किसी शहर पर लिखी गई किताब, जो एक शृंखलाबद्ध तरीके से लिखी जा रही किताबों के सिलसिले में से एक हो, को देखते हुए अपने आप को इस पूर्वग्रह से बचा लेना मुश्किल है कि किताब एक औपचारिक किताब भर होगी। जिसे पढ़ते हुए आप उस शहर का मोटा-मोटी परिचय प्राप्त कर सकेंगे। वाम प्रकाशन की शहरों को केंद्र में रख कर प्रकाशित हो रही किताबों की शृंखला ‘ज़ीरो-माइल’ की कड़ी में प्रकाशित प्रभात सिंह की किताब ‘ज़ीरो माइल बरेली’ पढ़ना शुरू करने के साथ ही पाठक का यह पूर्वग्रह ध्वस्त होने लगता है और किताब यह स्थापित करती है कि औपचारिकता के आवरण में भी शहर का आत्मीय और मर्मस्पर्शी बयान हो सकता है। किताब खत्म होने के साथ यह अनुभव होता है इसे तो तवील होना था।
प्रभात सिंह वरिष्ठ पत्रकार, संपादक, छायाकार और अनुवादक हैं और बरेली उनकी रिहाइश है। बरेली पर लिखी इस किताब को उन्होंने बारह अध्यायों में बांटा है, जिसमें बरेली के इतिहास और वर्तमान, भूगोल और परिवेश, और समाज और संस्कृति को दर्ज किया गया है।यहाँ दर्ज करना बताने वाली भाषा में नहीं है, बल्कि दिखाने वाली भाषा में है। महसूस कराने वाली भाषा में है। किताब क्या है यह वह भूमिका में स्पष्ट कर देते हैं जिसमें वह बरेली के नाम, बरेली की हस्तियों, बरेली के बदलते लैंडस्केप का हवाला देते हुए आखिर में कहते हैं- “...हर शहर, गाँव और क़स्बे का स्थानीय इतिहास तो होता ही है, और उसे दर्ज करने से इतिहासकार भले चूक जाएं, लोक उसे अपने स्मृति में संजोए रखता है। तो इस किताब में जो कुछ भी है उसे लोक स्मृति का एक छोटा-सा हिस्सा मान सकते हैं।”
शुरूआत के चार अध्यायों में दर्ज बरेली के मिथक और इतिहास के संक्षिप्त और दिलचस्प ब्यौरों से वाकिफ होते हुए जब हम चौथे अध्याय में पहुँचते हैं तो बरेली के बाजार या बाजार में बदलती बरेली दिखती है। इस अध्याय के उपशीर्षकों को देखें- पांच पैसे का सौदा औऱ मिठाई मुफ्त, जलेबी वाले लाला, महरियों को भट्टी का सहारा, हजामत के अड्डे और सस्ते गल्ले की दुकान, मछली बाजार यानी शुभ शकुन, फेरीवालों की आवाज़ से गूँजती दुपहरिया, मयकदे की महक, उजाड़े के साल में आए, मगर खुशहाली लाए, बी.आई. बाजार यानी शहर की मॉल रोड, बदले शहर का अक्श बने नए ठिकाने और विकास की रफ्तार और भीड़ बेशुमार। इन शीर्षकों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि लेखक शहर के बदलते हुए मिजाज को महसूस कर रहा है। आत्मीयता के संबंधों वाले बाजार से स्मार्ट बाजार में बदलता जा रहा है और भीड़ बेशुमार है, जिसमें पैदल चलना भी मुहाल है। विकास की जो बेतरतीबी है और इसमें से लोग गायब हैं और अधिकांश व्यक्तिहीन व्यक्तित्व ही बचे रह गए हैं।
यह किताब बरेली को उसके पूरे विकास यात्रा में लोकेट करने की कोशिश है, उसकी रवानी को पकड़ते हुए। बरेली शहर जिसमें अलग-अलग समुदाय, धर्म, जाति के लोग रहते हैं और जिन्होंने बरेली के अलग अलग हिस्से का अपनी तरह से विकास किया है। यहाँ अन्य शहरों की तरह गलियां हैं, चौक हैं, बाजार हैं, बाजार की मशहूर दुकाने हैं। इसी तरह अलग-अलग पर्व-त्योहार हैं जिसमें होली भी है और मोहर्रम भी। लेकिन अनोखी बात है होली में रामलीला का आयोजन। साहित्यकार मधुरेश औऱ सुधीर विद्यार्थी के के हवाले से यहां लेखक बताता है कि हिन्दू धर्मावलंबियों और कुछ मुस्लिम संतों ने मिलकर हंगामा हुड़दंग रोकने और सौहार्द्र बरकरार रखने की नीयत से यह पहल की। और इसके बाद यह जानने में कठिनाई नहीं होती कि इस तरह की पहल करने वाले वाले शहर में दंगा क्यों नहीं होता, जिसके बारे में विदेशी शोधार्थी को जानकर हैरानी होती है।
लेखक की नजर कुछ वैसे बदलावों पर भी है, जिसने शहर की शांति को भंग किया है। जिनमें से एक है डीजे कल्चर। “अब डीजे का मतलब है-ढेर सारे बड़ा बड़े साउंड बॉक्स का समूह, जिनसे निकलने वाली ध्वनियाँ समझ में भले ना आए मगर कलेजा काँप उठे और कमज़ोर खिड़की दरवाजे हिलने लग जाएं...”. डीजे केवल शादी और समारोहों में बजने वाली शय नहीं है, अब यह धार्मिक आयोजनों के इर्द-गिर्द पनपने वाले बाजार और आक्रामकता का हिस्सा है। 'ईद मिलाद उन नबी' के मौक़े पर शहर में दो दिनों तक जुलूस निकालने की रवायत बहुत पुरानी नहीं है, 1981 में ही शुरू हुई मगर इसमें डीजे का शुमार नया है। जुलूस के रास्ते भर ख़ूब रौशनी होती है, डीजे की धमक से साथ रंग बदलने वाली रौशनी का इंतजाम होता है सो अलग... सौ से ज्यादा अंजुमनें शिरकत करती हैं। इतनी अंजुमनों के लिए डीजे शहर में मयस्ससर नहीं हो पाते तो हरियाणा, पंजाब, और दिल्ली से मंगाते हैं.... और सावन के दिनों में तो साउंड बॉक्स भाड़े पर देने वाले खूब चाँदी काटते हैं। काँवड़ ले जाने का उद्यम अब एकाकी यात्रा वाला नही रहा, सामूहिक कर्म बन गया है।”
हम जानते हैं कि हिंदी या उर्दू भाषी शहर में ही भाषा के भीतर अनेक भाषाएं या इन्हीं भाषाओं के बोलने वालों का अलग-अलग लहजा मौजूद होता है और यह लहजा भी किसी शहरी को उस शहर का होने की एक पहचान देता है। बरेली की भाषा की पड़ताल करते लेखक कहता है- “विद्वान मानते हैं कि बरेली की ज़बान ब्रज, हिंदी और उर्दू से मिलकर बनती है, पर यह अकादमिक निष्कर्ष है। यह सही है कि खड़ी बोली बरतने वालों के साथ ही, मुसलमानों और कायस्थों की भी एक बड़ी आबादी होने के नात उर्दू यहाँ की आम ज़बान में घुली- मिली है...” और यहाँ के लहजे में बुशर्ट, बुकसैट है। पायजमा, पैजामा। तह-बंद, तैमद। सिगरेट, सिरगट और लखनऊ नखलऊ... और इसी तरह की कई चीजें हैं, जिन्हें यह किताब बताती है।
समरूपीकरण के दौर में स्मार्ट शहर में तब्दील हो जाने की जल्दीबाजी में डाले गए शहरों की अंदरूनी तासीरें ही उन्हें एक दूसरे से अलग बनाती हैं.. कैसे अलग बनाती है वह है भाषा, लहजा, लोक रिवाज और बरताव आदि। वरना बहुमंजली इमारतों, मल्टीनेशनल फुड चेनों और मॉल कल्चर में तो सारे शहर एक जैसे होते जा रहे हैं। पुराने और नए के बीच इस दबाव और परिवर्तन को लेखक ने बड़ी शिद्दत से दर्ज किया है और पाठक यहाँ पढ़ने में भूल नहीं करेंगे कि लेखक का राग पुराने के प्रति औऱ संभवत: बुनियाद के प्रति है। बदलाव के इस दौर में शहर जो खोते जा रहें हैं, उसकी कसक उसकी भाषा में देखी जा सकती है। लेकिन पढ़ते हुए पाठक यह भी गौर करेगा कि नॉस्टैलजिया से युक्त इस लेखन में शहर की आलोचना भी विन्यस्त है और इस आलोचना में खुद को भी बरी नहीं किया गया है।
बदलाव का एक पहलू है, नामों का बदलाव। इस बारे में लेखक दर्ज करता है “यों शेक्सपियर को ही लगता था कि नाम में क्या रखा है, वरना यह तो हम सब जानते ही हैं कि नाम अपने यहाँ बड़ा मसला है, ख़ासकर नेताओं के लिए- उनकी राजनीति का निहितार्थ है, और इस चक्कर में लोक में पहचाने जाने वाले ठिकानों के नाम बदलना उनका प्रिय शगल है। इधर स्मार्ट सिटी के नाम पर शहर का चेहरा बदलने की हड़बड़ी में अपना यह एजेंडा वह भूले नहीं।” इस क्रम में डेलापीर हुआ, आदिचौक। कोहड़ापीर हुआ कायस्थ चौक। आइजेटनगर हुआ इज्जतनगर। शहामतगंज, श्यामगंज... लेकिन नाम इतनी आसानी से बदलता नहीं, इसलिए 'अयूब खाँ चौराहा' लोक स्मृति में 'पटेल चौक' नहीं बन पाता। नामों से पुराना इतिहास और शहर की समृद्धि जुड़े हैं और इधर बीच पुराने नामों को बदलने के पीछे राजनीति भी है। लेखक इस राजनीति की बारीक पहचान रखता है। शहरों के किस्सो से, स्मृतियों से और पहचान से किसी समुदाय विशेष को धोने औऱ पोंछने की कवायद का प्रतिवाद करते है हुए यह किताब कहती है कि नाम हुक्मरान नहीं आवाम तय किया करते हैं इसलिए तमाम कोशिशों से भी मिटाए नहीं जा सकते।
इस किताब की भाषा और तर्जे-बयान में एक समन्वयवाद है। उर्दू का लहजा हिंदी भाषा की किताब पर स्पष्ट है औऱ संभवत: इस तरह की भाषा के चुनाव में ही इस शहर की कहानी को कहा जा सकता था। लेकिन किताब की भाषा एक नवीन राह भी पकड़ती है जहाँ वह शहर के भाषा के लहजे के बारे में उसी भाषा में बताने लगती है, जैसा कि शहर के लोग बोलते हैं और दूसरे शहरों से अपनी बोली को भिन्न रखते हैं। लहजे में तंज और चुटकी लेने का अंदाज भी अक्सर ही मिल जाता है और खासकर उन जगहों पर जहाँ लेखक निर्णयात्मक वाक्य लिखता है। “निदा फ़ाज़ली ने कहा कि- 'धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो/ जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो। बरेली वालों ने इस बात पर इतना एतिबार किया कि वाकई किताबों को हटाकर जिंदगी को समझने में लगे हैं।”
यहां किताब लेखन के लिए शोध का सहारा लिया गया है, लेकिन शोध की भाषा से किताब का स्पर्श नही है और शोध को दिलचस्प आख्यान में कुशलता से बदल दिया गया है। इस तरह की किताबों को हम भाषा के बरताव के लिए नहीं पढ़ते, लेकिन इस किताब को इसके लिए भी पढ़ा जाना चाहिए।
‘झुमका, सुरमा और बर्फी’ शीर्षक अध्यया में बरेली की शोहरत का झुमके औऱ बर्फी के हवाले से जिक्र किया गया है और पड़ताल की गई है कि ‘मेरा साया’ फिल्म के चर्चित गीत के आने के बाद झुमके को लेकर कैसी-कैसी कथाएं बनी। झुमके का बरेली से कोई जैविक संबंध है भी या नहीं? इसी तरह बरेली से बर्फी का ताल्लुक जोड़ना किसी अनुप्रास का आकर्षण है या कोई और बात? बरेली के मशहूर लोगों के जिक्र में प्रियंका चोपड़ा हैं, जिनके माता-पिता का संबंध बरेली से था। लेकिन जिनका संबंध नहीं था उन लोगों से भी बरेली के लोगों ने अपना नाता जोड़ा है, जैसे कि अमिताभ बच्चन से, जिनके नाम पर फैन क्लब और राजनीतिक पार्टी बनी है।
किताब में संगीत, साहित्य और रंगमंच की दुनिया भी है, जिसमें बताया गया है कि गुजरते वक्त के साथ संगीत और साहित्य की चमक फीकी पड़ी है तो रंगमंच की दुनिया में चमक आई है। इन सबके साथ अखबार की दुनिया है, उसके पत्रकारों और संपादकों की दुनिया है। और इस क्रम में लेखक पत्रकारिता की बदलती हुई दुनिया को भी याद करता है। “टेलीविजन के न्यूज चैनल बढ़ते जाने, चौबीसों घंटे ख़बरें और ब्रेकिंग न्यूज़ का चलन अख़बारों पर कैसे भारी पड़ा, इसके लिए सर्कुलेशन के आंकड़ों का विश्लेषण के बजाय न्यूज़रूम में काम करने वालों के जुनून और जज़्बे पर ग़ौर करने से भी बात समझ में आ सकती है। न्यूजरूम की वह गहमागहमी, बहस-मुबाहिसे की जगह अब मशीनी ढंग के कामकाज और रिपोर्टर के लेगवर्क के विकल्प के तौर पर वाट्सएप के इस्तेमाल ने अखबार पढ़ने वालों का भी नुकसान ही किया है।” साहित्यकारों के विवरण में यहां शहर का साहित्य के प्रति रवैया, किताबों की जगह और उनकी सिमटती हुई जगहों के बारे में बताते हुए हर दौर के साहित्यकारों का जिक्र है, जिसमें राधेश्याम कथावचक हैं, वीरेन डंगवाल हैं, वसीम बरेलवी हैं औऱ खालिद जावेद हैं। किसी शहर में ऐसे लोग भी होते हैं जो उसी शहर में हो सकते हैं, जिनसे शहर बनता है और वह यूं हाशिये पर होते हैं लेकिन लोकस्मृति में दर्ज रहते हैं इस किताब में भी ऐसे लोग है मसलन पातीराम, कमाल भाई, धरती पकड़, नवाब शफ्फन आदि। इनकी कहानियों कहते हुए लेखक शहर के भीतर तरह-तरह की अंतरश्रेणीयता की भी कथा कहता है।
बरेली शहर पर इस किताब को पढ़ते हुए लगता है कि इस शहर की हकीकत भारत और खासकर हिंदी प्रदेश के अन्य शहरों की तरह ही है, जिसे छोटा शहर कहते हैं। बाजार, संस्थान, खाने के ठीये, मेले, पर्व, त्यौहार, शहर का बदलता हुआ नक्शा आदि सब अन्य शहरों के जैसे है लेकिन इस यकसानियत के बावजूद हर शहर अपनी निजी पहचान भी रखते हैं।
एक ही अध्याय में सिनेमाघरों और मंदिर का जिक्र है। क्या यह महज संयोग है कि सिनेमाघरों के नामों में भी कई बार मंदिर लगे रहते थे? वैसे बरेली में मंदिर नाम का कोई सिनेमाघर नहीं है, लेकिन कई सिनेमाघरों के पास इबादत को कोना मौजूद है और सिनेमाघर भी एक लंबे अरसे तक आमजन के लिए मंदिर जैसा ही रहा है जहाँ जाकर वह कल्पना की दुनिया में अपने को भूलता है। शहरों में अब सिनेमाघर घटने लगे हैं लेकिन इबादत स्थल बढ़ने लगे हैं, हर मजहब के, बरेली में भी।
शहर में हम रहते हैं और हमारे भीतर भी शहर रहता है। एक बरेली इस किताब में है और वह बरेली 'लेखक के भीतर की बरेली' से कागज पर आया है। उल्लेखनीय बात यह है कि आज जब किसी जगह की पहचान पर एक तबके का दावा मजबूत कर, अन्य के दावों को खारिज किये जाने की होड़ है। ऐसे समय में यह किताब इस शहर के भीतर रहने वाले, बनाने वाले हर वर्ग के लोगों को याद करती है। और जोर देकर बताती है कि शहर का भविष्य इस बहुलतावाद में ही है।
यह किताब यह महसूस करवाती है कि बदलाव की होड़ में मुब्तिला शहर का लैंड स्केप बदलने से किनको आराम होगा और किन्हें परेशानी? क्या साधारण लोगों की शहर में जगह बनेगी? शहर में कुछ पेशे होते हैं, उन पेशों का क्या होगा? शहर के बाशिंदो का और बाहरियों का बदलते शहर से क्या रिश्ता बनेगा? और इन्हीं मायनो में यह किताब दस्तावेजी किताब बन जाती है। औपचारिक नहीं रहती।
ज़ीरो-माइल बरेली
लेखक- प्रभात सिंह
प्रकाशक- वाम प्रकाशन
मूल्य - 250