रोमन नाटककार टेरेंस की पंक्ति “Homo sum, humani nihil a me alienum puto” का अर्थ है: 'मैं इंसान हूँ और मानवता से जुड़ी कोई भी चीज़ मेरे लिए बाहरी नहीं।' लेकिन वास्तविक दुनिया में, जन्म के साथ ही हमें तयशुदा लैंगिक भूमिकाएँ (gender roles) दे दी जाती हैं। इन लैंगिक सीमाओं से बाहर जाना अक्सर सामाजिक‑धार्मिक विरोध का सबब बन जाता है।

क्रॉस‑ड्रेसिंग (Cross‑dressing) का अर्थ है वह पहनावा चुनना जो पारंपरिक तौर पर “दूसरे” लिंग से जोड़ा गया है। यह कदम कई बार सामाजिक नियमों के खिलाफ शांत लेकिन स्पष्ट प्रतिरोध का ज़रिया भी बनता आया है।

क्रॉस‑ड्रेसिंग या ट्रांसवेस्टिज़्म का शाब्दिक अर्थ है वे कपड़े या सजावट जिसे समाज किसी दूसरे लिंग से जोड़ता है। इस संदर्भ में ईओनिज़्म (Eonism) का ज़िक्र भी आना लाज़िम है। क्रॉस‑ड्रेसिंग की परंपरा के लिए इस्तेमाल हुआ यह शब्द ड’ईऑन (D’Eon) नामक फ्रांसीसी राजनयिक/सैनिक से जुड़ा है जिन्होंने जीवन का एक हिस्सा पुरुष और दूसरा हिस्सा महिला रूप में जिया। लेकिन गौरतलब यह है कि क्रॉस‑ड्रेसिंग किसी एक वजह से नहीं होती; यह सुविधा, आराम, कला, पहचान, संवेदना या निजी पसंद, कई संदर्भों में समझी जा सकती है।

इतिहास और मिथक: विविध उदाहरण

भारतीय परंपरा में क्रॉस ड्रेसिंग या ट्रांसवेस्टिज़्म के प्रचुर उदाहरण मिलते हैं। महाभारत के पात्र शिखंडी इसी लिंग रूपांतरण से जुड़ी कथा का प्रमुख उदाहरण हैं। 

हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सखी‑भाव में कृष्ण‑भक्ति करने वाले पुरुष अनुयायी स्त्री‑वेष धारण करते हैं। पौराणिक मान्यता यह है कि “सच्चा पुरुष” केवल कृष्ण हैं, शेष सृष्टि स्त्रीस्वरूप है।

सूफ़ी परंपरा में भी पहनावे ने लैंगिक देहरियां लांघीं। अमीर खुसरो ने बसंत उत्सव में पीले वस्त्र पहन कर अपने गुरु हज़रत निज़ामुद्दीन का मन बहलाने की चेष्ठा की। बाबा बुल्ले शाह अपने गुरु शाह इनायत को मनाने के लिए नर्तकी के वेश में नाचे गाए। 

यूनानी और नॉर्स मिथक में भी डायोनाइसस से जुड़ी रस्मों में क्रॉस‑ड्रेसिंग का उल्लेख मिलता है। पुराने चित्रों में हेरक्युलीज़ का स्त्री‑वेष मौजूद है। थॉर का फ्रेया के रूप में और ओडिन का स्त्री‑वैद्य के वेश में प्रसंग भी मौजूद है। 

इससे यह भान होता है कि अलग‑अलग सभ्यताओं में रूप‑परिवर्तन या वेश परिवर्तन को कभी भक्ति, कभी अनुष्ठान, कभी करुणा‑सांत्वना, तो कभी साहस के रूप में देखा गया है। 

सामाजिक छद्मावरण

समाज ने जब स्त्री‑पुरुष की भूमिकाओं को सख़्त खांचों में बाँटा, तो अलग‑अलग घेरे बन गए। नतीजतन महिलाओं के चारों ओर रहस्य/वर्जना का घेरा बनाया गया ताकि उनके प्रति एक कौतूहल बना रहे। पुरुषों के पास गतिशीलता और रोज़गार की अधिक स्वतंत्रता थी इसलिए कुछ महिलाओं ने पुरुष‑वेश और हाव‑भाव अपनाकर अपने लिए थोड़ी आज़ादी ढूंढने की कोशिश की। उदाहरण के तौर पर जोन ऑफ़ आर्क 15वीं सदी में पुरुष‑वेश धारण कर सेना में शामिल हुई; हालांकि मध्ययुगीन धार्मिक अदालत ने “पुरुष कपड़े” पहनने के अपराध में उन्हें सज़ा‑ए‑मौत तक दे दी।

इसी तरह अफ़गानिस्तान में ‘बच्चा‑पोश’ का चलन देखने को मिलता है। कई अवयस्क लड़कियों को लड़कों की तरह पाला‑पोसा और पहनाया ओढ़ाया जाता है, ताकि वे पितृसत्तात्मक ढांचे में घर से बाहर निकलकर पुरुषों या लड़कों के वेष में काम कर सकें।

चीनी लोककथा ‘मुलान’ नाम के एक स्त्री किरदार का ज़िक्र करती हैं जो पिता की जगह सेना में जाने के लिए पुरुष‑वेश अपनाती है और मोर्चों पर बहादुरी से लड़ती है।

मंच और प्रदर्शन

प्राचीन से लेकर आधुनिक रंगमंच पहनावे की लैंगिक दीवारें लांघता आया है। यूरोप में 19वीं सदी तक ओपेरा या चर्च कोयर में स्त्री भूमिकाएँ 'कैस्ट्राटो' पुरुष निभाते थे। उत्तर भारत के स्वांग या सांग में प्राचीन समय से सिर्फ़ पुरुष दल ही स्त्री भूमिकाएँ निभाते थे। जापान के काबुकी में ओन्नागाता पुरुष कलाकार ही स्त्री पात्र निभाते आए हैं। 

औरत के लिए मर्द की तरह कपड़े पहनना या उसका रूप धरना आसान था, क्योंकि उसके चेहरे और शरीर पर ज़्यादा बाल नहीं होते थे। इसी वजह से, और समाज के नियमों के चलते, पुराने समय से ही नौजवान लड़के ही औरतों के किरदार निभा सकते थे, चाहे वह सार्वजनिक कार्यक्रम हों या मंच पर नाटक-नृत्य।

मिस्र (Egypt) में “कुचेक” नाम के पेशेवर नर्तक होते थे, जो औरतों की तरह सजते-संवरते और खास मौकों पर नृत्य करते थे। अफ़ग़ानिस्तान में “बच्चा-बाज़ी” नाम से एक परंपरा रही, जिसमें कम उम्र के लड़के, जिन्हें डांसिंग बॉय कहा जाता है, औरतों का भेस धरकर मर्दों के सामने नाचते-गाते थे।

संभव है कि यही परंपरा अफ़ग़ानों के ज़रिए कश्मीर आई हो, जहाँ इसे बच्चा-नग़मा या बच्चा ग्यावन कहा गया। इसमें किशोर लड़के लड़कियों का वेश धरकर “हाफ़िज़ा” शैली में नृत्य करते थे।

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इसी तरह, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में लौंडा नाच नामक लोकनृत्य की परंपरा है, जहाँ मर्द औरतों का भेस धरकर नृत्य करते थे। यह प्रथा उस दौर में शुरू हुई जब तवायफ़ें केवल अमीर और रईस लोगों का मनोरंजन करती थीं। आम जनता को सस्ता और सुलभ मनोरंजन देने के लिए, मर्द औरतों का रूप धरकर लौंडा के रूप में नाचने लगे।

ड्रैग संस्कृति का पश्चिम में प्रभाव खूब रहा है। ड्रैग क्वीन/किंग मंच पर अतिरंजित/प्रतीकात्मक स्त्री या पुरुष व्यक्तित्व पेश करते हैं। पुरुष महिलाओं के भेस में और स्त्रियां पुरुषों के आवरण में मंचन करते आए हैं। इसी क्रम में 1930–33 के दशक में ‘पैन्सी क्रेज़’ बढ़ा यानि अमेरिका के कई शहरों के अंडरग्राउंड क्लबों में ड्रैग कलाकारों की लोकप्रियता का दौर अपने उफान पर पहुंच गया।

लैंगिकता, ‘मर्दानगी’ और नारीवादी लहर

समाज ने मर्दानगी को ताकत या सख्ती से जोड़ा और स्त्रीत्व को कोमलता या शालीन छवि से।

19वीं सदी के अंत में कई जगह ‘मर्दानगी को एंटी‑इंटेलेक्चुअलिज़्म’ का पर्याय भी माना जाने लगा। संगीत, कला, बुनाई जैसी चीज़ें ‘स्त्रैण’ मानी गईं; इन कलाओं को अपनाने वाले लड़कों को ‘इफेमिनेट’ तक कहना शुरू हो गया। लोकप्रिय श्रृंखला Anne with an E के पात्र कोल मैकेंज़ी के माध्यम से 19वीं सदी के काल में यह भाव दिखता भी है।

पुरुषों की क्रॉस‑ड्रेसिंग से उनकी यौन पहचान पर सवाल उठाना उस दौर की एक बड़ी गलतफ़हमी का उभरना था क्योंकि समाज के अलग अलग तबकों में सूरत ए हाल अलग अलग थे जैसे एलिज़ाबेथन इंग्लैंड में मेकअप पुरुषों में भी लोकप्रिय था (सफ़ेद पाउडर आदि)। 18वीं सदी के फ़्रांस के शाही दरबार में मेकअप और हेयर‑प्रोडक्ट, हाई हील्स, फर मफ़्स, ये सब मर्दों में प्रचलित थे।

देखा जाए तो नारीवादी दौर में सभी स्त्रियाँ क्रॉस‑ड्रेसिंग कर अलग यौन पहचान नहीं तलाश रहीं थीं; कई सिर्फ़ आराम और कार्यकुशलता के लिए ट्राउज़र्स या ढीले कपड़े चाहती थीं; यूरोप के 'ड्रेस‑रिफ़ॉर्म मूवमेंट' ने जिस प्रवृत्ति को तर्कों से बढ़ावा दिया।

दिल्ली से पत्रकारिता स्नातक नेहा वत्स बताती हैं कि उन्हें बचपन से लड़कों जैसे कपड़े पहनना पसंद थे; बड़े होने पर कुर्ता या सलवार की जगह शर्ट‑पैंट और छोटे बाल अधिक आरामदेह लगे। कभी‑कभी उन्हें ‘टॉमबॉय’ कहकर चिढ़ाया भी गया, फिर भी उन्होंने अपनी पसंद नहीं बदली। नेहा की यह पसंद उनके आराम पर आधारित थी। 

सिनेमा में स्त्री‑पुरुष ‘अल्टर‑ईगो’ की पड़ताल

The Danish Girl (2015) फ़िल्म में चित्रकार आइनार वेगेनर अपनी कलाकार पत्नी गेरदा के लिए कभी‑कभी स्त्री‑वेश धारण करते हैं; धीरे‑धीरे उन्हें अपनी स्त्री‑पहचान का एहसास होने लगता है और वे अपना नया नाम लिली एल्बे रखते हैं और फिर फिल्म उनकी जेंडर‑कन्फर्मेशन यानि लैंगिक परिवर्तन से सर्जरी तक का सफ़र दिखाती है।

फ़िल्म 'किस्सा' (2014, भारत) में पिता की पुरुष‑संतान की आस में कंवर सिंह (जन्म से लड़की) को लड़के की तरह पालता है जिसके विवाह के बाद उसकी पहचान और यौनिकता की उलझनें तीव्र हो जाती हैं।

Mrs. Doubtfire (1993), Some Like It Hot (1959) जैसी फिल्मों में भी क्रॉस‑ड्रेसिंग का कॉमिक चित्रण दिखाई देता है; कई बार फिल्मों में पुरुष‑वेशभूषा में स्त्रैणता दिखाकर हँसी या रोमांच भी पैदा किया जाता है।

LGBTQ+ और क़ानूनी‑सामाजिक स्थिति

कई देशों में पहनावे और लैंगिक पहचान से जुड़े पुरातन प्रतिबंधात्मक क़ानून हटाए जा रहे हैं; एलजीबीटीक्यू+ समूहों की वकालत से क्रॉस‑ड्रेसिंग का अपराधीकरण कुछ जगहों पर समाप्त या कम भी हुआ है। यदि केवल तीव्र यौन उत्तेजना के लिए विपरीत लिंग के कपड़े पहनना व्यवहारिक या सामाजिक समस्याएँ पैदा करे, तो इसे ट्रांसवेस्टिक डिसऑर्डर कहा जा सकता है। लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो क्रॉस‑ड्रेसिंग स्वयं में कोई विकार नहीं है। हाल के वर्षों में WHO ने ड्यूल‑रोल ट्रांसवेस्टिज़्म को मानसिक विकारों की सूची से हटा दिया जो कि पहनावे को लेकर सख़्त सामाजिक लकीरों को लांघने की दिशा में एक कदम है।

बदलता समाज, बदलता हुआ नज़रिया 

चाहे सामाजिक प्रतिरोध के लिए या स्टाइल‑स्टेटमेंट की तरह या फिर यौनिकता और पहचान की अभिव्यक्ति के तौर पर या केवल आराम व सुविधा की खातिर, क्रॉस‑ड्रेसिंग समाज की बनावटी परतों को हटाकर वैकल्पिक नज़रिए को सामने लाने का तरीका है। इसमें मूल भाव यही रहता है कि कपड़ों का चुनाव व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति और अनुभव का ज़रिया हो। क्रॉस ड्रेसिंग को समझने के लिए इतिहास, संस्कृति, कला, मनोविज्ञान, सबको साथ‑साथ देखना होगा ताकि साफ नज़र से इस सामाजिक प्रवृत्ति का पुनर्वलोकन किया जा सके।