पितृसत्ता ने स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास के परिदृश्य से एक बेहद प्रतिभाशाली और राजनीतिक चेतना से लैस स्त्री को कैसे गायब कर दिया इसकी कथा है ये उपन्यास। इस किताब के आने से पहले 'सरला देवी चौधरानी'‌ नाम इस परिपेक्ष्य में जाना गया था कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी उन्हें अपनी 'आध्यात्मिक पत्नी' मानते थे। आखिर कौन थी वो स्त्री जिसे महात्मा गांधी ने अपनी आध्यात्मिक पत्नी कहा था और इतिहास ने उन्हें कैसे हाशिये पर डाल दिया। आखिर वो स्त्री इतिहास में कहाँ है जो गाँधी के जीवन में इतनी महत्वपूर्ण थी? 

उपन्यास सरला देवी और गाँधी की भेंट से शुरू होता है। और सरला देवी से गाँधी उनके सैतालीस साल के बीते जीवन का किस्सा जानते हैं। गाँधी से मिलना, गाँधी को और जानना, गाँधी से मिलती अभूतपूर्व प्रशंसा सब सरला को सम्मोहित करती जा रही है।" गाँधी के पत्रों की हरी स्याही सरला के अंतस को रंगती जा रही है। कोई सरला को इस तरह चाहता है । इसी चाहत में उसके होने का अर्थ है। वरना जीवन क्या है, सैंतालीस साल की उम्र का फासला तय करते-करते क्या मनुष्य अच्छी तरह नाप-तोल नहीं लेता?‌ वे सोचती हैं कि मन के ही भाव का मूल्य है, बाकी सब नश्वर है।  एक स्त्री जिसकी उम्र सैतालीस साल हो चुकी है उसके जीवन में प्रेम अनगिनत रंग लेकर आता है। स्त्री भी तो कौन रविन्द्र नाथ टैगोर की भांजी, देश की पहली उपन्यासकार की बेटी, पंजाब के प्रसिद्ध क्रांतिकारी की पत्नी, लेकिन इसके साथ एक बेहद प्रतिभाशाली और विदुषी स्त्री भी, जिसकी ख्याति पूरे देश मे फैल रही है।‌ ऐसे समय में वो स्त्री गाँधी से मिलती है और गाँधी के व्यक्तित्व में डूबने-उतराने लगती है , लेकिन अंततः उसे एक किनारे कर दिया जाता है। 

हर स्त्री को ये समझना होगा कि प्रेम कोई वायवीय चीज नहीं होता, प्रेम भी इसी समाज का एक घटक है। और स्त्री और पुरूष के लिए प्रेम के अर्थ कैसे अलग-अलग होते हैं, इसी उपन्यास से इसको भी बखूबी समझा जा सकता है। इस उपन्यास के खत्म होते होते ये भी महसूस होता है कि स्त्री को हर परिस्थिति में अपना स्व बचाकर रखना चाहिए अपने लिए, क्योंकि प्रेम में सबकुछ दांव पर लगा देने से स्त्री उजड़ जाती है, तब खासकर जब प्रेम नहीं रहता। गाँधी और सरला देवी का प्रेम भी कुछ ऐसा ही रहा। 

सरला देवी कहीं से भी गाँधी से कम प्रतिभासम्पन्न मनुष्य नहीं थीं, लेकिन प्रेम में वो अपना सबकुछ दांव पर लगा बैठी थीं।  हालांकि यहाँ प्रेम का विरोध नहीं है मनुष्य के जीवन में प्रेम वह उद्दात्त भाव है जो उसके मानवीय गुणों को उजागर एवं विकसित करने का काम करता है। गाँधी और सरला देवी के जीवन में भी उनका प्रेम प्रकाश की तरह आता है और सब जगमग कर देता है लेकिन एक पितृसत्तात्मक समाज में प्रेम को हमेशा लांछित होना पड़ता है। 

गाँधी को सरला देवी के आकर्षक रचनात्मक व्यक्तित्व, बौद्धिक सामर्थ्य, कला एवं साहित्य के प्रति रुझान, ज्ञान, पारिवारिक जिम्मेदारियों का उचित ढंग से निर्वाह करने की क्षमता, सेवा-भाव, देश-प्रेम, राजनैतिक समझ, देश और समाज का चिंतन, अपनी कर्तव्यपरायणता का बोध जैसी अनेक खूबियों के कारण आदर और स्नेह उपजता है लेकिन गाँधी सरला देवी के लिए लॉ गिवर बन जाते हैं। इसके पीछे उनकी मंशा है कि वह सरला देवी को और भी बेहतर बनाना चाहते हैं। वह चाहते हैं कि सरला देवी देश की अन्य स्त्रियों की आइडल बनें। 

सरला देवी का बचपन कला, साहित्य और देशप्रेम की भावना में बीता। उनका जन्म एक संभ्रांत परिवार में हुआ। उनका पालन पोषण गैर-परंपरागत ढंग से हुआ अतः वे उस समय की सामान्य स्त्रियों से अलग हैं। वे देश के प्रति उत्तरदायित्व रखती हैं। ये समझना होगा कि गाँधी की तरह सरला देवी भी इतिहास की कोई मामूली औरत नहीं थीं। इस उपन्यास में दोनों को प्रेम जिस तरह से श्रेठता की तरफ उठता है वो बहुत उद्दात्त था पर विडंबना कि अंत फिर भी किसी साधरण प्रेम कहानी की तरह होता है।

उपन्यास पढ़ते हुए बार-बार ये सवाल उठता है कि क्या गाँधी और सरला देवी का प्रेम कोई निजी प्रेम था? यहाँ निजता की कोई जगह नहीं थी। गाँधी और सरला देवी का प्रेम जितना निजी है, उतना सार्वजनिक भी है। गाँधी के प्रेम में तो जितनी प्रशंसा है, उतनी आलोचना भी। गाँधी के व्यक्तित्व को देखा जाये तो वहाँ कुछ भी निजी नहीं रह गया था। इसलिए सरला देवी से उनके मतभेद भी सार्वजनिक हुए। सरला देवी गाँधी को अपना आत्मीय सहचर मानती हैं इसलिए उनसे अपनी सार्वजनिक आलोचना और अंततः एक पत्र में गाँधी का ये कहना कि 'तुम मुझसे ईर्ष्या करती हो!' सरला देवी को एकदम से तोड़ देता है। बाद के दिनों में गाँधी जिस तरह से सरला देवी से उदासीन हुए वो तो उनके राजनीतिक जीवन की मांग थी। लेकिन सरला देवी को गाँधी की ये उदासीनता गहरे दुःख में डाल देती है।

किताब के उपसंहार में लेखिका 'अलका सरावगी' ने गाँधी की आत्मकथा और पत्रों का ज़िक्र किया है, जिससे पता चलता है कि गाँधी और सरला देवी दोनों ने अपने निजी सम्बन्ध की चर्चा कहीं नहीं की है। लेकिन किताब के आखिरी पेज में लेखिका अलका सरावगी लिखती हैं कि 'गाँधी के सरला को लिखे अस्सी से ज्यादा पत्र उपलब्ध हैं, किन्तु सरला देवी के गाँधी को लिखे सिर्फ़ चार-पाँच पत्र बचे हैं। बाकी के पत्र गाँधी की सबसे छोटी बहू 'लक्ष्मी गाँधी', जो कि राजगोपालाचारी की बेटी थीं, द्वारा जला दिये गये। गोपाल कृष्ण गाँधी ने हरी स्याही से लिखे उन भावपूर्ण पत्रों का जिक्र अपने एक भाषण में किया है। 

Alka Sarawagi
अलका सरावगी

इसी किताब का सबसे अंतिम पैराग्राफ है कि' 1932 में कैथरीन मैरी हेलमेन नामक एक युवा अंग्रेज औरत सेवाग्राम में आकर आठ साल रही। उसे गाँधी की दो अंग्रेज पुत्रियों में से एक के तौर पर जाना जाता है। गाँधी ने उसे सरला बहन नाम दिया है। यह सरला बहन हमेशा के लिए हिंदुस्तान में रह गयीं। कुमायूँ अंचल में स्त्री-शिक्षा और चिपको आंदोलन में सरला बहन का योगदान अविस्मरणीय है। सम्भवतः उसका सरला नामकरण गाँधी अपने पहले व्यक्तिगत प्रेम की स्मृति को बनाये और बचाये रखने के लिए किये होंगे।

लेकिन सवाल उठता है कि क्या ये उपन्यास कालखंड की सीमा को ध्यान में रखकर लिखा गया है? किसी भी मनुष्य का आकलन क्या उसके कालखंड को पार करके नहीं किया जा सकता? गाँधी भले महामानव थे लेकिन कोई भी मनुष्य परिस्थितियों और अपने समय से कितना तटस्थ हो सकता है? वे तो स्वतंत्रता आंदोलन के स्थापत्यकार थे, नये मनुष्य थे। वो सार्वजनिक और यथार्थ जीवन और देश की राजनीतिक आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। इस संदर्भ में नेहरू का व्यक्तित्व भी देखख सकते हैं, उन्होंने कभी नहीं छिपाया कि वो लेडी माउंटबेटन से प्रेम करते हैं। उनकी चिठ्ठियां हैं लेडी माउंटबेटन के लिए लिखी गयी, जिसमें उन्होंने प्रेम और आत्मीयता को स्वीकार किया है। 

गांधी जी ने सार्वजनिक जीवन जिया। उनका पूरा व्यक्तित्व सार्वजनिक रहा। शायद इसी सार्वजनिकता ने उनसे उनका निजी बहुत कुछ छीन लिया। लेकिन गौरतलब ये भी है कि इन्हीं महापुरुषों ने लाखों- करोड़ों स्त्रियों को आजादी के आंदोलन में उतार दिया था। उस समय एक असंभव और अस्वीकृत सामाजिक व्यवस्था को उन्होंने संभव बनाया। आजादी आंदोलन के अगुआ गाँधी, नेहरू आदि महापुरुष चाहते तो निजी जीवन में उस समय के चलन के हिसाब से छिपाकर स्त्रियों को रखैल (kept) की तर्ज पर रख सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इससे आजादी की लड़ाई पर बहुत फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उस समय के समाज की स्वीकृति थी। लेकिन भविष्य के न्यायपूर्ण समाज की खातिर इन्होंने सबकुछ सार्वजनिक किया। 

हालांकि आलोचना से परे कोई व्यक्तित्व नहीं होता। गाँधी की भी आलोचना हो सकती है। होती भी है और इसे आलोचकीय दृष्टि से देखा भी जा सकता है कि इनके निजी जीवन में गलतियां भी हुई हैं, ऐतिहासिक युग के अंतर्विरोध के शिकार भी रहे हैं गाँधी, लेकिन आज के समय में गाँधी फांसीवादी ताकतों के सामने खड़े हैं। आज जब सत्ता स्त्रियों और कमजोरों को कुचल देना चाहती है तो गाँधी का व्यक्तित्व इन सामन्ती और पुनरुत्थानवादी ताकतों से लड़ रहा है। आज गाँधी जिंदा नहीं हैं, लेकिन उनका व्यक्तित्व इन फाांसीवादी ताकतों से लड़ रहा है।

गाँधी और सरलादेवी चौधरानी : बारह अध्याय एक स्त्री के जीवन का वह अध्याय है जहाँ एक सदी का महामानव उस स्त्री को अपनी 'आत्मा का अंश' कहता है। उसकी निर्झर हँसी को 'देश की संपदा' कहता है। और फिर एक ऐसा समय आता जब स्त्री उस महामानव के जीवन में कहीं नहीं होती।

महापुरुषों को प्रेम करने की इजाज़त नहीं मिलती। गाँधी को भी नहीं मिली होगी नहीं तो आखिर ऐसा क्या हुआ कि उन्हें सरला देवी जैसी विदुषी स्त्री से अलग होना पड़ा। पितृसत्तात्मक समाज सारे आदर्श खुद रचता है और उसमें वो स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक की तरह देखता है। उनके सारे आदर्श मिलकर भी एक स्त्री को मनुष्य की संज्ञा नहीं दे पाते। इस उपन्यास को पढ़कर ये साबित होता है कि इस पितृसत्तात्मक समाज की जड़ें इतनी मजबूत है कि देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी उससे अछूते नहीं रहे। अपने त्याग,परोपकार व देशसेवा के सार्वजनिक जीवन में उन्हें अपने आत्मिक प्रेम की बलि देनी पड़ी।

किताब- गाँधी और सरला देवी चौधरानी बारह अध्याय
लेखिका- अलका सरावगी
विधा- उपन्यास
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन
मूल्य- 299 रुपये