दोहे और जावेद अख़्तर का ज़िक्र एक साथ निकले तो थोड़ा अटपटा लगता है। कहाँ ईसा पूर्व या उसके आसपास वाले संस्कृत के कालिदास से लेकर सरहपाद और हेमचंद्र की पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, कबीर की सधुक्कड़ी, पंचमेल भाषा बोलियों से गुज़रते हुए तत्सम, तद्भव वाली समकालीन हिंदी के दोहे तो कहाँ नफ़ासत वाली, कहीं ठोस, कहीं नर्म मिज़ाज वाली उर्दू नज़्मों, गज़लों  के शायर और हिंदी के गीतकार जावेद अख़्तर। यह तालमेल पहली नज़र में घालमेल लग सकता है; क्योंकि हमारे दिलों-दिमाग में दोहों का सुर प्रायः नीति, नैतिकता, भक्ति, सदाचार, उपदेश, प्रवचन जैसे स्वर से भरे होते हैं तो जावेद के गीत भावानुकूल लफ्ज़- लय से तरंगित। सही है! पर इक्कीसवीं सदी के ख़त्म होते चौथाई हिस्से में राजकमल ने हिंदी पाठकों को कुछ ऐसी ‘सीपियाँ’ भेंट की हैं कि जिन्हें जावेद अख़्तर ने अपने दुनियावी अनुभव और साहित्यिक मिज़ाज से उनसे मोती निकाल कर पेश किए हैं। 

दरअसल कबीर, तुलसी, वृंद, रहीम और बिहारी आदि कवियों ने सदियों पहले अपनी गहरी अन्तर्दृष्टि और मानव-स्वभाव की समझ की बुनियाद पर कुछ बातें कहीं, और इसके लिए उन्होंने कविता का जो रूप चुना, वह था-दोहा। 'सीपियाँ' में जावेद अख़्तर ने ऐसे ही कुछ दोहों को चुनकर उनके सत्व के भीतर छिपे सत्य और तत्व  को आज की भाषा में आज की रोज़मर्रा वाली ज़िन्दगी से, हमारी रूटीन और प्रोफेशनल लाइफ से जोड़ दिया है। वे बताते हैं कि कैसे उन पर अमल करके, उनसे मिलने वाली सीख को अपनाकर हम खुद को बेहतर इंसान और अपनी दुनिया को एक बेहतर दुनिया बना सकते हैं। उन्होंने इन दोहे को उनके मूल भावों को युगमूल्यों के अनुसार सहजता से ढाल लिया है। 
‘सीपियाँ’ पढ़ते समय यह बात बड़ी सुखद लगती है कि इन दोहों के भाष्य के साथ जावेद अपना ‘पर्सनल टच’ देते हुए-से बात करते हैं। मसलन, रहीम के दोहे - ‘रहिमन मुसकिल आन पड़ी, टेढ़े दोऊ काम..’ की बात करते हुए अपनी एक नज़्म ‘ ..ये देखता हूँ तो सोचता हूँ कि अब जहाँ हूँ…चलूँ तो  औरों पे ज़ुल्म ढाऊँ, रुकूँ तो औरों के ज़ुल्म झेलूँ…’ को लेकर कवि हरिवंश राय बच्चन के मार्गदर्शन को याद करते हैं। इसी दोहे के प्रसंग में ज़मीर, संस्कार, उसूल की जड़ों और दुनियावी मसलों की भी चर्चा है।

अब यहाँ सवाल यह है कि कबीर, तुलसी, रहीम वृंद के जो दोहे हम चौथी-पाँचवी कक्षा से लेकर एमए (हिंदी) तक किसी न किसी संदर्भ, प्रसंग में पढ़ते आए हैं, इन्हीं के अनेकानेक दोहे ऐसे भी हैं जो हमारे जीवन में मुहावरों, लोकोक्तियों, सुभाषितों, सूक्तियों के रूप में प्रचलित हो चुके हैं, हमारे कहने-सुनने, बोलने-चालने, पढ़ने-लिखने में स्वत: आ जाते हैं, फिर उनको हम ‘सीपियाँ’ में क्यों पढ़ें? सही है! ज़वाब यह है कि अब तक स्कूल,कॉलेजों में इन दोनों के अर्थ, व्याख्याएं पढ़ाई, बताई जाती रहीं हैं वे पूरी तरह शैक्षिक, अध्यापकीय-भावुकता, अकादमिक-विमर्श के बंधे-बंधाए, सेट पैटर्न पर उपदेशात्मक, प्रवचन टाइप की नीति, बोधपरक शुष्कता भरी - “ कवि के कहने का तात्पर्य है कि…”, “ इसमें फलां अलंकार की छटा…फलां का चमत्कार  है..”  जैसी रही हैं। जावेद अख़्तर ने इन सबसे अलग हटकर जो काम किया है, वो है - इन्हीं दोहों को, आज के वर्तमान, कंटेम्परेरी माहौल और आज के युग के अनुकूल बातचीत वाली शैली में दार्शनिक, विचारक, कवि शायर, गीतकार और पटकथा-लेखक के रूप में इनको समझया है। इसके लिए उन्होंने अपने जीवन के संचित अनुभवों को उंडेल दिया है। 

जावेद अख़्तर ने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा साहित्य और सिनेमा की दुनिया में बिताया है। देश-दुनिया घूमे हैं, घूमते रहते हैं। आम आदमी उन्हें ‘जंजीर’, ‘शोले’, ‘दीवार’, ‘डॉन’ जैसी लोकप्रिय फिल्मों के डायलॉग राईटर के रूप में जानता है तो बौद्धिक वर्ग उन्हें एक संवेदनशील गीतकार, कवि और ‘तरकश’ व ‘लावा’ जैसे संग्रहों से। ‘सीपियाँ’ से उनके व्यक्तित्व का एक अलग-चिंतक-रूप उजागर हुआ है। यह चिंतन उपजा है व्यावहारिक जीवन के विभिन्न तजुर्बों से। यही दुनियावी जगत और बदलते दौर के बदलते माहौल के संदर्भों में ही दोहों को समझाते हैं.. और वे अकेले नहीं समझाते, जब वे किसी दोहे पर बात करते हैं तो लगता है एक चौपाल सजी है और वहाँ कबीर, रहीम, वृन्द के साथ बतियाते हुए चौपाल की जाजम पर मीर तकी मीर, मिर्ज़ा गालिब, शेक्सपियर, मार्क्स, ख़लील जिब्रान,टॉमस एडिसन, बच्चन, अल्ताफ़ हुसैन हाली, कृशन चंदर, पंडित रविशंकर, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान भी आ जाते हैं और बैठकर दीन-दुनिया के किस्सों में शिरकत कर रहे हों। 

जावेद अख़्तर की इसी काबिलियत पर मुन्नी नसरीन कबीर ने ‘Talking films and Songs’ में लिखा है-

“ His sense of humour seamlessly underscored his very serious and keenly observed thoughts and ideas on India…. He also shared personal incidents in his life with wit and intelligence.” 

इसी किताब में शबाना (आज़मी) बताती हैं  - “Javed is capable of laying bare his soul without sacrificing his dignity. Like a fine sculptor he chisels his melancholy and shapes it into wistfulness.”

सही है, जावेद जब किसी विषय पर बात करते हैं तो उनके सामने आधुनिक दुनिया-जहाँ की सच्चाई और फ़लसफ़ा रहता है। भूमंडलीकरण ने आज दुनिया को एक बाज़ार में बदल दिया है जहाँ कॉरपोरेट वर्ल्ड  एक सच्चाई है। इसलिए यह अकारण नहीं कि ‘सीपियाँ’ आज के कॉरपोरेट वर्ल्ड से जुड़े लोगों के लिए बेहद अहम क़िताब है। इसकी भाषा भी आज के दौर की भाषा है जिसमें सहज रूप से बेधड़क अंग्रेजी शब्दों-वाक्यों का इस्तेमाल होता है। यही इसको रवानगी भी देती है। 

सैकड़ों साल पहले लिखे गए इन दोहों में ग्लोबल लेवल पर गलाकाट प्रतिस्पर्धा की इस दुनिया में जहाँ ‘टारगेट’ हासिल  करने,‘आउटपुट’ देने, ‘वैल्यू एडिशन’ करने की जद्दोजहद में, 7x24x365 टेंशन, प्रेशर, स्ट्रेस के साथ आज की भागमभाग-सी त्रासद भरी ज़िंदगी जीने को मज़बूर, कुंठित, लाचार, ‘व्हाइट कॉलर्ड एग्जीक्यूटिव’ के लिए जीवन के हर मोड़, हर दौर के लिए गहरे और व्यावहारिक सूत्र दिए गए हैं, जिन्हें जावेद सरलता से खोलते हुए ग्लोबल बाज़ार की ऐसी प्रैक्टिकल भाषा में ‘टिप्स’ के रूप में पेश करते हैं कि डार्क जोन में वे लाइट हाउस की तरह रोशनी देने लगते हैं। अमेरिका के कवि विलियम कार्लोस विलियम्स, जो 20वीं सदी के इमेजिस्ट और मॉडर्निस्ट कवि और बाल रोग विशेषज्ञ थे, ने साहित्य और चिकित्सा के बीच गहरे संबंध को रेखांकित करते हुए कहा था कि साहित्य पढ़ाने से चिकित्सकों में मानवीय संवेदनशीलता और रोगियों के प्रति गहरी समझ विकसित होती है। इसलिए उन्होंने मेडिकल साइंस के पाठ्यक्रम में साहित्य की कोई क़िताब भी रखने की सलाह दी थी। 

‘सीपियाँ’ पढ़ते हुए यही बात महसूस होती है कि इस किताब को आज की परिस्थितियों में IIM संस्थानों में MBA के पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से शामिल किया जाना चाहिए। इन दोहों में ज़िंदगी के हर दौर, प्रोफेशनल लाइफ के हर मोड़ पर आने वाली स्थितियों, समस्याओं के व्यावहारिक, प्रैक्टिकल टिप्स छुपे हैं। जिनमें मनोविज्ञान भी है, दर्शन भी, सामाजिकता भी, राजनीति भी, कॉमर्स भी तो लिटरेचर भी, जो हर परिस्थितियों को समझने में मदद करते हैं। आज के कॉरपोरेट वर्ल्ड में बेटर अपॉर्च्युनिटी के लिए स्विच करना,जम्प करना सामान्य बात है। जरा वृंद के इस दोहे को देखिए-

“सुंदर स्थान न छोड़िए, जौ लौं मिलै न और।
पिछलौ पाँव उठाइयै, देख धरन को ठौर।। 

इस दोहे के बहाने जावेद आज के कॉरपोरेट सेक्टर के एग्जीक्यूटिव्स को ‘जंप’ लेने से पहले सच समझने का मशवरा देते हैं। इसी के साथ-साथ वे अल्ताफ हुसैन हाली का एक शेर भी पेश करते हैं - 

“है जुस्तजू के ख़ूब से है,ख़ूब-तर कहाँ,
अब ठहरती है जाकर नज़र कहाँ.”

इसी तरह कबीर की बात-

‘सूरा सो ए सारा ही है अंगना पड़े लोहा से’ 

से आज की पीढ़ी को ईगो, सेल्फ-एक्सपोज स्टेटस, पोजीशन, इंप्रेशन आदि के बारे में उन्हीं की भाषा में समझाया गया है। जावेद उन्हीं को अपनी बतक्कड़ शैली में पाठकों को बता रहे हैं कि ‘एक्सपीरियंस’ और ‘इंसिडेंट’ में क्या फ़र्क होता है, ‘हैप्पीनेस’और ‘एक्साइटमेंट’ में कितना अंतर है। एक दोहे में कबीर कहते हैं कि-

“सोना सज्जन साधु जन, टूटि जुरहि  शतवार। 
दुर्जन कुंभ कुम्हार का, एकहि धके दरार।” 

इसके मिस जावेद रिश्तों के स्टैंडर्ड, इंटेंसिटी, रेपो, के साथ-साथ ख़ुदग़र्ज़ी और वक्त-परस्ती की बात संज़ीदगी से समझाते हैं। कबीर के ही- ‘शब्द सम्हारे बोलिये, शब्द के हाथ न पाव’ में हमारी बातचीत के दौरान बोले जाने वाले शब्दों के प्रभाव का गहन चिंतन है। ‘कुटिया’ और ‘झोंपड़ी’, ‘गुलिस्तां’ और ‘बाग’, ‘मकान’ और ‘घर’ के मतलब एक जैसे होने के बावजूद भावार्थ बहुत भिन्न, मायने बहुत जुदा होते हैं। जावेद हाथों-हाथ बताते चलते हैं कि 'man is known by company he keeps’ की तरह ‘शब्द is also known by the company that particular word had kept.’ इसी तरह स्कूलों में चौथी-पाँचवी कक्षा में पढ़ाए जाने वाले कबीर के लोकप्रिय दोहे- 

‘निर्बल को न सताइये,जाकी मोती हाय।
मरे बैल की खाल से, लोहा भस्म हो जाए।।’ को जावेद ने परंपरागत अर्थ, शैक्षणिक भाष्य से हटकर वर्ग-संघर्ष से जोड़कर पुनर्परिभाषित किया है। यहाँ पाठकों को पाठ की नई दृष्टि, उसे समझने का नया नज़रिया मिलता है। काल मार्क्स के मिस क्लास स्ट्रगल, सेक्शन, डाउन ट्रोडन की चर्चा करते हुए वे बताते हैं कि कॉन्शस लेवल पर ये सारी बातें तो सात-साढ़े साल सौ साल पहले ही हमारे यहाँ कबीर कह कर गए हैं। ‘निर्बल की हाय’ किसान, गरीब, मजदूर, लैंड-लेबरर्स की तरह समाज के दबे-कुचले, जाति-वर्ग के आधार पर शोषित, वंचित वर्ग के भीतर ही भीतर उमड़ रही एक सुनामी है, धधक रहे ज्वालामुखी हैं जो एक न एक दिन ‘back against wall जैसी स्थिति आने पर ‘मेजर ब्लास्ट’ बन कर फूटते ही हैं।

वर्तमान दौर का संकट यह है कि हमारी नई पीढ़ी और हम अपनी सांस्कृतिक विरासत-स्मृतियों, बोली-भाषा-बानी आदि आचार-विचार से असंपृक्त होते जा रहे हैं। ‘सीपियाँ’ एक तरह से हमें पुनः हमारी साहित्यिक, सांस्कृतिक विरासत से जोड़ने में सेतु-सा काम करती महसूस होती है। जावेद अख़्तर की सफलता इस मायने में भी रेखांकित करने योग्य है कि उन्होंने सैकड़ों बरस पहले विभिन्न आँचलिक बोलियों में लिखे दोहों को आज की जेनरेशन के अनुरूप ऐसी सहज और संवाद वाली भाषा में ‘इंटरप्रिट’ किया है कि इनका सार, इनके अर्थ सीधे हमारी संवेदनाओं से जुड़ते ही नहीं, बल्कि उन्हें विस्तारित भी करते हैं। उनको इंटरप्रिट करने का अंदाज़ आमने-सामने बैठकर गुफ़्तगू करने जैसा, और वैसा है कि जैसे कोई बड़ा अपने सामने बिठाकर हमें अपने समृद्ध सांस्कृतिक, साहित्यिक और आत्म का बोध कर रहा हो। वे घाघ के दोहे ‘अति का भला न बरसना’ से अति के नुकसान, बिहारी के ‘अति अगाध,अति औघरे’ से रिश्तों की अहमियत समझाते हैं तो कबीर के ‘चिंता ऐसी डाकिनी’ से ‘केयर’ और ‘वरी’ के बीच फ़र्क की बात करते हुए शेक्सपियर के मैकबेथ से  उद्धरण ‘थिंक विदआउट रेमेडी शुड आल्सो बी विदआउट रिगार्ड’ से समझाते हैं तो वृंद के ‘सरस्वती के भंडार की बड़ी अपूरब बात’ के हवाले से ज्ञान-विज्ञान, घर-गृहस्थी, मेडिकल, कॉरपोरेट सेक्टर से लेकर फिल्म-इंडस्ट्री तक के उदाहरण देकर संकीर्ण मानसिकता और उदार हृदय के दुष्प्रभाव और प्रभाव ही नहीं बताते, वरन हमारे भीतर मन-मस्तिष्क की गहराइयों में छुपे बौनेपन को भी उजागर करते हैं। 

इसी तरह वे वृंद के ‘ …रवि जल उखरै कमल कैं, जागत गारत जात’ से अपनी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक जड़ों, ‘रूट्स’ से जुड़ने की बात कहते हुए साफ़ कहते हैं कि “एक देश सिर्फ़ ज़मीन, धरती, पेड़-पौधे, पहाड़, दरिया थोड़े ही होता है - वो एक पूरी सभ्यता है, पूरी संस्कृति है।”  वृंद के ही ‘.... तन समूह कौ छिनक में, जारत तनक अंगार’ के प्रसंग में शेक्सपियर के  ‘ट्रेजिडीज़ प्लेज़’ के मैकबेथ, ओथैलो, डेस्डेमोना के ज़िक्र के साथ हैमलेट के बहुचर्चित अंतर्द्वंद्व, कमज़ोरी ‘टु बी ओर नॉट टु बी’ की बात करते हैं तो कबीर के ‘..पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर’ से एशिया और यूरोप की मौसमी भिन्नता को लेकर यूरोपीय प्रेमी के उद्गार ‘यू आर माई सनशाइन’ के मायने भी समझाते हैं। प्रेम और ईगो के द्वंद्व के बीच संतुलन, तारतम्यता को कबीर के -

“पीया चाहे प्रेम-रस, राखा चाहे मान।
एक म्यान में दो खडग, देखा सुना न कान॥”

को जावेद अख़्तर यूँ समझाते हैं- “..ये सिर्फ़ इश्क़ की या इस तरह के प्रेम की बात नहीं है, ये ज़िन्दगी की बात भी है। ये काम की बात भी है। आपका कोई भी काम हो। जब आप उससे ऐसा प्रेम करते हैं कि आपका अपना स्वाभिमान, आपकी अपनी इगो, आपका अहंकार ख़त्म हो जाता है। आपको याद ही नहीं रहता कि आप हैं। आपको वो चीज़ याद रहती है जो आप कर रहे हैं, जिसे आप बना रहे हैं, जिसे आप सजा रहे हैं, तब आपको प्रेम का सच्चा सुख मिलता है।” प्रसंगवश यहाँ सोलहवीं सदी के मारवाड़ के राजा मालदेव के कवि आसा जी बारहठ का कहा दोहा भी याद आता है, जिसमें उन्होंने इतिहास प्रसिद्ध रूठी रानी उमादे को प्रेम में अभिमान छोड़ने के बात कही थी-

“मान रखे तो पीव तज, पीव रखे तज मान। 
दो दो गयंद न बंधही, हेको खम्भु ठाण।।”

जावेद कबीर से खासे प्रभावित लगते हैं और उनको महान, जीनियस बताते हुए उनके इस दोहे की चर्चा करते हुए-

सहज मिले तो दूध सम, माँगे मिलै सो पान।
कह कबीर वह रक्त सम, जामें ईचातान ॥

कहते हैं- “यह बात एक ऐसी सच्ची और ज़िन्दगी पर अप्लाई होती है।.. ये इंडस्ट्रियल ऐरा है। यहाँ कॉर्पोरेटाइजेशन हो रहा है। फ्री मार्केट है। तरह-तरह की अपोच्यूनिटीज़ आ रही हैं। .अब ज़माना बदल गया है। अब हर आदमी के लिए कुछ भी पा लेना मुमकिन है। और इस अपोच्यूनिटी ने, ये जो खुल गया है मैदान, इसने हम सबमें बड़ा एम्बीशन पैदा कर दिया है। हर इनसान अब कुछ हासिल करना चाहता है। ..कबीर ने कैसे क्लासिफाइ किया है कि पा तो रहे हो लेकिन एक पाने में और दूसरे पाने में फ़र्क क्या है?”

इसी तरह -

“करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते. सिल पर परत निसान॥” में पंडित रविशंकर और टॉमस एडिसन के दृष्टांत देकर रियाज और प्रैक्टिस और Determination के महत्व को उभारा है तो वृंद के - 

“चले जु पंथ पिपिलिका , समुद्र पार हवं जाइ ।
जौ न चलै ती गरुडहू, पेड़ चले न पाय॥” से over confidene के ख़तरे को चेताते हुए कहते हैं कि गरुड़ बहुत शक्तिशाली है, ये गरुड़ एक सिम्बल है, शक्ति का, पावर का और ताक़त का लेकिन गरुड़ अगर अपनी जगह से ना हिले, तो ‘पेड़हूँ चलै ना पाय’, दूसरी ओर अगर एक चींटी भी चलती रहे तो वो समन्दर के पार तक पहुँच सकती है। 

फेर न ह्वैहैं कपट सों, जो कीजै ब्यापार । 
जैसे हाँडी काठ की, चढ़े ना दूजी बार ॥ 
से वे Brand value, भरोसे, विश्वास पर जोर देते हैं तो सामाजिक, ऑफिसियल और कॉरपोरेट लाइफ में एक गरिमामय निश्चित दूरी को भी ज़रूरी बताते हुए इस दोहे का ज़िक्र करते हैं-

‘अति परचें तैं होत है, अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी, चन्दन देत जराय।।’
ओवर एक्सपोजर, ओवरसेलिंग, ओवर फ्रेमेलियरिटीज नहीं होनी चाहिएं। कहते हैं- “इनसान अगर कम मिल रहा है, ठहर के मिल रहा है, थोड़े फ़ासले से मिल रहा है, तो उसकी इज़्ज़त रहती है। रिश्तों में भी ‘नो मैन्स लैंड’होना चाहिए।” यही बात सिविल सर्विसेज में चुने गए भावी कलक्टरों को भी समझाई जाती है तो कॉरपोरेट सेक्टर में वर्तमान एगीक्यूटिवज़ और भावी सीईओज़ को भी बताया जाता है- A certain degnified distance fosters respect.और यह भी कि - familiarity breeds contempt. अब देखिए कि जो बात 17-18 वी सदी में वृंद ने कही थी, तकरीबन वही बात 19 सदी में मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस अंदाज़ में कही-

रखियो कुछ इंतिहा-ए-नज़र तक नज़र को,
क़रीब आए तो कुछ और तमाशा बनेगा।’ 

तो 20 सदी में बशीर बद्र में इस तरह-

‘कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो।’

इसी कड़ी में

‘धन्य रहीम जल पंक को, लघु जिय पिवत अधाय। 
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाए॥’ के माध्यम से जावेद ‘देने के सुख’, ‘Joy of Giving’ की चर्चा के साथ औद्योगिक घरानों, कॉरपोरेट वर्ल्ड के C.S.R (Corporate Social Responsibility) की चर्चा करते हैं।

कहा जा सकता है कि नई दृष्टि, नए भाष्य, नए अनुभव संसार से हासिल ख़ूबसूरत मोतियों वाली समृद्ध सीपियों का शुभ आगमन है। ‘सीपियाँ’ शीर्षक गहरे अर्थ लिये हुए है। संग्रह के लिए चुने दोहे सीपियों से निकले मोती जैसे ही हैं- चमकदार, बहुमूल्य। इसके कतरे -कतरे में दजला (सागर) है तो सीप-सीप में मोती। यह हिंदी साहित्य की बहुमूल्य विरासत है, इसे सहेजना अब बौद्धिक पाठकों के हाथ में है। संस्करण भी उसी के अनुरूप सुरुचिपूर्ण, आभिजात्य शिल्प वाला कुलीन संस्करण है। 

सीपियाँ - जावेद अख़्तर
राजकमल प्रकाशन
संस्करण-प्रथम 2025
मूल्य -399 रुपए