पुस्तक समीक्षा: ‘चाकू’ की तरह तेज और धारदार किताब

‘चाकू’ एक ऐसी किताब है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में जान देने की हद तक जोखिम उठाने की बात करती है। यह शब्दों की दुनिया की अबाधित स्वायत्तता की बात करती है। यह किसी भी तरह से अपनी अभिव्यक्ति के साथ जिन्दा रहने और इस राह में आने वाली सत्ताओं-संरचनाओं के प्रति खुलेआम गुस्से का इजहार करती है। यह किसी लेखक के दर-बदर भटकते हुए बेवतन होने के मतलब के बारे में बात करती है। एक बूढ़ा लेखक जो लगभग मार दिया गया है, जिसकी एक आँख हमेशा के लिए छीन ली गई है वह इस घातक हमले से उबरते हुए, दर्दनिवारक दवाओं के नशे और भ्रमों से बाहर आते हुए, अपने शरीर और उँगलियों को दोबारा जिन्दा करते हुए, जिस चीज के बारे में सबसे ज्यादा बात करता है, वह है प्रेम। वह इतना ज्यादा प्रेम में है कि वह अपने चूके हुए हत्यारे के प्रति भी कटु नहीं है।'

chaku book cover 1

बहुचर्चित उपन्यासकार सलमान रुश्दी की नई किताब ‘चाकू’ पहले ही पैरे में ही किताब की केंद्रीय घटना का बयान करती है। घटना यह है कि, “मुझे एक नौजवान ने चाकू के हमले से लगभग मार ही डाला था, जब मैं चॉटॉक्वा में एंफीथियेटर के मंच पर लेखकों को सुरक्षित रखने की अहमियत पर बोलने के लिए पहुँचा ही था।“ किताब के दूसरे ही पैरे में ‘सिटी ऑफ असायलम पिट्सबर्ग प्रोजेक्ट’ की बात है जो “बहुत सारे ऐसे लेखकों को शरण देता है जो अपने देशों में सुरक्षित नहीं हैं।“ सवाल यह है कि ये लेखक अपने ही देशों में सुरक्षित क्यों नहीं हैं? इस सवाल का विस्तार करते हुए हम पूछ सकते हैं कि बाँग्लादेश में तस्लीमा नसरीन क्यों सुरक्षित नहीं हैं? भारत में परसाई या मुक्तिबोध जैसे लेखकों पर हमले क्यों होते रहे हैं! नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे या कि सफदर हाशमी जैसे लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को सरेआम मौत के घाट कैसे उतार दिया गया! या कि पेरुमल मुरुगन को अपने लेखक की मौत की घोषणा क्यों करनी पड़ी!

तो सबसे पहले ‘चाकू’ एक ऐसी किताब है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में जान देने की हद तक जोखिम उठाने की बात करती है। यह शब्दों की दुनिया की अबाधित स्वायत्तता की बात करती है। यह किसी भी तरह से अपनी अभिव्यक्ति के साथ जिन्दा रहने और इस राह में आने वाली सत्ताओं-संरचनाओं के प्रति खुलेआम गुस्से का इजहार करती है। यह अभिव्यक्ति की दुनिया के बाहर और भीतर सामूहिकता और उसकी ताकत के बारे में बात करती है। यह अतीत के बारे में एक सही दृष्टिकोण की बात करती है। यह अपनी रचनात्मकता के पक्ष में रहते हुए तमाम तरह के डरों और जोखिमों के सामने सीना तान कर खड़े होने की बात करती है। यह किसी लेखक के दर-बदर भटकते हुए बेवतन होने के मतलब के बारे में बात करती है। इसीलिए लगभग जान ही ले लेने वाले हमले के बाद भी लेखक अभिव्यक्ति की आजादी का एक जुझारू योद्धा बना रहता है।

इसलिए यह अनायास नहीं है कि लेखक अपने आप को नायक और शूरवीर के रूप में ही इमेजिन करता है। किताब की शुरुआत में जब रुश्दी अपने ऊपर हुए हमले का वर्णन कर रहे होते हैं तो बालकोचित वीरता से यह बताना नहीं भूलते कि उन्होंने सारे वार अपने सीने पर झेले। उनकी पीठ पर एक भी घाव नहीं था। या कि “सर्जरी के बाद पहले चौबीस घंटे के दौरान किसी समय, जब मेरा जीवन अधर में लटका हुआ था, मैंने इंगमार बर्गमैन का सपना देखा। सही-सही कहूँ तो मैंने ‘द सेवेंथ सील’ का प्रसिद्ध दृश्य देखा जिसमें धर्मयुद्ध से घर लौटता हुआ शूरवीर अपरिहार्य शह-मात को यथासंभव लंबे समय तक टालने के लिए, मौत के खिलाफ शतरंज का अखिरी खेल खेलता है। ...वह शूरवीर मैं था।“ इसके पहले वह लिख चुका है कि “अब के लिए यह कमरा दुनिया था और दुनिया एक घातक खेल हो चुकी थी। इस खेल से बाहर निकलने और अधिक व्यापक और पहचाने हुए यथार्थ में लौटने के लिए, मुझे बहुत सारी जाँचों से होकर गुजरना था, और यह शारीरिक और नैतिक दोनों तरह की होने वाली थीं, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे दुनिया के हर मिथकीय नायक को गुजरना होता है।“ एक और जगह रुश्दी लिखते हैं कि “जिस काल्पनिक चरित्र के साथ मैं जुड़ा हुआ महसूस कर रहा हूँ वह है, वुल्वरीन। जिस एक्समैन में ‘स्वतः उपचार’ की सुपर हीरो वाली शक्ति है।“

‘चाकू’ पढ़ते हुए धीरे-धीरे हम जानते हैं कि यह शक्ति है प्रेम, जिसके बारे में रुश्दी लिखते हैं - “मैं समझ गया कि मेरे जीवन की विचित्रताओं ने मुझे उन दो शक्तियों की लड़ाई के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है जिसमें से एक को राष्ट्रपति मैक्रों ने ‘बर्बरता’ कहा है और दूसरी है प्रेम की उपचारात्मक, एकजुट करने वाली, प्रेरक शक्ति। जिस स्त्री से मैं प्यार करता था और जो मुझसे प्यार करती थी वह मेरे साथ अडिग खड़ी थी। हम यह लड़ाई जीतेंगे। मैं जीऊँगा।“ वे बार-बार अपने उन पाठकों, प्रशंसकों और मित्रों की भी बात करते हैं जो रुश्दी के बारे में लगातार चिंतित थे, लगातार अपनी बात लिख या कह रहे थे। इनमें से अनेक की प्रतिक्रियाओं और संदेशों को रुश्दी की पत्नी एलिजा, रुश्दी का बेटा समीन या उनके अन्य करीबी मित्र पढ़कर सुनाते थे। रुश्दी लिखते हैं कि “मैं इतना ठीक नहीं था कि मेरे अस्पताल के कमरे के बाहर जो कुछ हो रहा था, उसे स्पष्ट रूप से समझ सकूँ, लेकिन मैं इसे महसूस कर पा रहा था। मेरा हमेशा से मानना रहा है कि प्यार एक ताकत है, अपने सबसे शक्तिशाली रूप में यह पहाड़ों को हिला सकता है। यह दुनिया को बदल सकता है।“

एक बूढ़ा लेखक जो लगभग मार दिया गया है, जिसकी एक आँख हमेशा के लिए छीन ली गई है वह इस घातक हमले से उबरते हुए, दर्दनिवारक दवाओं के नशे और भ्रमों से बाहर आते हुए, अपने शरीर और उँगलियों को दोबारा जिन्दा करते हुए, जिस चीज के बारे में सबसे ज्यादा बात करता है, वह है प्रेम। वह मौत के इलाके से जिन्दगी के इलाके की तरफ आता हुआ पूरी तरह से प्रेम में डूबा हुआ है। वह इतना ज्यादा प्रेम में है कि वह अपने चूके हुए हत्यारे के प्रति भी कटु नहीं है। वह बस उसके भीतर उग आए ‘चाकू’ को समझना चाहता है। वह इतना अधिक जीवन से भरा है कि जब वह लहूलुहान गिरा पड़ा है तब भी उसे इस बात का खयाल रहता है कि उसका नया कोट किस बेदर्दी से काटा जा रहा है कि उसके घावों के बारे में सही सही जाना जा सके। तो यह ‘चाकू’ सबसे पहले मुहब्बत के बारे में है।

यह अपनी पत्नी एलिजा से मुहब्बत है। यह परिवार और दोस्तों से मुहब्बत है। यह दुनिया भर में फैले हुए अपने पाठकों और प्रशंसकों से मुहब्बत है। यह दुनिया भर के श्रेष्ठ साहित्य और फिल्मों से मुहब्बत है। यह किसी भी हद तक जाकर की गई अपनी अभिव्यक्ति की आजादी से मुहब्बत है। यह अपनी कला से मुहब्बत है। रुश्दी साहित्य और सिनेमा में इस कदर डूबे हुए हैं कि “चाकू’ पढ़ते हुए उनके प्रिय लेखकों, किताबों और फिल्मों की सूची अनायास ही तैयार की जा सकती है। वह अपने जीवन के तमाम प्रसंगों में डूबते-उतराते हुए इतने अनायास तरीके से इन कहानियों, उपन्यासों और फिल्मों के प्रसंग याद करता है कि उस पर प्यार आता है। यह अचरज होता है कि कोई इस कदर सिर से पैर तक साहित्य, शब्दों और उसके तमाम अर्थों में डूबा हुआ हो सकता है।

खैर, प्रेम में डूबने का यह दृश्य देखें - “उसके पीछे-पीछे चलते हुए, मैं एक चीज देखने से चूक गया – उनमें से एक स्लाइडिंग डोर खुला हुआ था और वह उससे होकर निकल गई, लेकिन दूसरा दरवाजा बंद था। मैं आगे चल रहा था, उस शानदार, खूबसूरत महिला की मौजूदगी से बेहद विचलित जिसे मैं अभी-अभी मिला था, नतीजतन मैं यह नहीं देख पाया कि मैं कहाँ जा रहा हूँ, और मैं काँच के दरवाजे से बहुत जोर से टकराया और धड़ाम से फर्श पर गिर गया। यह बहुत ही बेवकूफी भरी बात हुई थी।” यह गिरना काम आता है और वे एलिजा की निगाहों में आ जाते हैं। इसके आगे मुहब्बत का यह अंदाज देखें – “मुझे लगा जैसे मैं अलीबाबा हूँ जो वह जादुई शब्द सीख रहा है, जिससे एक खजाने से भरी गुफा के द्वार खुल जाते हैं – खुल जा, सिमसिम – और वहाँ, उसकी रोशनी से आँखें चकाचौंध हो गईं, वहाँ अकूत खजाना था, और वह खजाना वह खुद थी।“

इसके बावजूद रुश्दी लगभग पाँच साल तक वह अपने इस रिश्ते को रहस्य बनाए रखते हैं क्योंकि “एलिजा खुद में बहुत सिमटी रहने वाली शख्सियत थीं और हैं, जिसकी मेरे साथ रहने को लेकर पहली चिंता थी कि उसे अपनी निजता की बलि देनी होगी और पब्लिसिटी की तेजाबी रोशनी में नहाना होगा।“ वे इस हद तक सतर्क हैं कि सोशल मीडिया पर एक दूसरे की पोस्ट तक लाइक नहीं करते। बकौल रुश्दी “मुझे लगता है कि हमने दिखाया कि इस ध्यान खींचने के आदी हो चले समय में भी, दो लोगों के लिए, खुले तौर पर, खुशियों से भरा निजी जीवन जीना अभी भी संभव था। फिर, उस जीवन को काटकर अलग कर देने चाकू आ गया।“ 

अभी थोड़े समय पहले एक लंबे अंतराल के बाद रुश्दी ने अपना नया उपन्यास ‘द विक्ट्री सिटी’ पूरा किया है जिसमें लेखक अपने काम से संतुष्ट है और बेकरारी से इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है कि उपन्यास ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुँचे। जिसके लिए रुश्दी मन ही मन खुद से कहते हैं कि “कम से कम मैं अभी, या जल्द ही एक बार फिर से, एक ऐसा लेखक बन जाऊँगा जिसने एक किताब लिखी है।“ यह पैशन लेखक के जीवन की धुरी-सा है। प्रेम की ताकतवर और सम्मोहक दुनिया, जिंदगी को उसके समस्त रूपों में जी और रच पाने की अदम्य आकांक्षा, देखी जा रही दुनिया के बारे में आजादी से लिख पाने की चाह यानी अभिव्यक्ति की आजादी जो आधुनिक मनुष्य के जीवन में अर्थ भरती है और उसके न संभव होने की स्थिति में मृत्यु और जीवन में कोई फर्क नहीं बचता। ये सभी बातें रुश्दी के जीवन में इस तरह से घुली-मिली हुई हैं कि कई बार उन्हें एक दूसरे से अलगाना भी मुमकिन नहीं हो पाता। 

उस घातक हमले पर फिर से लौटें तो रुश्दी के शब्दों में – “इस हमले के बारे में सबसे परेशान करने वाली बात यह है कि इसने मुझे एक बार फिर से उस व्यक्ति में बदल दिया है जो नहीं बनने की मैंने बहुतेरी कोशिश की है। तीस से अधिक वर्षों से मैंने फतवे द्वारा परिभाषित होने से इनकार किया है और अपनी पुस्तकों के लेखक के रूप में देखे जाने पर जोर दिया है। ...और अब मैं यहाँ हूँ, जिसे उस अवांक्षित विषय में दोबारा घसीटा गया। मुझे लगता है कि अब मैं इससे कभी बच नहीं पाऊँगा। मैं हमेशा वह इंसान रहूँगा जिसे चाकू मारा गया। अब चाकू मुझे परिभाषित करता है। मैं इसके खिलाफ लड़ूँगा, लेकिन मुझे लगता है कि मैं हार जाऊँगा।“ अपनी इस लड़ाई को लड़ते हुए रुश्दी सबसे पहले ‘एक विचार के रूप में’ चाकू के बारे में सोचते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “चाकू एक ऐसा उपकरण है, जो अपना अर्थ उस मकसद से हासिल करता है, जिसके लिए हम उसका इस्तेमाल करते हैं। नैतिक रूप से यह खुद बड़ा तटस्थ है। असल में, चाकू का दुरुपयोग ही इसे अनैतिक बनाता है।“ इसके बाद रुश्दी अपनी इस बात पर खुद से सवाल करते हुए चाकू और बंदूक की तुलना करते हैं और पाते हैं कि “बंदूकों का एक ही तरीका है : इसका एकमात्र मकसद हिंसा है, यहाँ तक कि जिंदगियाँ छीनना भी, चाहे वह किसी जानवर की हो या इंसान की। एक चाकू बंदूक जैसा नहीं होता।“ 

और यहीं से रुश्दी इस किताब की प्रतिरोधी लय हासिल कर लेते हैं - “भाषा भी तो एक चाकू है। यह दुनिया में चीरा लगाकर इसके अर्थ, इसके अंदरूनी कामकाज, इसके रहस्यों, इसकी सच्चाइयों को उधेड़कर बाहर निकाल सकता है। यह इसको काटकर यथार्थ से परे दूसरी वास्तविकताओं को खोल सकता है। यह बकवास को बकवास कह सकता है, लोगों की आँखें खोल सकता है, सौंदर्य गढ़ सकता है। भाषा मेरा चाकू थी। यदि मैं अप्रत्याशित रूप से किसी अवांछित चाकूबाजी में फँस गया होता, तो शायद इसी चाकू के जरिए मैं वापस लड़ सकता था। यही वह उपकरण हो सकता है जिसका इस्तेमाल मैं अपनी दुनिया का पुनर्निर्माण करने और उसे दोबारा हासिल करने के लिए करूँगा, उस फ्रेम को फिर से बनाने के लिए मैं इसी का प्रयोग करूँगा जिसमें दुनिया की मेरी बनाई तसवीर एक बार फिर मेरी दीवार पर लटक सकती है, जो मेरे साथ हुआ उसका विवरण देने, इसे अपना बनाने के लिए मैं भाषा का ही इस्तेमाल करूँगा।“

किताब का छठा अध्याय, जो विश्वविख्यात अरब लेखक ‘नागुइब महफूज’ पर घातक हमले के वर्णन से शुरू होता है, उसमें रुश्दी का अपने चूके हुए हत्यारे ‘ए’ के साथ एक काल्पनिक, पर सघन संवाद है। इस संवाद के बारे में रुश्दी लिखते हैं कि, “मैं उससे बहुत मित्रवत नहीं होना चाहता। ...लेकिन मैं शत्रुतापूर्ण भी नहीं होना चाहता। मैं अगर कर पाया, तो उसकी गाँठें खोलना चाहता हूँ।“ गाँठें खोलने की इस प्रक्रिया में रुश्दी ‘ए’ के सभी संभावित तर्कों और वजहों पर जाते हुए धर्म और उसकी बढ़ती हुई कट्टरता पर बात करते हैं। वे धर्म और मनुष्य या कि ईश्वर और मनुष्य के बीच के सम्बन्धों को समझने की कोशिश करते हैं। वे दुनिया भर में फैल रहे दक्षिणपंथ पर बात करते हैं, धर्म जिसका अनिवार्य तत्त्व बनकर प्रकट हुआ है। वे अपने हत्यारे और साहित्य के बीच कोई पुल खोजने की कोशिश करते हैं जो कहीं नहीं मिलता। इसी क्रम में जब ‘ए’ कहता है कि “मुझे समझने की कोशिश मत करो। तुम मुझे समझने के लायक नहीं हो।“ तो रुश्दी का जवाब है कि – “लेकिन मुझे कोशिश तो करनी होगी क्योंकि सत्ताइस सेकेंड तक हम दोनों बहुत अंतरंग हो गए थे। तुमने मौत का हथियार थाम रखा था और मैंने जिंदगी का। यह एक गहरा जुड़ाव है।“   

यह काल्पनिक संवाद पढ़ते हुए मुझे ओरहान पामुक के विश्वविख्यात उपन्यास ‘स्नो’ का वह हिस्सा याद आया जिसमें एक हत्यारे और एक प्रिंसिपल के बीच का संवाद है, जहाँ इस संवाद के बाद प्रिंसिपल की हत्या होनी है। चाकू में यह काम संवाद के पहले ही हो चुका है। रुश्दी अपने हमलावर को उसके समूचे भीतरी-बाहरी संसार के साथ समझना चाहते हैं और यहाँ तक पहुँचते हैं कि “जब द सैटेनिक वर्सेज और उसके लेखक पर विपत्ति आई थी, उन दिनों मैं एक बात कहा करता था : उस पुस्तक पर बहस को समझने का एक तरीका यह था कि यह ऐसे लोगों के बीच थी जिसमें से एक का सेंस ऑफ ह्यूमर था और दूसरे का नहीं। मैं तुम्हें अब देखता हूँ मेरे नाकाम कातिल, पाखंडी हत्यारे, मेरे साथी, मेरे भाई। तुम मुझे मारने की कोशिश कर सकते हो क्योंकि तुम हँसना नहीं जानते।“

भारत की याद इस किताब में एक पीड़ादायी आह की तरह लगातार बनी हुई है। जब रुश्दी अपने ऊपर हुए हमले को लेकर दुनिया भर के राजनीतिक नेतृत्त्व की प्रतिक्रियाओं की बात कर रहे होते हैं तो भी अनायास ही कह उठते हैं, “भारत, मेरी जन्मभूमि और मेरी गहरी प्रेरणा, को उस दिन कहने के लिए कोई शब्द नहीं मिले।“ जाहिर है कि मेरे जैसे अनेक लोगों की प्रतिक्रियाओं या कि सोशल मीडिया पर की गई टिप्पणियों तक रुश्दी की पहुँच कैसे होती! जब वे स्वस्थ हो रहे होते हैं उस समय का यह प्रसंग देखें - “14 अगस्त से 15 अगस्त के बीच की दरमियानी रात का मेरे लिए हमेशा एक खास महत्व रहा है। 1947 में इस समय, भारत ने ब्रिटिश शासन से आजादी पाई थी। यही वह समय था जिसमें मेरे कल्पित चरित्र सलीम सिनाई, जो ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ का प्रतिनायक और वाचक था, पैदा हुआ था। मुझे भारत के स्वतंत्रता दिवस को ‘सलीम का जन्मदिन’ कहने की आदत थी। लेकिन इस साल स्वतंत्रता दिवस की अधिक निजी अहमियत भी थी। 15 अगस्त, सोमवार तीसरा दिन था। इस दिन यह स्पष्ट हो गया कि मैं जिंदा रहने वाला हूँ। इसे ऐसे कहते हैं : जीने के लिए मैं स्वतंत्र हो जाऊँगा। यही वह स्वतंत्रता थी, जिसमें उस वक्त मेरी दिलचस्पी ज्यादा थी।“

एक और जगह पर वे लिखते हैं कि “मैं मूल रूप से भारत से हूँ। एक धर्मनिरपेक्ष भारतीय मुस्लिम परिवार से। मेरे पास एक भारतीय दिमाग है और बाद में एक ब्रिटिश दिमाग है और अब, शायद, हाँ, एक अमेरिकी दिमाग भी है।“ यही नहीं किताब के आखिरी हिस्सों में अपने नए उपन्यास ‘द विक्ट्री सिटी’, जो दक्षिण भारत के प्रसिद्ध विजय नगर साम्राज्य के बारे में है, रुश्दी लिखते हैं कि “सबसे बढ़कर, मुझे भारत में पुस्तक की सफलता पर गर्व था, जहाँ इसके बारे में ज्ञान, समझ, उत्साह और प्रेम के साथ बात की गई थी। संभवतः मेरे जन्म के देश में ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ के बाद से इस किताब ने सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था। पश्चिमी पत्रिकाओं में लिखने वाले भारतीय आलोचकों ने भी प्रशंसा की थी।“ जब वे सैटेनिक वर्सेज के प्रकाशित होने के बाद पैदा हुई हलचल पर बात कर रहे होते हैं तो सबसे ज्यादा दुख देने वाली बात यही होती है कि “मुझे उन लोगों ने खारिज कर दिया जिनके बारे में मैंने लिखा था – मेरा ख्याल है कि मैंने बड़े प्यार से ऐसा किया था। मैं ईरान के हमले से उबर सकता था। यह एक क्रूर शासन था और मेरा इससे कोई लेना-देना नहीं था, सिवाय इसके कि वह मुझे जान से मार दे। भारत और पाकिस्तान तथा यूनाइटेड किंगडम में दक्षिण एशियाई समुदायों से मिल रहे विरोध को सहन करना वाकई बहुत कठिन था। वह घाव आज तक ठीक नहीं हुआ है... पर यह मेरी जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। यदि मेरे प्रति शत्रुता जारी रहती है तो ऐसा ही हो। मैंने कल्पना और साहित्य की दुनिया में अपना घर बना लिया और जितना मुझसे हो सकता था, उतना बेहतर काम करने की कोशिश की।“

यह किताब दोबारा अपने पैरों पर खड़े होने के पहले उस उस मानवीय दर्द के बारे में भी है जो ऐसी स्थिति में कोई शारीरिक या कि मानसिक तौर पर भुगतता है। इस हद तक कि ये चीजें आपके सपनों तक में घुसकर अपना एक डरावना संसार रचने लगती हैं। रुश्दी इस दौरान अपनी मानसिक और शारीरिक स्थितियों के बारे में जिस तरह से बेबाक होकर लिखते हैं वह अपनी जगह है पर उनकी पीड़ा उन्हें अपनी स्थितियों के एक दारुण बयान की तरफ ले जाती है जहाँ वह अपने डॉक्टरों का उनके कामों के आधार पर नामकरण कर रहे होते हैं और अपनी तरह तरह की तकलीफों को बताते हुए थोड़ा कॉमिक होने की तरफ बढ़ते हैं पर स्थितियाँ इस कदर असहनीय हैं कि रुश्दी जैसा लेखक भी उन्हें किसी भाषाई चमत्कार से छुपा नहीं पाता।

खुशी की बात है कि रुश्दी उस हमले से बाहर निकल आए हैं। ‘चाकू’ बाहर आने की एक मानीखेज रचनात्मक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में तीन बातें हैं जो लगातार एक दूसरे में गुँथी हुई हैं। लिख पाने की चाह, उसकी राह में खड़ी मृत्यु और मृत्यु का रास्ता रोके हुए प्रेम। मेरे लिए सलमान रुश्दी को पढ़ना हमेशा ही एक विलक्षण अनुभव रहा है। यह किताब भी वैसी ही है। मेरे लिए वे बड़े लेखक तो हैं ही, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बड़े नायक हैं। सीधी सी बात है कि वह धर्म जो हर चीज में अपनी टाँग अड़ाए रखना चाहता है उसे किसी की जान लेने का हक किसने दिया है। कोई किताब आपके लिए पवित्र है, कोई व्यक्ति आपके लिए आसमानी है तो आप उसकी जय बोलते रहिये पर किसी को ये दोनों बातें सही नहीं लगती हैं तो यह कहना और लिखना भी उसका हक है। रुश्दी के शब्दों में मखौल उड़ाने का भी। पर जाहिर है कि राज्य-सत्ता से तो एक बार को फिर भी बचा जा सकता है पर धर्म की आतंककारी सत्ता से बचना दिन पर दिन कठिन होता जा रहा है। जो समय चल रहा है उसमें और कितने लोग इस कीमत को चुकाएँगे किसी के लिए भी यह बता पाना कठिन ही होगा।

पुस्तक- चाकू (Knife का हिंदी अनुवाद) 
लेखक- सलमान रुश्दी
अनुवाद : मंजीत ठाकुर
प्रकाशन – पेंगुइन स्वदेश                      
मूल्य – रु. 399.00

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