'तुम सिगरेट पीते हो?'
शादी से कुछ दिन पहले गपशप करते हुए अचानक स्मिता ने पूछा था।

'नहीं', मैंने पूरी मासूमियत से सिर हिलाया था।
स्मिता के चेहरे पर चमक सी कौंधने को हुई।
लेकिन बस एक ही लम्हे रुक कर मैंने जोड़ा- 'बीड़ी पीता हूं।'

'छी.....!' एक बहुत लंबा सा कछी मुझ पर किसी लहराती हुई छड़ी सा पड़ा था।
मैं हंस रहा था।

लेकिन यह सच था।

सिगरेट-बीड़ी की दुनिया में मैं कैसे उतरा था?
शुरुआत विद्या की देवी सरस्वती के बहाने हुई थी।
सिगरेट का पहला कश मैंने सरस्वती पूजा की तैयारी के क्रम में लगाया था।

जनवरी की सर्द रात जब हम जागते हुए अपने छोटे से पूजा पंडाल को सजाने में लगे थे तो ठंड से देह अकड़ती सी लगी। तब एक दोस्त ने सलाह दी कि सिगरेट पी कर देखो- गर्मी मिलेगी।

आधी रात के बाद के सन्नाटे में सरस्वती जी की प्रतिमा के पीछे छुप कर लगाए गए उस एक कश ने अचानक जैसे पूरे शरीर में गर्मी पैदा कर दी।

मैं घबरा गया। उस सिगरेट का दूसरा कश नहीं ले सका।

तब शायद 12 या 13 साल का रहा होऊंगा।

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लेकिन यह साल 1985 था, जब राजनीति ने मुझे कायदे से सिगरेट पीना सिखाया। 

बिहार में विधानसभा चुनाव थे और जनता पार्टी की उम्मीदवार थीं उषा सक्सेना। 

लेकिन जनता पार्टी की स्थानीय इकाई ने उनका साथ नहीं दिया।

बस हम कुछ उत्साही किशोर उनके लिए उस उम्र में वोट मांग रहे थे जब ख़ुद वोट देने की हमारी उम्र नहीं थी। तब 21 साल की उम्र में वोट देने का अधिकार मिलता था।

हमें बस एक गाड़ी मिल गई थी- साथ में एक लाउड स्पीकर- और माइक पर हम तमाम माताओं-बहनों से अपील करते थे कि वे चक्र हलधर पर मुहर मार कर उषा सक्सेना को विजयी बनाएं।

सुबह से शाम तक यह सिलसिला चलता और भूख लगती तो हम सिगरेट सुलगा लिया करते।

जल्द ही दिन में आठ-दस सिगरेटें फूंकने का अभ्यास बन गया।

सिगरेट पीते हुए हम खुद को कुछ बालिग़ और कभी-कभी क्रांतिकारी भी समझते थे।

उन्हीं दिनों कभी अल्बेयर कामू का उपन्यास 'अजनबी' पढ़ा था जिसका नायक मां की मृत्यु की ख़बर सुन कर पहले सिगरेट सुलगाता है।
तब एहसास नहीं था कि इस आस्थाहीनता के पीछे कितनी बड़ी विडंबना का दबाव है।

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हालांकि उस छोटे से शहर में छुप कर सिगरेट पीनी पड़ती थी।

कहीं कोई रिश्तेदार मिल जाता, कहीं कोई दूसरा आदरणीय परिचित।

एक बार इस चक्कर में मेरी दाढ़ी भी जल गई। सिगरेट पीने का अगला शौक कॉलेज के दिनों में खिला।

दो कक्षाओं के बीच के समय में कॉलेज कैंपस में बनी एक गुमटी में जाकर हम चाय का ऑर्डर देते और उसकी अंगीठी में कागज डाल कर उससे सिगरेट सुलगाते।

तो एक बार मैंने काग़ज़ जलाया, सिगरेट होंठों के बीच दबाई और शान से सुलगाने को था कि सामने एक प्रोफेसर आते दिखे जो मुझे बहुत मानते थे।

मैंने बहुत तेज़ी से सिर झुका कर सिगरेट छुपाई। सिगरेट तो नीचे हो गई, लेकिन जलते हुए कागज़ की लपटों ने झुकने से इनकार कर दिया।

उन्होंने मेरी उन दिनों की काली दाढ़ी झुलसा दी। अगले कुछ दिन मैं उसकी जलन झेलता रहा।

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8 जुलाई 1993 को मैंने रांची से दिल्ली की ट्रेन पकड़ी- अपने तीन दोस्तों मनोज, अप्पू यानी मंजुल प्रकाश और पिंटू यानी संजय लाल के साथ। 9 जुलाई की देर रात नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर राजेश प्रियदर्शी हमारा इंतज़ार कर रहा था। मनोज को जल्द ही लौटना था। लेकिन अगले कुछ साल हम चार दोस्त एक घर में रहे। और उस घर में खूब सिगरेट सुलगाई जाती। 

राजेश प्रियदर्शी, अप्पू और मैं सिगरेट पीते थे, पिंटू हम लोगों पर झल्लाता था, वह सिगरेट नहीं पीता था। कुछ दिन उसने शराब ज़रूर पी, जिसमें अप्पू और राजेश उसका साथ देते- मैं शराब से दूर था। लेकिन दिन भर में उस कमरे में 25-30 सिगरेटें राख हो जाया करतीं और यह राख बेतरतीबी से इधर-उधर पड़ी रहती। हम भी राख की तरह इस अजनबी शहर में यहां-वहां छितराए रहते और सोचते कि एक दिन इस राख से कुछ रोशनी निकल आएगी।

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उन्हीं दिनों इस क़िस्से में बीड़ी आ जुड़ी। यह शायद 1994 का साल था जब शायद प्रयाग शुक्ल जी के सौजन्य से एक कार्यक्रम हुआ जिसमें चित्रकारों को कविता पढ़नी थी। जहां तक मुझे याद आता है, उस कार्यक्रम में जगदीश स्वामीनाथन, मंजीत बावा, कृशन खन्ना, गुलाम मोहम्मद शेख़ सहित कई कलाकार जुड़े थे। मैंने वहीं स्वामीनाथन को बीड़ी पीते हुए देखा। एक बहुत संभ्रांत मंच पर बीड़ी सुलगाते स्वामीनाथन की जो भव्यता थी, उस पर मैं रीझ गया। मैंने तय किया कि मैं भी बीड़ी पिऊंगा। 

जब दुकान पर पहुंचा तो पता चला कि बीड़ी तो जेब के लिहाज से भी बहुत सस्ती है। उस समय गोल्ड फ्लैक की दस सिगरेट का पैकेट शायद दस या पंद्रह रुपये में आता था। जबकि मुझे दो रुपये में गणेश छाप बीड़ी का बंडल मिला जिसमें 25 बीड़ियां होती थीं। अगली सुबह जब मैंने कमरे में शान से बीड़ी सुलगाई तो दोस्त लोग भड़क उठे- कमरे का स्टैंडर्ड गिरा रहे हो। लेकिन मैं ढीठ की तरह अड़ा रहा। शाम होते-होते लेकिन माहौल बदल गया। अप्पू की सिगरेट खत्म हो चुकी थी। उसने आकर मुझसे बीड़ी मांग ली। इसके बाद राजेश की बारी आई। फिर धीरे-धीरे हम तीनों बीड़ी वाले हो गए।

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फिर एक दिन अप्पू यानी मंजुल प्रकाश का फोन आया- एम्स में कोई जान-पहचान का डॉक्टर है? मैंने पूछा, क्या हुआ। उसने बताया कि उसकी जीभ में महीने भर से छाले पड़े हुए हैं। शुरू में वह कुछ घरेलू इलाज करता रहा, फिर डॉक्टर से मिला। उससे भी जब ठीक नहीं हुआ तो डॉक्टर ने सलाह दी कि वह इसकी जांच करवाए। अपोलो में उसे कैंसर निकला है। उसने बताया कि शुरू में जब छाले पड़े और खाना-पीना मुश्किल होता था तो वह सिगरेट पी लिया करता था। इससे कुछ राहत मिलती थी। मैं उसे लेकर एम्स गया। 

डॉ विनोद खेतान हिंदी के लेखक, त्वचा के डॉक्टर और मेरे लिए अग्रज-आत्मीय मित्र रहे। उन्होंने देखा, कैंसर की पुष्टि की- बताया कि यह बीमारी आपको सिगरेट की सौगात है। फिर अपोलो में ही उसकी सर्जरी हुई, कीमोथेरेपी हुई, रेडिएशन दिए गए और साल भर वह मुंह में पाइप लगाकर खाता रहा। दोस्तों में जो पारस्परिक निर्ममता-निर्लज्जता होती है, उसका आदी मैं तब भी मज़ाक में कहा करता था कि अब आसान हो गया है- कुप्पी डाल कर अप्पू को खाना दिया जा सकता है। बहरहाल, अप्पू से शादी के बाद से ही हम सबको झेलती निवेदिता प्रकश यानी रिनी ने बहुत धैर्य से सबकुछ किया और अब सब ठीक है।

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लेकिन हमारे बीच जो सिगरेट नहीं पीता था, वह चला गया। अरसे से हृदय की बीमारी से जूझ रहे पिंटू को कोविड-काल ले गया। दुर्भाग्य से उसे नहीं, उसकी पत्नी रोली को कैंसर हुआ था- वह भी मुंह का कैंसर। वे डरावने दिन थे। कोविड की शक्ल में मौत नाम की चील घूम रही थी और अस्पतालों को छोड़ कर हर तरफ़ सन्नाटा हुआ करता था। तब भी पिंटू और मैंने धर्मशीला अस्पताल में रोली की सर्जरी के दौरान साथ रात गुज़ारी थी। लेकिन पिंटू के जाने के बाद रोली भी चली गई। आने वाले दिनों में सिगरेट-बीड़ी सब छूट गई। वह अर्चना बिल्डिंग भी छूट गई, जहां एनडीटीवी का दफ़्तर हुआ करता था और जिसके बाहर आख़िरी सिगरेट पी थी।

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स्मृतियां हंसी-खुशी से शुरू होती हैं और दर्दनाक मोड़ तक ले आती हैं। लेकिन स्मृतियों का यह सोता अचानक क्यों खुल गया? इसकी वजह मुक्तिबोध हैं। नेमिचंद जैन द्वारा संपादित मुक्तिबोध रचनावली के कवर पर उनकी एक तस्वीर है- बीड़ी पीते हुए। बीड़ी पीते मुक्तिबोध की वह तस्वीर अपने-आप में एक कविता है। बीते दिनों एक 'लिटररी इवेंट' में इस्तेमाल के लिए पोस्टर बनाया गया। लेकिन आयोजकों को याद आया कि धूम्रपान को बढ़ावा देना गैरक़ानूनी है, कि यह तस्वीर बीड़ी-सिगरेट का प्रचार करती लगती है। वे इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते। तो हिंदी के सबसे बड़े कवियों में एक मुक्तिबोध को उस 'लिटररी इवेंट' में शामिल होने का सौभाग्य नहीं मिल सका।