हिंदी की लिखत-पढ़त की दुनिया में लंबे समय बाद कुछ ऐसी किताबें आई हैं, जिनकी दुनिया का केंद्र गाँव है। गुज़श्ता आधी सदी से हिंदी के कथा या कथेतर साहित्य में 'आधुनिक भाव-बोध ' या ' समकालीन दुनिया' की कथित 'ऊब, घुटन, संत्रास, अज़नबियत, एकाकीपन भयावहता और अवसाद ' पेश करने के दुराग्रह में गाँव लगभग हाशिए पर चला गया था और इसके साथ चली गयी थी -गाँव की सहजता, सरलता, ताज़गी, सादगी, प्राकृतिक लालित्य, माधुर्य और गंवई आंचलिकता। डॉ. रामबक्ष जाट की 'मेरी चिताणी' कथेतर गद्य की वो कृति है,जिसमें गाँव ही केंद्र में है। 

चिताणी में गाँव के बाहर नगर भी है, महानगर भी, देश भी है, विदेश भी; लेकिन धुरी गाँव ही है। वह अंत:सलिला है। हर जगह निरंतर प्रवाहमान। ‘मेरी चिताणी' की मानसिक रूपरेखा तब बननी शुरू हो गयी थी,जब आदमी उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच जाता है, जहाँ से आगे की यात्रा पर लगभग विराम लग जाता है। 

ज़ाहिर है, यही वो मुकाम होता है जहाँ आदमी नॉस्टेल्ज़िक होकर अतीतानुरागी बन जाता है। यही वो दशा होती है जब स्मृतियां सहचरी बन कर उसे 'फ्लेशबैक’ में ले जाती हैं और वहाँ से अतीत में अब तक जीये गए जीवन के अलग-अलग 'फ्रेम' से चुन-चुन कर दृश्यों को इकठ्ठा करती जाती हैं। यहीं से बनना शुरू होता है स्मृतियों का कोलाज। 'मेरी चिताणी' ऐसी ही स्मृतियों का कोलाज है। इस कोलाज में समय के साथ करवटें लेता समाज भी है। ‘चिताणी’ को भारत के बदलते समाज और समाज शास्त्र के नज़रिए से भी देखा जा सकता है।

भारतीय गाँवों और ग्रामीण समाज को समझने के लिए आर्थिक, राजनीतिक बदलावों के साथ-साथ बदलते सामाजिक पहलुओं और मानवीय व्यवहार को समझने के लिए जिस सहज बोधगम्य बुद्धि और पैनी नज़र की जरूरत होती है, 'मेरी चिताणी' में वह निगाह साफ़ नज़र आती है। 'चिताणी' किसानों के बैल से लेकर ट्रैक्टर तक, बारिश,  कुएँ से लेकर ट्यूबवैल तक की यात्रा है, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों से बदलते समीकरणों का लेखा-जोखा है। 

गाँवों को केंद्र में रखकर समाज शास्त्रीय अकादमिक अध्ययन करने वालों में प्रो. श्यामाचरण दुबे,एम एन श्रीनिवास,आंद्रे बीटिल, एफ जी बैली, ए सी मेयर,बी एस कॉन, क्रेग जेफ्री, रोजर जेफ्री और जेंस लेक के अलावा सुधा पई और सतेंद्र कुमार के नाम प्रमुख हैं। सतेंद्र कुमार के 'बदलता गाँव, बदलता देहात: नयी सामाजिकता का उदय ' में पश्चिमी उतर प्रदेश के जाट बहुल गाँव खानपुर को 'एथनोग्राफी' अध्ययन का विषय बनाया गया है। ' चिताणी' भी जाट बहुल गाँव है।

वस्तुतः प्रो.श्यामाचरण दुबे की 'An Indian Village ( एक भारतीय ग्राम ) ' ग्राम -अध्ययन की भारत मे पहली पुस्तक है। इस पुस्तक के अधिकांश भाग लिखे गए 1952-53 में लंदन में, जहाँ प्रो.दुबे लंदन विवि.के स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ़्रीकन स्टडीज़ में भारतीय मानव-विज्ञान के अतिथि प्रोफेसर थे। यह पुस्तक समाज-शास्त्र की दुनिया में एक 'क्लासिक' का दर्जा हासिल कर चुकी है। 'एक भारतीय ग्राम ' वस्तुतः एक अकादमिक अनुशासन के निर्धारित सांचों में बंधा समाज शास्त्रीय अध्ययन है जबकि ' मेरी चिताणी ' जीवन की पाठशाला के संचित अनुभवों और स्मृतियों का साहित्यिक शैली में लिखा लेखा है। 

यह अकादमिक जगत की शुष्क अनुशासनबद्ध नहीं, स्वच्छंद सरस-सलिल धारा है,जो पूर्व-निर्धारित बने-बने मार्ग पर नहीं बहती बल्कि अपने मन की मर्ज़ी से इठलाती- बल खाती इधर-उधर घूमती-फिरती है। इसीलिए आप देखेंगे कि 'चिताणी' में कोई प्रसंग चल रहा है तो वह सीधे अंत तक नहीं पहुंचता, बीच-बीच में कथा की अंतर्कथा भी आती तो क्षेपक पर क्षेपक भी रोक देते हैं। 

दीगर यह भी कि यह सब आपको खटकता नहीं,अटकता नहीं, आप खीजते-चिढ़ते-भुनते या झुंझलाते नहीं, बल्कि यह किस्सागो शैली आपके भीतर औत्सुक्य जगा देती है, आप थोड़ा आगे खिसक कर लेखक के और करीब आकर बैठ जाते हैं, कुतूहल भाव से -...." फिर ..? फिर क्या हुआ .? " वाले अंदाज़ में। 

rambaksh jaat
रामबक्ष जाट (किताब के लेखक)

'मेरी चिताणी' में रामबक्ष जी के स्मृति का केंद्र मारवाड़ के नागौर जिले का गाँव चिताणी है; उधर कथाकार रामानंद राठी ने अपनी कृति ' गूँती गाथा ' में भी अपने गाँव गूँती को भावपूर्ण आदरांजलि दी है। ज्ञानचंद बागड़ी का उपन्यास 'आख़िरी गाँव ' का रायसराना गाँव भी हरियाणा-राजस्थान के सीमावर्ती राठ अंचल का ही प्रतिनिधित्व करता है। इन सबके बीच एम एम चन्द्रा ने भी अपने उपन्यास ' यह गाँव बिकाऊ है ' में नंगला गाँव की व्यथा-कथा लिखी है।

सैद्धांतिक रूप से 'मेरी चिताणी' की विधा की बात करना बड़ा मुश्किल काम है। दरअसल यह तो खुद लेखक को भी मालूम नहीं ! चिताणी क्या है ? - "..यह चिताणी का इतिहास नहीं है…..इसे संकलन भी नहीं कह सकते...यह कोई शोध-ग्रंथ नहीं है।...फिर इसमें क्या है? इसमें उतर भारत का गाँव है… “ यह गाँव लोक-परंपरा, स्मृति, अनुभव और इतिहास से निर्मित हुआ है….वह विचार के रूप में जिंदा है। मेरे अंदर भी है। मैं जहाँ जाता हूँ, चिताणी मेरे साथ चल देती है.." जाहिर है - यह चलचित्र सरीखी है..अतीत के चलचित्र ! स्मृति -बिम्ब ! दुनिया मे आँख खोलते ही सबसे पहले जाति दिखाई देती है। सब अपनी ही जाति के। गाँव मे पच्चीसेक घर हैं। सब जाट ही जाट ! गाँव में जाति है तो राजनीति भी होगी। है भी। राजनीतिक चालें भी हैं। 

यह सियासी चाल ही जाटों के गाँव से एक नायक (जनजाति) को वार्ड पंच बना देती है। फिर भी गाँव गाँव ही है। गाँव मने सचमुच का गाँव ! लोककथाओं से लेकर प्रेमचंद के कहानियों, उपन्यासों वाले गाँव से लेकर सन 1950-55 तक की फिल्मों वाला गाँव। जिसमें खेत हैं, खलिहान हैं, हल है, बैल है, नाड़ी है,पाल है, बारिश-अकाल, वाद-विवाद-संवाद, गोना-ब्याह हैं, मायरा है, मृत्युभोज है ! झगड़े हैं, लाड़ है, प्यार है,खुशी है, गम हैं, आस्था है, 

भक्ति, विश्वास, मान्यताएं, परम्पराएं हैं और रीति-रिवाज़ हैं ! काफ़ी चीजें नहीं भी हैं। ‘चिताणी’ में न स्कूल है न पटवारी, न बस है न अस्पताल, न तालाब, न नदी, न डाकघर, और तो और नाई, कुम्हार, लुहार, मजदूर भी नहीं…! यहाँ तक कि ' मेरी चिताणी ' का विशिष्ट कथानक भी नहीं है। कोई एक खास कथा-कहानी तो इसमें  है ही नहीं। यह तो एक स्मृति-कोश है। यहाँ स्मृतियों से कई कथाएं, उन कथाओं से अंतर्कथाएं निकलती हैं, फिर क्षेपक तो हैं हीं। इन कथाओं-अंतर्कथाओं को कहने-सुनाने का तरीका भी ठेठ गाँव की सादगी जैसा है। क़िस्सागोई अंदाज़ में चौपाल पर बैठ कर कहन-सुनन वाली शैल। ‘एथनोग्राफी ‘ का दस्तावेज़ है यह। 

स्त्री-अस्मिता के सुलगते सवाल, दहकते जवाब

‘मेरी चिताणी ' को अन्य बातों के अलावा जो ख़ास बात इसे वैशिष्ट्य प्रदान करती है,वो है एक छोटे-से गाँव के बहाने आधुनिक और समकालीन समय के महत्वपूर्ण विमर्शों में से एक स्त्री-विमर्श की गहन पड़ताल। ‘चिताणी’ का समाज मुख्यतः और मूलतः जाट समाज है जो कि परंपरा से कृषक और पशुपालक समाज है। जाट समाज के प्रति एक बंधी-बंधाई अवधारणा यह है कि यह समाज अपनी परम्पराओं और वैचारिक मूल्यों के प्रति एक सीमा तक कट्टर समाज है। 

‘चिताणी’ इस धारणा को ध्वस्त करती है। न केवल सैद्धांतिक बल्कि व्यावहारिक मिसालें प्रस्तुत कर रामबक्ष नाम लिये बग़ैर मेरी वोल्स्टोनक्राफ्ट, क्रिस्टिन द पिज़न,इनरिक कार्नेलियस एग्रिप्पा,मोडेस्टा द पिज़ो,मेरी ली जार्स द गोर्ने, एनी ब्रेडस्ट्रीट,जर्मेन ग्रीयर,सिमोन द बोउआर जैसी चर्चित पाश्चात्य स्त्री-विमर्शकारों से भिन्न और अलहदा एक ऐसा समाज सामने लाते हैं जो इन विदुषियों के स्वप्नों और धारणाओं से कहीं एक बेहतर और खुला समाज है। 
अगर स्त्री अस्मिता को लेकर इनके पास सुलगते सवाल हैं तो ‘चिताणी’ में उनके दहकते ज़वाब। हाँ, कुछेक मुद्दों पर वे कैरोल हैनिच के महत्वपूर्ण वक्तव्य ' पर्सनल इज़ पॉलिटिकल' से ज़रूर इत्तिफ़ाक़ रखते हैं।

‘चिताणी’ के जाट समाज की स्त्री का सशक्तीकरण नारीवादियों के स्त्री सशक्तीकरण की पहली, दूसरी से लेकर से पांचवी 'लहर' तक से सदियों पहले ही हो चुका था। अपने गाँव और समाज की स्त्रियों के बारे में रामबक्ष लिखते हैं - " औद्योगीकरण के पहले भारतीय ग्रामीण समाज में, विशेष रूप से जाटों के परिवार में स्त्री-सशक्तीकरण की कोई ज़रूरत थी, यह मुझे आज भी नहीं लगता। मुझे कहीं भी अपने समाज,अपने परिवार में स्त्री पीड़ित या दयनीय नहीं लगी।" 

स्त्री को पीड़ित, दयनीय,शोषित बनाने वाले जो मुख्य तत्व होते हैं, उनमें दहेज, तलाक, विधवापन, पुनर्विवाह की बंदिश, सती प्रथा और यौन-शुचिता। जाट समाज की स्त्रियों को इन बंद गलियों के विरूद्ध कोई लड़ाई लड़ने की ज़रूरत ही नहीं थी, क्योंकि- " हमारे गाँवों में स्त्रियों को तलाक और पुनर्विवाह करने की आज़ादी सदियों से रही है। इस अधिकार को पाने के लिए सवर्ण स्त्रियों को लंबा संघर्ष करना पड़ा। यौन-शुचिता का ब्राह्मणवादी आग्रह जाटों में नहीं मिलता। इसलिए हमारी स्त्रियों को सती-प्रथा जैसी बुराई से नहीं जूझना पड़ा, जिससे युगों तक बंगाल की स्त्रियां पीड़ित रहीं। दहेज की समस्या भी शहरी मध्यवर्ग की समस्या है। तलाक के समय पूर्व पति से उत्पन्न संतान - लारवाल - भी अपनी माँ के साथ नाते वाले घर मे आ सकती है। जाटों की स्त्रियों को कभी खुला यौन-उत्पीड़न झेलना पड़ा हो, ऐसा बहुत कम सुनने में आया है। हम दबंग जाति रहे हैं। कोई हमारी स्त्री पर अत्याचार नहीं कर सकता।” 

वे अपनी ‘दबंग जातीय अस्मिता के दर्प में’ जाने-अनजाने में दो संत कवयित्रियों मीराबाई (राजपूत) और करमाबाई (जाट) की तुलना भी कर देते हैं - " मीरा को भजन करना था, साधु-संगति करनी थी, इस कारण उसे कितनी प्रताड़ना झेलनी पड़ी। उसी ज़माने में संत करमा बाई हुई थी,उसे ऐसी किसी भी प्रताड़ना का सामना नहीं करना पड़ा।" सही है, इस तथ्य के बावजूद, कि, करमाबाई की खिचड़ी का वर्णन राजस्थानी ही नहीं, ओड़िया और सिंधी समुदाय के भजनों में भी मिलता है, फिर भी लोक और (साहित्य) शास्त्र में मीरा ज़्यादा चर्चित क्यों रही,इसका ज़वाब भी खोजना होगा। 

जात ही पूछो साधु की

स्त्री विमर्श में रामबक्ष जी असहमति की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते लेकिन जाति संबंधी उनकी स्थापना से आप असहमत हो सकते हैं। जाति व्यवस्था को लेकर उनके अपने अनुभव हैं -"गाँव में जातिवाद बहुत कम होता है, दूसरी चीजें ज़्यादा होती हैं।'' जातिवाद का उनका कैलकुलेटर चिताणी के 25 घरों की आबादी और एक वार्ड पंच (जिसमें जाट मतदाता नायक को पंच बना देते हैं) का चुनाव है। उनके इस मत के बावजूद भारतीय लोक का जीवनानुभव यह कहता है कि वस्तुतः आज भी पारंपरिक जान-मानस में जाति ही अवचेतन मस्तिष्क में छायी हुई है, विशेषकर ग्रामों में। 

भारतीय ग्रामीण समाज और जाति अध्ययन के विशेषज्ञ विख्यात समाज-शास्त्री एमएन श्रीनिवास ने 'Social Change in Modern India' में स्पष्ट रूप से कहा है कि "भारतीय सामाजिक ढांचे में तीन मुख्य तत्व होते हैं- जाति, ग्रामीण समुदाय और परिवार व्यवस्था।" ‘चिताणी’ से लेकर वाशिंगटन तक की यात्रा करने वाले और धन्नाराम जी के बाड़े की पायगां से शिक्षा की शुरुआत कर जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष रहकर रिटायर होने वाले डॉ. रामबक्ष जी को यह भी याद है कि ज्ञानरंजन कायस्थ हैं तो कोमल, सुकुमार कवि केदारनाथ सिंह राजपूत और हजारीप्रसाद द्विवेदी तो सनातनी हिन्दू ब्राह्मण ! 

ज्ञान की संस्थाएं-सत्ता का शिकंजा

'मेरी चिताणी' में गाँव के साथ-साथ एक दुनिया और भी है जिसके पन्ने इसके उत्तरार्ध में खुलते हैं। यों बीच-बीच में क्षेपक के रूप में या कोई प्रसंग आने पर कुछ पन्ने फड़फड़ाते रहते हैं। यह दुनिया है रामबक्ष जाट की साहित्य चेतना सम्पन्न विश्वविद्यालय के शिक्षक की अकादमिक दुनिया। अगर आप अकादमिक जगत के या उसमें दिलचस्पी रखने वाले हैं तो 'मेरी चिताणी' आपके लिए एक ज़रूरी किताब बन जाती है, जो आपको यह बताती है कि भारतीय विश्वविद्यालय अपने भीतर चलने वाली सियासी चालें, दांव-पेंच, पक्षपात, उलटबांसियां, उठा-पटक, खेमेबाजी, भाई-भतीजावाद और दुरभि-संधियों के अभेध दुर्ग बन चुके हैं। 

डॉ. रामबक्ष ने दो विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया और उन दोनों सहित चार विश्वविद्यालयों में अध्यापन भी किया, इसलिए इनमें आए प्रसंगों की प्रमाणिकता पर संदेह करने का कोई कारण नहीं बनता। विद्यार्थी काल में ही जोधपुर विश्वविद्यालय में उन्होंने अपने ही विभाग के शिक्षकों द्वारा प्रो.नामवरसिंह के विरूद्ध चलाए गए कुत्सित अभियान को जो देखा और महसूसा होगा, लेकिन वे आगे आने वाले परिदृश्यों के लिए तैयार हो गए होंगे, ऐसा इसलिए नहीं लगा कि जब डॉ. रामबक्ष जाट की बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्ति होती है रोहतक विवि.में। 

विश्वविद्यालयों में पदानुक्रम में वरिष्ठता का भविष्य के लिए काफ़ी महत्व होता है। यहां चयन में दूसरे स्थान पर रहे रामबक्ष जी को एक दिन विभागाध्यक्ष डॉ. शशिभूषण सिंहल से मालूम पड़ता है कि अब वे दूसरे से तीसरे स्थान पर खिसका दिए गए हैं। नीचे खिसकाने वाले उनके एक सहयोगी ही थे। बतौर एकेडेमिशियन पहले विश्वविद्यालय में ही उनके साथ ' खेला ' हो जाता है।

बीए, एमए के विद्यार्थी रहते हुए जोधपुर विश्वविद्यालय में प्रो.नामवरजी के साथ उन्हीं के शिक्षक सहयोगियों का कपटपूर्ण और अशोभनीय व्यवहार तो उनका आँखों देखी है। राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ यह पूरा प्रकरण जोधपुर विश्वविद्यालय के लिए एक कटु स्मृति है। एक ही कालखंड में जोधपुर विश्वविद्यालय में रहे अज्ञेय और नामवर सिंह के दौर में हिंदी पाठ्यक्रम में लगे राही मासूम रज़ा के 'आधा गाँव ' को अश्लील बता कर नामवरजी के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया गया था। जबकि हक़ीक़ी अंतर्कथा यह है कि नामवरजी के पाठ्यक्रम संबंधी एक निर्णय से कुछ निजी प्रकाशकों के व्यावसायिक हितों पर चोट पहुंची थी। मोहरे बनाए गए कुछ शिक्षक। 

इन शिक्षकों को 'आधा गाँव' में अश्लीलता अभी ही नज़र आई थी, अन्यथा पाठ्यक्रम में तो यह पिछले तीन साल से थी। सत्यकथा यही है। देश भर के अकादमिक और साहित्यिक जगत में यह प्रकरण इतना चर्चित हुआ कि नामवरजी के धुर विरोधी माने जाने वाले धर्मवीर भारती ने भी 'धर्मयुग' में इस प्रकरण को उठाया था, हालांकि उनका निष्कर्ष नामवरजी के पक्ष में ही था। 

बहरहाल, इस पूरे दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण का नतीज़ा यह निकला कि नामवरजी खिन्न होकर जोधपुर छोड़कर दिल्ली में जेएनयू चले गए। कालांतर में अपने गुरु की तरह अवसर पाकर रामबक्ष जी भी जेएनयू चले लेकिन वाया इग्नू। इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनकर गए रामबक्ष जी विस्तार से अंतर्कथा तो नहीं सुनाते, पर संकेत देते हैं कि 'ऑपन यूनिवर्सिटी' में भी कई 'क्लोज्ड मैटर ' होते हैं। 

इस पंक्ति का विशद भाष्य तो आपको 'मेरी चिताणी' में मिलेगा, लेकिन आगे बढ़ने से पहले श्रीलाल शुक्ल को याद कर लीजिए जिन्होंने देश में उच्च शिक्षा में हालात देखकर आज से पचास साल पहले ही 'राग दरबारी ' में कह दिया था - भारत मे "शिक्षा पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है। "यानी आप समझ सकते हैं भारत के सर्वश्रेष्ठ, बौद्धिक चेतना सम्पन्न, लोकतांत्रिक, पारदर्शी अंतरराष्ट्रीय स्तर के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में भी प्रोफेसर स्तर के चयन के दौरान पटल के पार्श्व में कितनी जटिल, संश्लिष्ट, गुम्फित अंतर्जाल की मनोहर कहानियां चलती हैं। ज्ञान की इन संस्थाओं पर सत्ता का कैसा शिकंजा कसा है। चिताणी यह भी बताती है कि कैसे देश के विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की चयन प्रक्रिया किस कदर मखौल बन चुकी है। 

देश के जेएनयू जैसे बहुचर्चित विवि. में किसी का रीडर पद पर चयन होता है लेकिन वो 'जॉइन' नहीं कर पाता क्योंकि चयन होने के बावजूद उसे नियुक्ति-पत्र ही नहीं मिलता। इसी तरह दिल्ली विवि.में प्रोफेसर पद के लिए साक्षात्कार चल ही रहा है कि कुलपति अचानक बीच में ही उठ कर चल देते हैं। दरअसल 'चिताणी' में वर्णित विश्वविद्यालयों के भोगे हुए यथार्थ का यह लेखा-जोखा, कथाएं-अंतर्कथाएं, उनके भीतर गहराई तक धंस चुकी सड़ांध मारती व्यवस्था का एक ऐसा जीवंत दस्तावेज़ है, जिसे पढ़ कर कोई तिलमिला, बिलबिला, कसमसा सकता है लेकिन कोई चुनौती नहीं दे पाता। अपने अनुभवों, भोगे हुए यथार्थ से रामबक्ष जी ने विश्वविद्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनैतिकता और मूल्यहीनताओं को अभिधा, व्यंजना और लाक्षणिकता के साथ निर्ममता से अनावृत्त किया है। 

'चिताणी' ही बताती है कि उच्च शिक्षा में ऐसे भ्रष्ट और नकारात्मक वातावरण निर्मिति में शिक्षक संघों और छात्र संघों से अलग कुलपतियों की भी भूमिका कम नहीं होती। 

सामाजिक परिवर्तन की यात्रा

जब आप ' मेरी चिताणी ' पढ़ते हैं तो महज़ एक गाँव को नहीं पढ़ते बल्कि करीब सात दशकों के सामाजिक परिवर्तन की भी यात्रा करते हैं। एक ऐसा गाँव जिसके खेतों में हल-बैल थे, अब ट्रैक्टर है। जहाँ नाड़ी जीवन का आधार थी,अब ट्यूबवैल की महत्ता है। जहाँ शाम होते ही हुक्के और चिलम के साथ  बाबा ' घासीराम की कऊँ ' लगती थी, वहाँ अब बीड़ी है। चिलम सामाजिकता की प्रतीक थी, बीड़ी व्यक्तिवाद की। अब गाँव में चौपाल नहीं लगती, सबके हाथ मे मोबाइल है, रात आठ बजे के बाद शराब है। 

दरअसल भारतीय राजनीति में दशकों में दशकों से थकी-मांदी, ऊँघती हुई,ऊबी हुई नेहरुवियन नीतियों के बाद नौंवे दशक में आर्थिक नीतियों  में ‘सुधार' के नाम पर हुए बदलावों से भारतीय गाँवों और किसानों के जीवन ने भी करवट ले ली। इस बदलाव ने गाँवों में नई सामाजिकता निर्मित की है। ‘मेरी चिताणी' अपने छोटे-छोटे संदर्भों में ग्रामीण सामाजिक परिवर्तन की गहरी पड़ताल करती है, पूरी शिद्दत और पैनी नज़र के साथ।

'मेरी चिताणी' को जो बात विशिष्ट बनाती है, वो है इसकी भाषा। बहुत बहुत लंबे समय बाद कोई ऐसी किताब मिली है जिसकी भाषा में उत्तर आधुनिक काल के कथित बौद्धिकों की 'आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस ' की तरह गढ़ी हुए 'आर्टिफिशियल इंटेलेक्चुअल ' भाषा नहीं है, जिसमें बेवजह की दुरूहता, क्लिष्टता, उबाऊपन, बोझिलता या अटपटे नामों वाले विदेशी रचनाकारों की अंग्रेज़ी में अनूदित रचनाओं से उठाए गए बेमतलब के असंदर्भित, अप्रासंगिक, विदेशी परिवेश के बिम्ब, प्रतीक उपमानों की जगह ठेठ ग्राम्य परिवेश के शब्दों, वाक्यों से पहली बारिश की बूंदों से भीगी मिट्टी की सौंधी गंध की अनुभूति होती है। 

लोक शब्दावली में नीम की निम्बोलियों जैसी मिठास है - जीमण, चूल्हा, सीर की ज़मीन, लाटा, बीघोड़ी, लगान, कऊं, चिलम, हुक्का, मरी, एक भर तिल, लाव, चड़स, डोका, ठोकी, गोफण, रेकलियो, काकड़, पेड़ा, पट्टी, टांका, बावड़ी, बांकला, राकौड़िया, लारवाल। और भी ढ़ेर सारे। ‘चिताणी’ की भाषा मे ललित निबंधों-सा लालित्य ज़रूर है लेकिन उनमें हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र जैसी आलंकारिकता और तत्समता,शृंगारित प्रांजलता नहीं, ताज़ा पकी फसल-सी महक है, आंचलिकता है पर रेणु के 'मैला आँचल' जैसी ठेठ, घनी, विशिष्ट स्थानीयता नहीं या राही मासूम रज़ा के 'आधा गाँव ' की तरह ठेठ देशजपन भी नहीं। 

‘चिताणी' की भाषा मे ग्राम्य तरुणी-सी निश्छलता, चपलता,सहजता, स्वाभाविकता, सरलता, सादगी और ताज़गी वैसी ही है जैसे आलोक तोमर की रिपोर्ताज़ 'एक हरा भरा अकाल ' में, जैसे विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी ' में, जैसे गुंजा और चंदन वाली फ़िल्म 'नदिया के पार' में!

'मेरी चिताणी ' के रोचक और विश्वसनीय होने का एक कारण यह भी है कि रामबक्ष जी के पास समाज को देखकर परखने और परख कर देखने की समग्र दृष्टि है। वे अपने परिवेश, अपने समय,अपने कालखंड को,अपने आसपास की दुनिया को सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टि से बांचते हैं और दार्शनिक अंदाज़ से परख कर साहित्यिक शैली में पेश करते हैं। 'मेरी चिताणी ' उनका अपना जीया, महसूसा,भोगा हुआ यथार्थ है, यथातथ्य दृष्टि के साथ।

पुस्तक- मेरी चिताणी
लेखक- रामबख्श जाट
प्रकाशक- अनन्य प्रकाशन,शाहदरा 
मूल्य-350रु.