आपने कभी कोलकाता में मेटकाफ हॉल देखा हो, तो उसकी बनावट से आप इसकी तुलना कर सकते हैं। दोनों ही इमारतें 19वीं सदी की ब्रिटिश शाही शैली को दर्शाती हैं।
मेटकाफ हाउस दिल्ली के सिविल लाइंस इलाके में बना, जो उस समय ब्रिटिश अधिकारियों और उनके परिवारों का पसंदीदा एरिया था। सिविल लाइंस उस दौर में दिल्ली का एक नया हिस्सा था, जहां ब्रिटिश अपने लिए आलीशान घर और दफ्तर बनवाते थे। मेटकाफ हाउस न सिर्फ़ सर थॉमस मेटकाफ का निवास था, बल्कि ये एक सामाजिक और प्रशासनिक केंद्र भी बन गया। यहां ब्रिटिश अधिकारी इकट्ठा होते, बैठकें करते, और शाही पार्टियां आयोजित की जाती थीं।
ब्रिटिश राज में मेटकाफ हाउस
मेटकाफ हाउस उस समय दिल्ली के सत्ता के खेल का एक अहम हिस्सा था। सर थॉमस मेटकाफ एक दूरदर्शी और प्रभावशाली व्यक्ति थे। वो न सिर्फ़ ब्रिटिश हितों को बढ़ावा देते थे, बल्कि स्थानीय लोगों और मुग़ल दरबार के साथ भी उनके रिश्ते मज़बूत थे। इस इमारत में कई ऐसी मुलाकातें हुईं, जिन्होंने दिल्ली के भविष्य को आकार दिया।
गोपाल शुक्ल बताते हैं कि 1857 की क्रांति में मेटकाफ हाउस का एक दुखद अध्याय जुड़ा। इस क्रांति के दौरान दिल्ली में भारी उथल-पुथल मची थी। ब्रिटिश अधिकारियों के लिए सिविल लाइंस और मेटकाफ हाउस जैसे ठिकाने सुरक्षित नहीं रहे। क्रांति के दौरान इस इमारत को काफी नुकसान पहुंचा। मेटकाफ हाउस को आंशिक रूप से लूटा गया और कुछ हिस्सों में आग भी लगाई गई। लेकिन ब्रिटिशों ने क्रांति को दबाने के बाद इस इमारत को फिर से बनवाया और इसे और मज़बूत किया।
मेटकाफ हाउस की लाइब्रेरी
मेटकाफ हाउस का एक और खास पहलू ये था कि ये सिर्फ़ एक रिहायशी इमारत नहीं थी। इसमें एक पुस्तकालय भी था, जिसमें सर थॉमस मेटकाफ ने अपनी किताबों का बड़ा संग्रह रखा था। ये पुस्तकालय उस समय के बुद्धिजीवियों और अधिकारियों के लिए ज्ञान का एक बड़ा स्रोत था। मेटकाफ ने फोर्ट विलियम कॉलेज की लाइब्रेरी से करीब 4,675 किताबें लाकर इस पुस्तकालय की नींव रखी थी।
सरदार पटेल मेटकाफ हाउस में
मेटकाफ हाउस का लौह पुरुष सरदार पटेल से एक बेहद करीबी नाता रहा है। इधर ही सरदार पटेल ने 21 अप्रैल, 1947 को भारत के पहले बैच के आईएएस-आईपीएस अफसरों को स्वराज और सुराज के महत्व पर ज्ञान दिया था। सरदार पटेल ने आईएएस अफसरों को 21 अप्रैल, 1947 को संबोधित करते हुए कहा था किपुरानी शैली की भारतीय सिविल सेवा के दिन अब समाप्त होने जा रहे हैं और उसकी जगह पर हमने अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा को अस्तित्व में लाया है। यह परिवर्तन महत्वपूर्ण और युगांतकारी दोनों है।
सबसे पहले, यह सत्ता के उस हस्तांतरण का स्पष्ट लक्षण है जो विदेशियों से भारतीयों के हाथों में हो रहा है। दूसरे, यह अखिल भारतीय सेवा का उद्घाटन है जिसके अधिकारी पूरी तरह से भारतीय होंगे और जो पूरी तरह से भारतीयों के नियंत्रण में होगी।
तीसरे, यह सेवा अब अतीत की परंपराओं और आदतों से बंधे बिना राष्ट्रीय सेवा की अपनी वास्तविक भूमिका को अपनाने के लिए स्वतंत्र होगी या उसे अपनाना होगा।
सरदार पटेल ने कहा था कुछ हद तक आप सभी जो इस विद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, अपने पूर्ववर्तियों से अधिक भाग्यशाली हैं। आपके पूर्ववर्तियों को एक विदेशी शासन के एजेंट के रूप में काम करना पड़ा और, अपने बेहतर निर्णय के विरुद्ध भी, कभी-कभी अपने विदेशी नियोक्ताओं के आदेशों का पालन करना पड़ा। अब आपको यह संतोष होगा कि आप जो भी करेंगे, अपने ही साथी भारतीयों के आदेशों के तहत करेंगे। आपके पूर्ववर्तियों का लालन-पालन ऐसी परंपराओं में हुआ था, जिसमें वे खुद को लोगों के सामान्य व्यवहार से अलग-थलग महसूस करते थे और खुद को अलग-थलग रखते थे। भारत के आम लोगों को अपना मानना या सही ढंग से कहें तो खुद को उनमें से एक और उनके बीच महसूस करना आपका परम कर्तव्य होगा और आपको उनका तिरस्कार या उपेक्षा न करना सीखना होगा। दूसरे शब्दों में, आपको प्रशासन के लोकतांत्रिक तरीकों को अपनाना होगा ।
स्वतंत्रता के बाद मेटकाफ हाउस
1947 में भारत की आज़ादी के बाद मेटकाफ हाउस का इस्तेमाल भी बदल गया। ब्रिटिश राज के खत्म होने के साथ इस इमारत का शाही ठाठ-बाट भी खत्म हुआ। स्वतंत्र भारत में इसे सरकारी इस्तेमाल के लिए ले लिया गया। आज़ादी के बाद के शुरुआती सालों में ये इमारत कई सरकारी विभागों का दफ्तर बनी। खास तौर पर, इसे रक्षा मंत्रालय से जुड़े कुछ संस्थानों ने इस्तेमाल किया।
20वीं सदी के मध्य तक मेटकाफ हाउस में डिफेंस साइंस ऑर्गनाइज़ेशन (DSO) का दफ्तर था। बाद में इसे डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइज़ेशन (DRDO) को सौंप दिया गया। DRDO ने इस इमारत को अपने शुरुआती शोध और प्रशासनिक कामों के लिए इस्तेमाल किया। ये अपने आप में एक बड़ा बदलाव था, क्योंकि जो इमारत कभी ब्रिटिश शासकों की शान थी, वो अब स्वतंत्र भारत के वैज्ञानिक और रक्षा क्षेत्र का हिस्सा बन चुकी थी।
क्या है इसकी स्थिति?
अब बात करते हैं आज के मेटकाफ हाउस की। अगर आप सिविल लाइंस में जाएं और मेटकाफ हाउस को देखें, तो शायद आपको वो भव्यता न दिखे, जो कभी इसकी पहचान थी। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि इसकी अहमियत खत्म हो गई है। आज मेटकाफ हाउस को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की निगरानी में एक संरक्षित स्मारक के तौर पर देखा जाता है। ASI ने इस इमारत को संरक्षित करने के लिए कई कदम उठाए हैं, ताकि इसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को बचाया जा सके।
मेटकाफ हाउस को पर्यटन स्थल की तरह विकसित किया जा सकता है, जैसे कि दिल्ली के लाल किला या कुतुब मीनार को किया जाता है। जो लोग दिल्ली के औपनिवेशिक इतिहास को समझना चाहते हैं, उनके लिए मेटकाफ हाउस एक खास जगह है।मेटकाफ हाउस सिर्फ़ एक इमारत नहीं, बल्कि दिल्ली के उस दौर की कहानी है, जब शहर ब्रिटिश और मुग़ल प्रभावों के बीच झूल रहा था। मेटकाफ हाउस हमें उस दौर में ले जाता है, जब ब्रिटिश भारत पर अपनी पकड़ मज़बूत कर रहे थे। ये इमारत हमें याद दिलाती है कि दिल्ली का इतिहास सिर्फ़ राजा-महाराजाओं का नहीं, बल्कि औपनिवेशिक शक्तियों का भी है।
मेटकाफ हाउस के सामने चुनौतियां
मेटकाफ हाउस को आज कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सबसे बड़ी समस्या है इसके रखरखाव की। दिल्ली जैसे व्यस्त शहर में, जहां हर दिन नई इमारतें बन रही हैं, पुराने स्मारकों को संभालना आसान नहीं है। मेटकाफ हाउस की हालत को देखकर लगता है कि इसे और ध्यान देने की ज़रूरत है। ASI ने भले ही इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया हो, लेकिन इसके जीर्णोद्धार के लिए बड़े पैमाने पर फंडिंग और योजना की ज़रूरत है।
दूसरी चुनौती है लोगों में जागरूकता की कमी। दिल्ली के ज़्यादातर लोग मेटकाफ हाउस के बारे में ज्यादा नहीं जानते। स्कूलों और कॉलेजों में इसके इतिहास को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती। अगर इसे एक पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित किया जाए, तो शायद लोग इसके महत्व को बेहतर समझ सकें। इसके लिए सरकार को चाहिए कि वो मेटकाफ हाउस को दिल्ली के पर्यटन नक्शे में शामिल करे, जैसे कि कुतुब मीनार या इंडिया गेट को किया गया है।
मेटकाफ हाउस से धौलपुर हाउस तक
भारत की नौकरशाही के लिए मेटकाफ हाउस का विशेष स्थान है। इसी इमारत में आयोजित होती थी आईसीएस परीक्षा और फिर उसमें उतीर्ण अभ्यर्थियों के इंटरव्यू। ये बातें देश की आजादी से पहले की है। अंग्रेजों ने 1854 में भारत के लिए फेडरेल पब्लिक सर्विस कमीशन की स्थापना की। पहले आईसीएस की परीक्षाएं लंदन में ही आयोजित होती थीं। पर पहले विश्व युद्ध के बाद गोरों को कुछ अक्ल आई। उन्होंने 1922 से आईसीएस की परीक्षाएं दिल्ली और इलाहाबादमें भी आयोजित करनी शुरू कीं।
एक बार पंजाब कैडर के आईसीएस अफसर बदरूद्दीन तैयबजी ने बताया था कि वे अपना इंटरव्यू देने दरियागंज से मेटकाफ हाउस टांगे में बैठकर गए थे। उन दिनों दिल्ली में टांगे पर ही यहां से वहां जाते थे दिल्ली वाले। एक बात समझ से परे है कि मेटकाफ हाउस में ही संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी का दफ्तर क्यों नहीं स्थापित किया गया? इसमें पर्याप्त स्पेस है और इसकी लोकेशन भी शानदार है।
बहरहाल, सर थॉमस थियोफिलस मेटकाफ की कब्र उनके मेटकाफ हाउस से कुछ ही दूरी पर स्थित कश्मीरी गेट के सेंट जेम्स चर्च कैंपस में है।