पुस्तक समीक्षाः आधुनिक समय के नब्ज को पकड़नेवाला उपन्यास 'अमरपुर'

अमरपुर में जाति को लेकर मुग्धा और यामिनी के बीच कोई संवाद नहीं और उल्लेखनीय ये कि यामिनी भी कहीं अपनी जाति को लेकर कुछ सोचती-कहती नजर नहीं आती। यामिनी में कोई जाति संकोच नहीं वह उससे बाहर है। जबकि पूरे चुनाव में हर जगह उसे जाति के चश्में से देखा और प्रचारित किया जाता रहा। उसके आगे उसका कवि होना नहीं उसका मुसहर होना चलाया जाता रहा। आज पढिये अमरपुर की समीक्षा ख्यात कवि पवन करण की कलम से-

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आधुनिक समय के नब्ज को पकड़नेवाला उपन्यास: अमरपुर

कामिनी ने अपने बालों को खोला और उन्हें अपनी बायीं मुट्ठी में पकड़कर गर्दन से पीछे उठा लिया और उनको काटने के लिए दाहिने हाथ में ली कैंची के दांतों के बीच लगाने लगी।
पगला गयीं हैं क्या? 
तुम नहीं जानते उसको ये बाल बहुत पसंद थे। 
विवेक कुमार शुक्ल का उपन्यास अमरपुर पढ़ चुका हूं। और अब मैं उस दिन की प्रतीक्षा करुंगा जिस दिन किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय में दो लड़कियां मेरे सामने आकर खड़ी होंगी और मुझसे कहेंगी सर मैं यामिनी हूं और ये मुग्धा है। हम दोनों इसी विश्वविद्यालय की छात्राएं हैं। मैं कविताएं लिखती हूं और इस बार मतगणना में भी जीतने के लिए छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही हूं। चुनाव के दौरान मुग्धा मेरे साथ रहेगी। इस बार घर उसे कैद नहीं रख पायेगा। वही मेरी बूथ और मतगणना ऐजेंट होगी। इससे पहले आप हमसे 'अमरपुर' में मिल चुके हैं। 
कल्पना कीजिए! ऐन मतगणना से पहले मुग्धा आ जाती और वोटों की गिनती में यामिनी की प्रतिनिधि होती? छात्रसंघ चुनाव में अपनी जगह यामिनी को खड़ा करने वाली मुग्धा ही थी जो जीतकर यह साबित करना करना चाहती थी कि लड़कियां पुरुषों के जांघों के बीच दबीं योनियां नहीं हैं। इससे पहले भी एक-दूसरे की प्रिय होने के लिए मुग्धा ने ही यामिनी को प्रेरित किया था। 
एक पुरानी याद है जो मेरे भीतर स्थायी है। मेरे स्कूल की सहपाठी साहसी और विदुषी मधु चौगांवकर ने 'मुझे चांद चाहिए' पढ़कर जो उसने मुझसे तब कहा-पवन यदि ये किताब मैनें पहले पढ़ ली होती तो मैं कभी शादी नहीं करती। तब उसकी शादी हुए कुछ ही महीने हुए थे। आज भी जब उससे मुलाकात होती है मुझे 'मुझे चांद चाहिए' की नायिका वर्षा वशिष्ठ (सिलविल) याद आ जाती है। मधु चौगांवकर आज भी उतनी ही इस्पाती-स्त्री है। जैसे वह स्कूल के दिनों में थी।उसने भी महाविद्यालय का चुनाव लड़ा और न के बराबर खर्च पर जीती। खर्च करने के लिए उसके पास पैसे थे ही नहीं। आप उसे सोशल मीडिया पर सर्च कर सकते हैं। ये मुझ पाठक का तात्कालिक संदर्भ है, विवेक ने अमरपुर में हाल ही के कई संदर्भ उपयोग में लिए हैं। अमरपुर को पढ़कर कितनी ही लड़कियां खुद को मुग्धा और यामिनी मानेंगी और साथ जियेंगीं, साथ हंसेंगीं और साथ में सपने देखेंगीं । मुग्धा और यामिनी भले ही अमरपुर से बाहर नहीं निकल पाईं मगर 'अमरपुर' को पढ़कर तैयार होने वालीं यामिनियां और मुग्धाएं अपने शहरों और घरों से बाहर निकले बिना नहीं मानें, मेरी उनसे यह उम्मीद है। मगर उससे पहले वे एक-दूसरे को अपने दिमाग की कैद से बाहर निकालें और ये बिना एक-दूसरे को समझे साथ रहे बिना संभव नहीं। 
अमरपुर में यामिनी और मुग्धा से मिलकर किताबों में अब तक पढ़ी कितनी स्त्रियां याद आती गईं। 
मुग्धा त्रिपाठी को लेकर सोचता रहा क्या उसे पहले दिन से ही पता था कि यामिनी मुसहर है। दलित है। या चुनाव प्रचार के दौरान वह यामिनी की जाति जान सकी। यदि मुग्धा को प्रारंभ में ही यह पता चल जाता तो क्या वह यामिनी के साथ लगाव के चरम का स्पर्श कर पाती। क्या यामिनी अपने भीतर सदियों से स्थानांतरित होते आ रहे 'संकोच' को पिघला-बहाकर सहज हो पाती। क्या जिसका कोई उल्लेख उपन्यास में नहीं है उन्होंने एक-दूसरे की जातियां पता होने के बाद भी सहजता से अपने बीच एक-दूसरे को स्वीकार करने की शुरुआत की तो ये स्त्रियों के बीच एक नई समझ बनने की तरह है। यामिनी की जाति और उनके बीच की अत्यंत आत्मीय अंतरंगता जो अंततः चुनाव में यामिनी की बदनामी और मुग्धा पर पहरे का कारण बनी। 
उपन्यास में जाति को लेकर मुग्धा और यामिनी के बीच कोई संवाद नहीं और उल्लेखनीय ये कि यामिनी भी कहीं अपनी जाति को लेकर कुछ सोचती-कहती नजर नहीं आती। यामिनी में कोई जाति संकोच नहीं वह उससे बाहर है। जबकि पूरे चुनाव में हर जगह उसे जाति के चश्में से देखा और प्रचारित किया जाता रहा। उसके आगे उसका कवि होना नहीं उसका मुसहर होना चलाया जाता रहा। मगर यह उसका खुद को अपने जातिबोध से बाहर आकर देखने की दृढ़ता की सफलता की तरह है कि जात-पात, बल-निरबल, प्रशासन-पुलिस, मंत्री-मठ के जिस आपराधिक गठबंधन के चलते मतदान में जीती उसे मतगणना में हरा दिया जाता है, उसे विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं तमाम छल-छद्मों और बहकावे के बाद भी जात-पात, बल-निर्बल, के आततायी प्रभाव से बाहर निकलकर वोट देते हैं। 
यामिनी और मुग्धा साथ जीना नहीं साथ बढ़ना चाहती थीं। उनके बीच ऐसा कोई वादा नहीं था कि उन्हें साथ रहना है। पुरुषों के लेकर भी ऐसी कोई अस्पृश्य भावना उनकी बातों में नहीं दिखती मगर वे पुरुष के भीतर के परंपरागत अंहकार को अवश्य तोड़ना चाहती थीं जिसकी शुरुआत उन्होंने छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव लड़कर की। जाति की बात यहां इसलिए भी कि 'अमरपुर' में यामिनी का छात्रसंघ का चुनाव लड़ना और उसकी जाति मुख्य मुद्दा बनकर प्रकट होते हैं। 
अमरपुर एक दिलचस्प, प्रशंसनीय और पठनीय उपन्यास है। आश्चर्य की तरह समकालीन और अद्यतन है। जिसमें बदलाव को नकारने की ठाने बैठे भारतीय समाज, शक्तिशालियों-श्रेष्ठियों की बांदी सर्वग्रासी राजनीति, छात्रराजनीति जो अपने अधिकतर में आज भी पुरुष राजनीति है के निरंतर क्षरण, और स्त्रियों के द्वारा पितृसत्ता को आंशिक चुनौति देने के कुछ जाने माने पूर्व दृश्य नव कथन और नवदृष्टि के साथ मौजूद हैं। इसमें पाठक को अपनी व्यंजनात्मक भाषा और कटीले-कटाक्षों से अपने ही किसी पात्र में तब्दील कर लेने की क्षमता है। आप रिप्पन भईया, पिंटू भईया, त्रिपाठी जी, शुक्ला जी, मिश्रा जी कुछ भी हो सकते हैं और यदि आपके भीतर मनुष्य होने का आग्रह प्रबल है तो आप हर जगह पिटता मगर पीड़ा पी जाने और खुद को पराजित न होने देने के लिए दृढ़ रवि पासवान भी हो सकते हैं। 
मगर कुछ खास और भी है जिसका जिक्र आवश्यक है। वह यह कि इस उपन्यास का दृष्टि-विस्तार बहुत दूर तक जाता है। जो इसके पठन के दौरान कथन और स्मृति के स्तर पर समझ में आता है। इसमें कहते-कहते समकाल सिमटकर उपन्यास का हिस्सा बन जाता जाता है। 
जो इसके पठन के दौरान कथन और स्मृति के स्तर पर समझ में आता है। इसमें कहते-कहते समकाल सिमटकर उपन्यास का हिस्सा बन जाता जाता है। यह भारत के एक युवा लेखक की युवादृष्टि और भारत की समझ के तौर पर भी रेखांकित किये जाने की मांग करता है। इसमें बड़े खिलंदड़े अंदाज दृश्य में से दृश्य, घटना में से घटना, और कथन में से कथन उत्पन्न कर लेने की क्षमता है। इसकी गति के साथ चलते हुए आप कुछ बदलते हुए भारत या और भी बिगड़ते हुए भारत के तौर विचार करने के लिए स्वतंत्र हैं। मगर लेखक ने इस उपन्यास के लिखने की यात्रा में उसे जो जहां मिला-दिखा-सुना उसे अपने उपन्यास में घटना दृश्य अथवा कथन को खोलने की जिस बारीक तीक्ष्णता से शामिल किया है, उसकी इस प्रांरभिक- प्रमुख- सामर्थ्य को आप नकार नहीं सकते। उस सामर्थ्य को भी जिसके चलते उसकी भारत के क्षरण पर नजर है। 
हम देखें कि हमारे सामने देखने को कितना है। हम कहें कि हमसे कितना कहना छूट रहा है।-
मैं अमरपुर के इन अंशों के मोह में फंसाा-
आंगनों में अनाज की फटकन चुनने आता गौरैया का झुंड कम होता जा रहा है। इस शहर में मुसलमान कम होते जा रहे हैं।
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जब काग़ज में दर्ज ये शब्द तुम पढ़ोगी मैं आकाशगंगा के हर नक्षत्र से ये चिट्ठी बांच रही होऊंगी। 
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साल-दर-साल पूर्वांचल की राजनीति विकास से शुरु होती थी और मतदान तक आते-आते अश्लीलता के महोत्सव में बदल जाती थी‌
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कहने-सुनने को उनके पास नदी भर बातें थीं पर बूंद भर भी अवकाश नहीं‌
लड़के का भाई मुंह में किशमिश भरते हुए मुग्धा की देहयष्टि का मुआयना करता रहा और मन-ही-मन अपनी दो साल पुरानी और एक बच्चे की मां बन चुकी पत्नी से उसकी तुलना करता रहा।
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शहर के नागरिक इस बात के आदी थे कि उनकी दीवारें पोस्टरों से भरी रहें और चौराहे बैनरों से।
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फुसफुसाना देश का राष्ट्रीय क्रियाकलाप था, जो आजादी के जमाने से चला आ रहा था। बाद में उन्होंने फुसफुसाहट को एक संगठित कार्यक्रम में बदल डाला और इसे बौद्धिक का नाम दे दिया। ये फुसफुसाहटें इतने अरबों से चली आ रही थीं कि आजादी के सत्तर सालों बाद इन्हें तथ्य मान लिया गया।
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नीची कही जाने वाली जाति का दोस्त अगर ऊंची जाती की लड़की को प्यार करने लगे तो दोस्त भी अपने दोस्त को पीटने से गुरेज न करता था।
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वह उसके लिए कविता की सेकेंड हैंड किताबें लाता रहता था जो शहर के बड़े लोगों के जो ड्राइंगरूम में सजे-सजे थक जाती थीं।
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दुनियाभर में शादी का जो भी मतलब हो, उत्तर भारत के इस इलाके में यह अक्सर लड़कियों को काबू में रखने का तरीका था।
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मुसलमान इस राजनीति में सिर्फ़ दंगों में मारे जाने या अपना घर जलवाने के लिए थे और फिर भी अगर बेहया की तरह बच गये तो वोट देने के लिए। 
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लड़कियां सर झुकाये किताबों को सीने से चिपकाकर सीने को बचाती आती-जाती रहीं।
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(वाणी प्रकाशन से प्रकाशित अमरपुर को मैनें पढ़ लिया। आप भी पढ़िये)
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