इधर की दीवारें देखकर समझने में देर नहीं लगती कि इस इमारत को बने हुए अब एक अरसा गुजर चुका है। एक बड़े से कैंपस के अंदर बनी इस इमारत के आर्किटेक्चर में औपनिवेशक दौर की गरिमा साफ नजर आती है। आपको राजधानी में सिविल लाइंस मेट्रो स्टेशन पर उतरने के बाद दिल्ली के उप राज्यपाल के सरकारी आवास राज निवास के पास ही यह लाल रंग की इमारत दीख जाती है। ये अपने अंदर पूरा इतिहास समेटे है। इसके आगे- पीछे हरियाली है। कई ऊंचे-ऊंचे बुजुर्ग छायादार दऱख्त लगे हैं। इन पर बैठे परिंदे चहचहा रहे हैं। आपको अंदर जाने पर कुछ हलचल महसूस होती है। राजधानी के स्थायी शोर के बीच यह अलग सुकून भरी जगह समझ आती है। यह ब्रदर्स हाउस है। इधर रहते हैं अविवाहित पादरी।
उत्तर भारत का एकमात्र पादरियों का आशियाना
ब्रदर्स हाउस इस साल अपना एक सदी का सफर पूरा कर रहा है। यह सन 1925 में बना था। ये उत्तर भारत का एकमात्र आशियाना है, जहां पर अविवाहित पादरी रहते हैं। ब्रदर मोनोदीप डेनियल यहां गुजरे तीन दशकों से रहते हैं। वे मूल रूप से लखनऊ से हैं। दिल्ली आए तो यहां पर ही रहने लगे। वे सेंट स्टीफंस कॉलेज में कुछ सालों तक इंग्लिश भी पढ़ाते रहे हैं।
ब्रदर डेनियल बताते हैं कि ब्रदर्स हाउस में रहने वाले पादरियों का अधिकतर समय चर्च, चर्च से जुड़े कामों और उन स्कूलों-संस्थानों में गुजरता है जिन्हें वे चलाते हैं। ब्रदर डेनियल उदाहरण के तौर पर दिल्ली से सटे साहिबाबाद के दीन बंधु स्कूल में चले जाते हैं। वहां पर दिल्ली और यूपी के हाशिये पर रहने वाले परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं।
दीन बंधु स्कूल गांधी जी के परम मित्र सीएफ एंड्रयूज के नाम पर दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी ने स्थापित किया था। इसी का ही है ब्रदर्स हाउस। सीएफ एंड्रयूज भी इस सोसायटी के सदस्य थे। वे भी ब्रदर हाउस में रहे है, जब यह फतेहपुरी चर्च के पास हुआ करता था। यह 1925 से पहले की बातें हैं।
सी.एफ.एंड्रयूज सेंट स्टीफंस कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते थे। वे दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी से 1916 में मिले थे। उसके बाद दोनों घनिष्ठ मित्र बने। उन्होंने 1904 से 1914 तक सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ाया। उन्हीं के प्रयासों से ही गांधी जी पहली बार 12 अप्रैल-15 अप्रैल, 1915 को दिल्ली आए थे। ब्रदर डेनियल कहते हैं कि उन्हें बच्चों में भगवान नजर आता है। इसलिए ही वे बच्चों के बीच में रहता पसंद करते हैं। उनका फोकस रहता है कि उनके स्टुडेंट्स इंग्लिश ग्रेमर को सही से समझ लें।
कितने पादरी रहते साथ-साथ
ब्रदर्स हाउस में फिलहाल छह पादरी रहते हैं। ये संख्या बढ़ भी जाती है। यहां पर विवाहित पादरियों को रहने के लिये ही स्पेस नहीं मिलता। ब्रदर सोलोमन जॉर्ज तमिलनाडू से हैं। वे अब धाराप्रवाह हिंदी बोलते हैं। वे 30 सालों से यहां रहते हैं। वे बताते हैं कि “हम लोगों के लिए अब सारी दुनिया ही अपना घर-परिवार है। जिसे सब अपना परिवार कहते हैं उस सोच से हम ऊपर उठ चुके हैं। हां, अपने भाई-बहनों से कभी-कभार फोन पर बात हो जाती है। इससे ज्यादा कोई संबंध नहीं है।”
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क्यों कहा जाता ब्रदर
दरअसल दिल्ली में ब्रदरहुड ऑफ दि एसेंनडेंड क्राइस्ट की स्थापना सन 1877 में हुई थी। इस संस्था का संबंध कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से है। इन्होंने ही राजधानी में सेंट स्टीफंस कॉलेज और सेंट स्टीफंस अस्पताल की स्थापना की। इन्होंने श्रेष्ठ शिक्षा देने तथा रोगियों का इलाज करने में अतुल्नीय योगदान दिया है। सेंट स्टीफंस क़ॉलेज में देश-विदेश के अनेक राष्ट्राध्यक्ष भी पढ़े हैं। चूंकि ये सब पादरी ब्रदरहुड ऑफ दि एसेंनडेंड क्राइस्ट से संबंध रखते है, इसलिये इन्हें ब्रदर कहा जाता है।
ब्रदर सोलोमन जॉर्ज सेंट थामस चर्च (मंदिर मार्ग) और सेंट मार्टिन गैरिसन चर्च के पादरी रहे है। संयोग से इन दोनों का डिजाइन काफी मिलता-जुलता है। सेंट मार्टिन चर्च सैनिकों के लिए बनी थी। यह इसके नाम सेंट मार्टिन गैरिसन चर्च से स्पष्ट है। इसका निर्माण सन 1929 में पूरा हो गया था। यानी नई दिल्ली के उदघाटन से पहले। इसका डिजाइन आपको तुरंत अपनी तरफ आकर्षित करता है। सेंट मार्टिन चर्च की यू-शेप में छोटी-छोटी खिड़कियां हैं। आज इधर दिल्ली कैंट में रहने वाले ईसाई सैनिक प्रेयर के लिए आएंगे। आजादी से पहले गोरे सैनिक ही आते थे। इसका डिजाइन आर्थर गार्डन शूस्मिथ ने बनाया था।
ब्रदर हाउस में अविवाहित पादरियों को सुबह-ऱात को भोजन के अलावा सुबह का नाश्ता भी मिलता है। ब्रदर मोनदीप बताते हैं कि वे सब चर्च से जुड़े कामों के अलावा दिल्ली, उत्तर प्रदेश तथा हरियणा में विभिन्न स्कूलों, ओल्ड एज होम और वोकेशनल ट्रेनिग संस्थानों का काम भी देखते हैं। ब्रदर्स हाउस के सभी पादरियों के इन चर्चों में तबादले होते रहते हैं। इनके पास सारा साल लोग अपने बच्चों के नामवर स्कूलों में दाखिले के लिए आते रहते हैं। ये भी कोशिश करते हैं कि जो आया है वह निराश ना जाए।
घर-परिवार छूट गया पीछे
ब्रदर्स हाउस में सोलोमन जॉर्ज तथा मोनोदीप डेनियल सन 1989 से रहे हैं। मतलब जिंदगी का एक लंबा अरसा इनका यहां बीत गया है। राजू जॉर्ज और जय कुमार 1998 तथा 2003 से रह रहे हैं। ब्रदर हाउस में रहने वाले पादरियों से बात करके लगा कि ये अब पूरी तरह से यहां के ही हो चुके हैं।
इनका अपने परिवारों से कोई खास संबंध नहीं रहा। ये कभी-कभार अपने माता-पिता या भाई-बहनों से मिल लेते हैं। इन्होंने अपने को मानवता की सेवा में झोंक दिया है। एक पादरी ने कहा कि अब पीछे मुढ़कर देखने का वक्त नहीं है। अब घरों को छोड़े हुये बहुत वक्त हो गया है। इनके घरवालों ने भी समझ लिया है कि हमारे आपस में सांकेतिक तथा औपचारिक संबंध ही रहेंगे।
क्या संबंध राजकुमारी एलिजाबेथ से
ब्रिटेन के किंग चार्ल्स तृतीय और उनकी दिवंगत मां राजकुमारी एलिजाबेथ का दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी से लगातार संबंध बना रहा। ये दोनों ब्रदरहुड के केन्द्रों में आते भी रहे। अगर बात किंग चार्ल्स की करें तो वे जब अपने देश के राजकुमार थे, वे तब 1997 में दिल्ली आए थे।
अपनी उस यात्रा के दौरान वे दिलशाद गॉर्डन के करीब ताहिरपुर में ब्रदरहुड सोसायटी के सेंट जॉन वोकेशनल सेंटर की गतिविधियों को देखने पहुंचे थे। यहां पर समाज के कमजोर तबकों से जुड़े सैकड़ों नौजवानों के लिए एयरकंडीशनिंग, मोटर मैक्निक, ब्यूटिशियन, कारपेंटर, टेलरिंग वगैरह के कोर्स चलाए जाते हैं।
राजकुमारी एलिजाबेथ अंतिम बार 1997 में अपने भारत दौरे के समय दिल्ली आईं थीं। वह तब ब्रदर्स हाउस भी गईं थीं। वहां पर उन्होंने उन पादरियों से मुलाकात की थी।
ब्रदर्स हाउस में फादर वेदरवेल
मौका चाहे गुड फ्राइडे का हो या ईस्टर का या फिर क्रिसमस का, फादर इयान वेदरवेल की कमी दिल्ली के क्रिश्चन परिवारों से लेकर उन सबको खलने लगती है, जो उनके संपर्क में आए। वे ब्रदर्स हाउस की प्राण और आत्मा थे। उनका भारत से पहला रिश्ता तब स्थापित हुआ था जब दूसरा विश्व महायुद्ध चल रहा था। वे ब्रिटेन की फौज में थे। पंजाब रेजीमेंट में थे। भारत के कुछ शहरों में रहे भी थे।
विश्व महायुद्ध की समाप्ति के बाद उनका जीवन बदला। उनका सैनिक की नौकरी से मन उखड़ने लगा। वे युद्ध के विरूद्ध बोलने- लिखने लगे। उन्होंने जंग के कारण होने वाली तबाही को अपनी आंखों से देखा था। उससे वे विचलित रहने लगे थे। उन्हें युद्ध की निरर्थकता समझ आ गई थी। तब उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से थीआलजी ( धर्म शास्त्र) की डिग्री ली।
वे अपने जीवन में शांति चाहते थे। समाज सेवा करने की उनकी इच्छा थी। कुछ समय तक लंदन में पादरी रहे और फिर भारत आ गए। ये 1951 की बात है। तब तक भारत से अंग्रेजों को गए हुए कोई बहुत समय नहीं गुजरा था। यहां अंग्रेजों के प्रति गुस्से का भाव आम भारतीय के मन में था। वे उन स्थितियों में दिल्ली ब्रदरहुड़ सोसायटी से जुड़ गए।
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फादर इयान वेदरवेल ब्रदर्स हाउस में रहने लगे। उन्होंने अपना शेष जीवन गरीब-गुरुबा और हाशिये पर धकेल दिए लोगों के हक में काम करने में लगा दिया। फादर वेदरवेल की शख्सियत पर महात्मा गांधी का प्रभाव साफ नजर आता था।
फादर इयान वेदरवेल ने 2013 में निधन से पहले ही अपने साथियों से कह दिया था कि उन्हें भारत में ही दफन कर दिया जाए। वे इसी पवित्र भूमि में ही मिलना चाहेंगे। उनकी जब मृत्यु हुई तो वे 91 साल के थे। उन्होंने भरपूर जीवन बिताया। उन्हें कश्मीरी गेट के निक्लसन कब्रिस्तान में दफन किया गया। अब भी उनके चाहने वाले उनकी कब्र पर लगातार फूल चढ़ाने पहुंचते रहते हैं।
पादरी, लम्हें आनंद के और...
ब्रदर्स हाउस वालों का जीवन नीरस नहीं है। इसमें चर्च, प्रेअर और समाज सेवा के अलावा भी बहुत कुछ है। इसमें आनंद के लम्हें भी आते हैं। जैसे कि ये सब पादरी क्रिकेट के मैच बड़े चाव से देखते हैं। आजकल इनका फोकस दिल्ली-सोनीपत सीमा में कुछ समय पहले शुरू किए सेंट स्टीफंस कैम्ब्रिज स्कूल को स्थापित करना है।
दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी ने ही 1 फरवरी, 1881 को सेंट स्टीफंस कॉलेज की स्थापना की थी। उस समय इसमें पांच छात्र और तीन अध्यापक थे। यह तब कलकत्ता यूनिवर्सिटी का हिस्सा था। इसके पहले प्रिंसिपल सैम्युल स्कॉट थे। वे 1890 तक यहां रहे। वे प्रख्यात शिक्षाविद् थे।
सेंट स्टीफंस कॉलेज की पहली इमारत को अब भी देखने के लिए कभी-कभार कॉलेज के नए-पुराने छात्र और टीचर पहुंचते हैं। इसे देखकर कोई सोच भी नहीं सकता कि यहां से शुरू हुआ सेंट स्टीफंस कॉलेज आगे चलकर सारे संसार में जाना जाएगा। जो सफर 141 साल पहले शुरू हुआ था था, उसका अब विस्तार हो चुका है सेंट स्टीफंस कैम्ब्रिज स्कूल के रूप में। इसे कैसे सेंट स्टीफंस कॉलेज की तरह बनाया जाए इस बारे में ब्रदर्स हाउस में पादरी बातचीत करते मिलते हैं।
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