पुस्तक समीक्षा: कथा की देह में संवेदना

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में जिन कहानीकारों ने अपनी पहचान बनाई है, रश्मि शर्मा इनमें प्रमुख हैं। रश्मि का कथा-संसार परंपरा और आधुनिकता के बीच संवाद रचते हुए स्त्री अस्मिता, संबंधों की ऊहापोह और आत्म-खोज की प्रक्रिया को गहरे प्रश्नों के साथ सामने लाता है। लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित इनके दूसरे कहानी-संग्रह 'सपनों का ढाई घर' की समीक्षा कर रही हैं युवा आलोचक डॉ कुमारी उर्वशी।

Sapno ke dhhai ghar 2

रश्मि शर्मा का कहानी संग्रह "सपनों के ढाई घर" मनुष्यता की सूक्ष्म परतों को उजागर करता है, जहाँ साधारण जीवन में छुपी असाधारण संवेदनाएँ कथा-भाषा की सरलता और मार्मिकता के साथ उभरती हैं। संग्रह की पहली कहानी 'स्टूल' एक वृद्ध नानी के जीवन-संघर्ष को केंद्र में रखती है, जो पारिवारिक स्वार्थ और सामाजिक उपेक्षा के बीच चुपचाप जीती है। विवाह में बेटी को ऊँचा बैठाने के लिए लाया गया स्टूल नानी के आत्मबल और संघर्षों का स्थायी प्रतीक बन जाता है। अंततः उसी स्टूल का टूटना नानी के आत्मसम्मान के टूटने का मार्मिक बिंब बन जाता है।

कहानी वृद्धजनों की उपेक्षा, पारिवारिक रिश्तों की सच्चाई और स्त्री की अस्मिता पर एक गहरी टिप्पणी करती है। रश्मि शर्मा बिना आरोप लगाए, प्रतीकों के माध्यम से कथा को भावनात्मक गहराई देती हैं। यद्यपि बेटों-बहुओं का चित्रण एकांगी प्रतीत होता है, फिर भी 'स्टूल' पाठक को भीतर तक झकझोरने में सक्षम है — यह केवल एक कहानी नहीं, एक मौन चेतावनी है, जो भविष्य की संभावित निःसंगता की ओर संकेत करती है।

 कहानी ‘मोटिफ’ पारंपरिक लोककला, श्रम और पीढ़ियों के सोच में आए बदलाव की सूक्ष्म लेकिन प्रभावशाली कथा है। सोहराय पेंटिंग के माध्यम से यह कहानी रुदनी जैसी आदिवासी कलाकारों के शोषण को उजागर करती है, जिनकी कला का प्रदर्शन तो होता है, पर उन्हें न सम्मान मिलता है, न स्वावलंबन। वहीं, रुदनी की बेटी पार्वती परंपरा को तो नहीं त्यागती, लेकिन उसे अपनी शर्तों पर पुनर्परिभाषित करती है — पढ़ाई कर, बुटीक खोलकर, और मोटिफ़ को आत्मनिर्भरता का माध्यम बनाकर।

यह कहानी परंपरा और आधुनिकता के बीच टकराव नहीं, बल्कि रचनात्मक संवाद प्रस्तुत करती है। रुदनी की मौन दृष्टि में गर्व, विस्मय और परिवर्तन की स्वीकृति छिपी है। रश्मि शर्मा की सहज, भावपूर्ण भाषा इस कथा को गहराई देती है। ‘मोटिफ’ हमें यह सिखाती है कि जड़ों से जुड़े रहते हुए भी नई उड़ान संभव है — जब पहचान के साथ आत्मसम्मान भी सुरक्षित हो।

"राहतें और भी हैं" रश्मि शर्मा की एक संवेदनशील कहानी है, जो आधुनिक शहरी जीवन में अकेलेपन, आत्मनिर्भरता और रिश्तों की उलझनों को गहराई से प्रस्तुत करती है। नायिका श्रेया विवाह संस्था को ठुकराकर स्वतंत्र जीवन जीती है, पर चालीस की उम्र पार करते ही उसका आत्मविश्वास अकेलेपन की चुभन में बदलने लगता है। पुराने मित्रों को फोन करना उसकी भीतर की बेचैनी और जुड़ाव की तलाश को दर्शाता है।

राजीव, अमिताभ और पल्लव जैसे पुरुष पात्र श्रेया के जीवन में संबंधों की संभावनाओं और सीमाओं को सामने लाते हैं। अंततः, जब कई पुराने संबंध लौटने लगते हैं, श्रेया ऑफिस के बहाने खुद से दूरी बना लेती है — यह उसका भीतरी द्वंद्व और किसी भी बनावटी या अधूरे रिश्ते से इनकार का प्रतीक है।

यह कहानी आत्मनिर्भर स्त्री की उस जटिल मन:स्थिति को भी उजागर करती है, जहाँ स्वतंत्रता के बावजूद स्नेह और अपनत्व की गहरी प्यास बनी रहती है। रश्मि शर्मा ने स्त्री-अस्मिता, अकेलेपन और आत्मस्वीकृति के संघर्ष को बिना किसी नाटकीयता के सच्चे और मार्मिक अंदाज़ में प्रस्तुत किया है।

"मन के घेरे" रश्मि शर्मा की एक संवेदनशील कहानी है, जो कृतिका के माध्यम से विवाह, परिवार और कर्तव्य के आवरण में छिपे मानसिक बंधनों को उजागर करती है। कृतिका का पति शलभ और उसकी सास मिलकर उसे उस घेरे में बाँध देते हैं जहाँ उसकी इच्छाओं, सपनों और अस्तित्व का दम घुटता है। यहाँ पितृसत्ता सिर्फ पुरुषों के माध्यम से नहीं, बल्कि स्त्रियों के व्यवहार में भी व्यक्त होती है।

कहानी तब मोड़ लेती है जब कृतिका माँ बनती है, पर यह बदलाव भी क्षणिक सुकून के अलावा कुछ नहीं देता। पति की बीमारी और बायोप्सी की आशंका के बीच सास का कथन — "अगर तुम मर जाती..." — कृतिका की भावनात्मक दुनिया को झकझोर देता है। बायोप्सी रिपोर्ट निगेटिव आती है, पर उस राहत के साथ एक गहरा शून्य भी भर उठता है। चिड़िया, सूरज और बादल जैसे बिंब उसके घुटन भरे मानसिक संसार की सशक्त अभिव्यक्ति बनते हैं।

यह कहानी उन असंख्य स्त्रियों की कहानी है जो घर की दीवारों के भीतर अपनी अस्मिता और स्वप्नों को खो देती हैं। रश्मि शर्मा की सरल लेकिन प्रभावशाली भाषा और प्रतीकों का प्रयोग इसे एक विशिष्ट साहित्यिक ऊँचाई प्रदान करता है। "मन के घेरे" पाठक के मन में यह प्रश्न छोड़ जाती है — क्या हम स्त्री की भीतरी घुटन को सचमुच सुन पाते हैं?

"तीज का चाँद और पेट में उड़ती तितलियाँ" रश्मि शर्मा की एक मार्मिक कहानी है, जो प्रेम, स्मृति और सामाजिक चेतना की परतों को संवेदनशीलता से उकेरती है। इस कथा का केंद्र समीर है, जो बचपन की स्मृतियों में रची-बसी रेनी के प्रति अधूरे प्रेम को वर्षों बाद भी भुला नहीं पाता। रेनी से बिछुड़ना, उसका सामाजिक कार्यों में सक्रिय होना, और समीर का अपने भीतर उठती बेचैनी को महसूस करना — यह सब आत्म-साक्षात्कार की एक गहरी यात्रा का हिस्सा है।

वीआरएस लेकर गाँव लौटते समीर के भीतर ‘तितलियों’ का उड़ना केवल प्रेम की छुअन नहीं, बल्कि सामाजिक असहजता और नैतिक द्वंद्व की अनुभूति है। जेसीबी मशीनों की आवाज़ें, पहाड़ों पर पंजों की आकृतियाँ और आधा चाँद — ये प्रतीक कहानी को एक चित्रात्मक और मनोवैज्ञानिक गहराई प्रदान करते हैं।

रेनी के माध्यम से समीर यह समझता है कि प्रेम का विस्तार केवल निजी सुख तक नहीं, बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व तक हो सकता है। साथ ही यह कहानी दर्शाती है कि अधूरे प्रेम भी व्यक्ति को संवेदनशील और सजग बना सकते हैं — जहाँ स्मृतियाँ सिर्फ दुःख नहीं, बदलाव की चेतना भी जगाती हैं।


"मेहरबान भूत" रश्मि शर्मा की एक ऐसी कहानी है जो जीवन के साधारण प्रसंगों को अपनत्व, हास्य और गहरे जीवनबोध के साथ सहजता से प्रस्तुत करती है। यह कथा एक किशोर की है, जो गरीबी और संघर्ष के बीच आत्मनिर्भर बनता है। मज़दूरी करना, सिक्के जोड़ना और अपनी सूझ-बूझ से हक़ पाना — ये सभी प्रसंग उसकी जीवटता को उजागर करते हैं।

‘भूत’ यहाँ डर का नहीं, चतुराई का प्रतीक है — जो ग्रामीण समाज के अंधविश्वास को हल्के हास्य में पिरोकर मानवीय समझ और बुद्धिमत्ता को सामने लाता है। कहानी की भाषा सरल, प्रवाहमयी और आत्मीय है। 
हालाँकि इसमें संघर्ष और अभाव हैं, फिर भी रश्मि शर्मा का लेखन बोझिल नहीं होता। वे कठिनाइयों को मुस्कान के साथ देखने का दृष्टिकोण देती हैं।

"मेहरबान भूत" न केवल मनोरंजक है, बल्कि यह बताती है कि सीमित साधनों में भी आत्मबल, चतुराई और हास्य से जीवन को सरल और गरिमामय बनाया जा सकता है। यह कहानी मन में एक मुस्कुराती स्मृति की तरह देर तक बनी रहती है।

"रिंगटोन" एक संवेदनशील और सूक्ष्म कथा है, जो शहरी जीवन के वर्गभेद, स्त्री अस्मिता और आत्मसम्मान की जटिलताओं को बेहद प्रभावशाली ढंग से उजागर करती है।

मुख्य पात्र आद्या और उसकी घरेलू सहायिका सोनी के बीच का संबंध केवल मालिक-नौकर का नहीं, बल्कि दो स्त्रियों के भीतर पल रही आकांक्षाओं, कसक और आत्मनिर्भरता की कामनाओं का द्वंद्व है।

आद्या, पढ़ी-लिखी और अपेक्षाकृत संपन्न होते हुए भी अपने अधूरे स्वप्नों और खोई स्वतंत्रता से जूझती है। वहीं, सोनी सीमित संसाधनों में भी आत्मनिर्भर बनने की राह चुनती है — पहले घरों में काम करके और फिर कबाड़ का व्यवसाय अपनाकर।

कहानी का केंद्रीय प्रतीक — रिंगटोन — उस अदृश्य सेतु की तरह है जो दोनों स्त्रियों की दुनिया को जोड़ता है। जब सोनी के पास आद्या जैसी रिंगटोन वाला फोन आता है, तो यह दृश्य दोनों की समान आकांक्षाओं और जिजीविषा का उद्घाटन बन जाता है।

"रिंगटोन" यह गहराई से महसूस कराती है कि सपने, स्वाभिमान और स्वतंत्रता की चाह किसी वर्ग की बपौती नहीं। यह कहानी अपने छोटे से फ्रेम में स्त्री जीवन के बड़े प्रश्नों को बहुत सहजता, परिपक्वता और भावुक सघनता से उठाती है।

"कबीरा खड़ा बाजार में" रश्मि शर्मा की एक विचारोत्तेजक कहानी है, जो आस्था, पहचान और सामाजिक विडंबना की जटिल परतों को संवेदनशीलता से उभारती है।

मुख्य पात्र सहोदरी एक आदिवासी युवती है, जो जीवन संघर्षों के बीच धार्मिक आस्थाओं और सामाजिक पहचानों की उलझनों से जूझती है। वह शिवभक्त है, आत्मनिर्भर है, और अपनी बेटी को भी सम्मानजनक जीवन देना चाहती है। लेकिन जब जीवन उसे कठोर मोड़ पर लाता है—पति की मृत्यु और बेटी की बीमारी के रूप में—तो वह ईसा में विश्वास कर बेटी के जीवन की रक्षा का प्रयास करती है।

यह धर्मांतरण उसकी मजबूरी का परिणाम है, न कि कोई वैचारिक चयन। परंतु अंत में, उसकी मृत्यु के बाद उसे कहीं ठौर नहीं मिलता—न आदिवासी समाज में, न ईसाई समुदाय में। उसे अपने ही आंगन में दफनाया जाता है, प्रकृति की गोद में—जो हर जीवन को बिना भेदभाव के स्वीकारती है।

कहानी का शीर्षक "कबीरा खड़ा बाजार में" इस द्वंद्व और विडंबना का प्रतीक बनता है। जैसे कबीर समाज की जड़ताओं पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते थे, वैसे ही सहोदरी का जीवन भी धर्म, समाज और पहचान की सीमाओं पर एक मौन लेकिन तीखा सवाल बनकर उभरता है।

यह कहानी न केवल सहोदरी की है, बल्कि उन तमाम स्त्रियों की कथा है जो संघर्ष, आस्था और पहचान के बीच पिसती रहती हैं। रश्मि शर्मा ने इसे अत्यंत सधी हुई, करुणामयी भाषा में रचकर एक गहरी मानवीय संवेदना को स्वर दिया है, जो पाठक को भीतर तक झकझोर देती है।

"सपनों के ढाई घर" पूर्णिमा की कहानी है — एक ऐसी स्त्री जो अपने जीवन के 52वें वर्ष में मातृत्व का स्वप्न देखती है। यह कहानी न केवल उसकी व्यक्तिगत यात्रा का वृत्तांत है, बल्कि स्त्री अस्मिता, सामाजिक पूर्वाग्रह और अकेलेपन के विरुद्ध उठे एक मौन विद्रोह का दस्तावेज भी है।

पूर्णिमा का अकेलापन कोई साधारण अकेलापन नहीं, वह उसकी विचारशीलता और उसके अनुभवों से उपजा हुआ अकेलापन है। उसने अपने बचपन में घरेलू हिंसा और महिलाओं के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को बहुत निकट से देखा है। कबीले की घृणास्पद प्रथा, जिसमें महंत महिलाओं के साथ जबरन संबंध बनाता था, ने उसके भीतर पुरुष सत्ता के प्रति गहरा अविश्वास भर दिया। इसी अविश्वास ने उसे विवाह से दूर रखा और एक स्वनिर्मित एकांत में धकेल दिया।

लेकिन समय के साथ, जब अकेलापन जीवन के हर कोने में अपनी जड़ें जमा लेता है, तब पूर्णिमा के भीतर मातृत्व की एक धीमी लेकिन तीव्र इच्छा जागती है। इस इच्छा को शब्द देता है मनोहर — एक ऐसा पुरुष जो न सहानुभूति जताता है, न दया दिखाता है, बल्कि बिना किसी अपेक्षा के उसके सपनों को साकार करने में मदद करता है।

कहानी में मनोहर और संगीता का चरित्र भी महत्वपूर्ण है। ये दोनों पात्र न केवल पूर्णिमा के सहायक हैं, बल्कि उसके सपनों की यात्रा में भावनात्मक स्तंभ भी बनते हैं। संगीता और मनोहर का निकट आना कहानी में जीवन के अनपेक्षित मोड़ों और नए संबंधों के बनने-बिखरने के सहज प्रवाह को भी सूक्ष्मता से दर्शाता है।

पूर्णिमा के भीतर गहरे बसा भय — कि कहीं उसका बच्चा भी उसी भयावह परंपरा का कोई अंश न हो — उसकी असुरक्षा को, उसके अविश्वास को अत्यंत मार्मिक रूप में प्रस्तुत करता है। डॉक्टर से उसका प्रश्न, "बच्चा मेरे जैसा होगा ना?" — इस कहानी का सबसे करुण और सबसे सच्चा क्षण है। यह प्रश्न किसी एक स्त्री का नहीं, पीढ़ियों से भयभीत, अपमानित और कुचली जा रही स्त्री जाति का प्रश्न बन जाता है।

कहानी का अंतिम दृश्य — ऑपरेशन थिएटर के बाहर स्ट्रेचर पर लेटी पूर्णिमा, मनोहर और संगीता की प्रार्थनामयी आंखें, और एक नर्स की चुपचाप होती भावनात्मक गवाही — कहानी को एक अत्यंत ऊंचाई पर ले जाता है। बिना किसी बड़े नाटकीय घटनाक्रम के, यह क्षण पाठक के भीतर एक गहरा कंपन पैदा करता है।

कहानी का शिल्प सहज, प्रवाहमय और अत्यंत संवेदनशील है। भाषा में कहीं-कहीं लयात्मकता है तो कहीं खामोशी का भारीपन। संवाद बहुत वास्तविक और पात्रों के अंतर्मन को खोलने वाले हैं। विशेषतः पूर्णिमा के अल्ट्रासाउंड के दृश्य, या बचपन के अनुभवों का वर्णन करते समय भाषा एक अदृश्य चाकू की तरह पाठक के हृदय को छूती है।

"सपनों के ढाई घर" मातृत्व के अधिकार, स्त्री स्वतंत्रता, और मानवीय गरिमा के सवालों को अत्यंत कोमलता से उठाती है। यह कहानी बताती है कि परिवार केवल सामाजिक ढांचे का नाम नहीं है, बल्कि वह एक सपना है जिसे कोई भी, किसी भी उम्र में, अपने ढंग से पूरा कर सकता है। पूर्णिमा का मां बनना केवल एक निजी विजय नहीं है, बल्कि उन तमाम स्त्रियों की ओर से एक चुपचाप बोला गया "हाँ" है — जीवन के, प्रेम के, और खुद अपने अस्तित्व के पक्ष में।

"सपनों के ढाई घर" एक धीमी आग की तरह जलती हुई कहानी है — जो बाहर से शांत दिखती है लेकिन भीतर भीतर पाठक को पूरी तरह भिगो देती है। यह न सिर्फ एक स्त्री के सपनों की कहानी है, बल्कि समाज के उन अदृश्य जख्मों की भी कहानी है जो अब भी कई मनों को चुपचाप कुरेदते रहते हैं। यह एक जरूरी कहानी है — उम्मीद, पुनर्निर्माण और अपने सपनों को खुद आकार देने के अदम्य साहस की कहानी।

"सपनों के ढाई घर" कहानी संग्रह की सभी कहानियाँ जीवन के विविध भावात्मक, सामाजिक और मानसिक संदर्भों को अत्यंत संवेदनशीलता से छूती हैं। इन कहानियों में कहीं एक छोटे से स्टूल के बहाने स्त्री की अव्यक्त इच्छाओं का बयान है, तो कहीं मोटिफ के माध्यम से स्मृति और प्रतीक का गहन अर्थ खुलता है।राहतें और भी हैं.. कहानी में समय की परतों के नीचे दबी पीड़ा और आशा का द्वंद्व है, जबकि मन के घेरे भीतर के भय, संकोच और असुरक्षाओं का सजीव चित्रण करते हैं। तीज का चांद और पेट में उड़ती तितलियाँ में सांस्कृतिक परंपराओं के भीतर पलती स्त्री आकांक्षाओं का सुंदर आख्यान है। मेहरबान भूत और रिंगटोन जैसी कहानियाँ यथार्थ और कल्पना के बीच महीन पुल बनाते हुए जीवन की विडंबनाओं और संबंधों की उलझनों को उजागर करती हैं। कबीरा खड़ा बाजार में... जैसी कहानी आध्यात्मिक दृष्टि और सामाजिक चेतना के बीच एक अद्भुत संवाद रचती है, जो संग्रह को गहराई और व्यापकता प्रदान करती है।

पूरे संग्रह में रश्मि शर्मा की भाषा सहज, संवेदनशील और आत्मीय है। वे छोटे-छोटे दृश्यों और अनुभूतियों से बड़े जीवन सत्य को पकड़ने में सफल हुई हैं। इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हर कहानी अपने भीतर एक अलग तापमान, एक अलग धड़कन लिए हुए है, लेकिन सभी मिलकर स्त्री जीवन, संबंधों और आत्म-संघर्ष की एक समग्र और मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। "सपनों के ढाई घर" संग्रह आज के समय की उन कहानियों का प्रतिनिधि उदाहरण है, जो साधारण जीवन के भीतर छुपे असाधारण सत्य को बड़ी सादगी और आत्मीयता से पाठकों तक पहुँचाती हैं।

"सपनों के ढाई घर" संग्रह की कहानियाँ स्त्री अनुभवों, सामाजिक संरचनाओं और आंतरिक द्वंद्वों का बहुस्तरीय विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं। स्टूल, मोटिफ, राहतें और भी हैं.., मन के घेरे, तीज का चांद और पेट में उड़ती तितलियाँ, मेहरबान भूत, रिंगटोन तथा कबीरा खड़ा बाजार में... जैसी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं के जटिल आयामों को उभारती हैं। रश्मि शर्मा का कथा-संसार परंपरा और आधुनिकता के बीच संवाद रचते हुए स्त्री अस्मिता, संबंधों की ऊहापोह और आत्म-खोज की प्रक्रिया को गहरे प्रश्नों के साथ सामने लाता है। यह संग्रह समकालीन हिंदी कथा साहित्य में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में स्थापित होता है, जहाँ सरल भाषा के भीतर गहन जीवन-दृष्टि अंकित है।

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पुस्तक का नाम :- सपनों के ढाई घर
लेखक का नाम :- रश्मि शर्मा
प्रकाशन :- लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली 
मूल्य :- 299

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