पुस्तक समीक्षा: आँखों और पैरों में सपने बोने वाली किताब

'यायावरी-आवारगी' शृंखला के तहत 'आजादी: मेरा ब्रांड' के बाद 'लोग जो मुझमें रह गये' अनुराधा बेनीवाल की दूसरी पुस्तक है। ये किताबें सिर्फ उनकी बाहरी घुमंतू प्रवृत्ति का आख्यान ही नहीं, उनकी मानसिक यात्रा और उसकी जद्दोजहद का मजबूत बयान भी हैं। युवा लेखक 'लोरी' ने इस किताब पर बहुत मनोयोग से लिखा है।

Book Loh Jo Mujhme Reh Gaye

अनुराधा बेनीवाल की किताब ‘लोग जो मुझमें रह गए’ पढ़ते हुए मेरा मन हुआ कि मैं अभी तुरन्त उन शहरों के बारे में थोड़ा और जानूँ और देखूँ जिनके बारे में अनुराधा लिख रही हैं। मैं अपने आपको रोक नहीं पाई। मैंने मोबाइल उठाया और सर्च इंजन पर लिखा ‘रीगा, लात्विया’... फिर मैं देर तक रीगा के बारे में पढ़ती रही। वहाँ की तसवीरें देखती रही। इस एहसास के साथ कि अनुराधा ने इसे बस तस्वीरों में नहीं देखा होगा। इस तरह से किताब मेरे हाथ से छूट गई और मैं एक के बाद एक जगहों के नाम गूगल करती रही। थोड़ी देर तक इस खेल में मजा आया पर जल्दी ही मैं इस बेमतलब की कसरत से ऊब उठी। गूगल पर उन शहरों के बारे में सर्च करते हुए और बहुत कुछ जानते हुए भी मैंने पाया कि गूगल मुझे उससे बहुत कम बता पा रहा है जो अनुराधा बता रही हैं। 

ऐसा इसलिए हुआ कि गूगल के बताने में वह तन्मयता नहीं थी जो अनुराधा के बयान में है। उसमें दो अलग-अलग संस्कृतियों के बीच वह तुलना भी नहीं थी जिसमें अनुराधा अनायास ही उतर जाती हैं। ये तुलना अनुराधा के मन में ही नहीं चलती बल्कि मेरे जैसी पाठक के भीतर भी स्वतःस्फूर्त ढंग से चलनी शुरू हो जाती है। इस किताब को पढ़ते हुए हम इस बात को फिर फिर से जानते हैं कि अलग-अलग संस्कृतियों में चीजें एक जैसी दिखने या होने के बाद भी कितनी अलग हैं। मसलन गोरा या भूरा होने का मतलब भारत या यूरोप के बीच कितना अलग अर्थ रखता है। ‘माँ और मसीहा’ पढ़ते हुए हम ‘रीगा’ की एक माँ के साथ होते हुए असल में आजादी, प्रेम और देह के सवालों के सामने होते हैं। 

यहाँ पर ‘माँ’ और उनका पार्टनर एक ही सवाल के अलग अलग जवाब देते हैं। दोनों के जवाब और एटीट्यूड की तुलना यहाँ रोचक हो सकती है और इससे लात्विया में स्त्री और पुरुष की स्थिति के बीच भी एक दिलचस्प तुलना पेश की जा सकती है। खासकर दुर्घटनावश बच्ची के जलने और विवाह के प्रति नजरिए के सन्दर्भ में। लात्विया में विवाह के सम्बन्ध में किसी बाध्यकारी कानून या सामाजिक दबाव की अनुपस्थिति में स्त्रियों की आर्थिक मुश्किलें, खासकर बच्चों को पालने या सँभालने का इकतरफा दबाव और जिम्मेदारियाँ एक असन्तुलन के बारे में बताती हैं। यहाँ पर प्रेम और आजादी के कई दूसरे पहलू भी खुलते हैं। यही नहीं, जब अनुराधा रीगा में भटक रही होती हैं तो उनके नैरेशन में बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के लातविया और रूस के बीच के सम्बन्धों का तनाव भी झाँकता रहता है। 

लड़कियां क्यों भाग जाना चाहती हैं?

‘माशा और खाली चारपाई’ पढ़ते हुए एक सवाल मन में उभरा कि घर छोड़कर भागने के खयाल लड़कियों को ज्यादा क्यों आते हैं? लगभग सभी लड़कियाँ अपनी जगह से, या कि अपने घरों से क्यों भाग जाना चाहती हैं। अपने माता-पिता से, अपने घरों से जहाँ पर सारी चीजों के बावजूद उन्हें इतना प्यार मिलता है जितना शायद ही संसार के किसी कोने में मिले, फिर भी। अपने यहाँ लड़कियों के भागने को लेकर एक सतही स्टीरियोटाइप चलता है जबकि आलोकधन्वा ‘भागी हुई लड़कियाँ’ में कई साल पहले लिख चुके हैं कि जरूरी नहीं कि वह किसी लड़के के साथ ही भागी हो। 

इसमें मैं बस इतना ही जोड़ना चाहूँगी कि वह किसी लड़के के साथ भागी हो तब भी उसकी वजहें किसी लड़के के साथ उसके प्यार की तुलना में हमारी सामाजिक संरचना में अधिक हो सकती हैं। लड़कियाँ क्यों भाग जाना चाहती हैं इसके बारे में सोचते हुए मुझे इसका एक ही जवाब मिला - आजादी। जिसके बारे में अनुराधा पहले ही लिख चुकी हैं कि, ‘आजादी मेरा ब्रांड’। ब्रांड कहते हुए पुराने लोगों को शायद ये बात बाजारू लगे पर ब्रांड को पीछे छोड़ दें और सिर्फ आजादी की बात करें तो ज्यादातर जगहों पर लड़कियों को ‘प्यार और सुरक्षा?’ तो कई बार तो अतिरेक में मिल जाती है पर आजादी नहीं मिलती या कि तमाम शर्तों पर ही सम्भव होती है और यह शर्तें अक्सर घर वालों से अधिक यह पूरा समाज उन पर थोप रहा होता है। 

‘पादरी की पढ़ाई और बर्फ में नंगे भागते लोग’ में भी सांस्कृतिक द्वन्द्व की स्थिति लगातार चलती रहती है। इस तुलना और टकराव के बीच हम यूरोप के लोगों या उनकी संस्कृति के बारे में बहुत सारे रूढ़ स्टीरियोटाइप को ध्वस्त होते हुए पाते हैं। जैसे विवाह संस्था के रूप को लेकर अनुराधा के भीतर लगातार एक लम्बी जिरह चलती रहती है। किताब के इस हिस्से में फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी का समाज और लोग हैं। यहाँ विवाह, प्रेम और निजता के प्रति फिन लोगों का नजरिया किसी और दुनिया की बात लगती है। पर इसी हिस्से में अनुराधा जब सम्पत्ति में लड़कियों के हिस्से या अधिकार के बारे में बात करती हैं तो हम एक ऐसे समाज या बहस में होते हैं जिसके बारे में भारतीय समाज ने तमाम कानूनों के बावजूद अभी सोचना भी नहीं शुरू किया है। लगातार अपने भीतर चल रहे संवाद में अनुराधा लिखती हैं कि ‘फर्स्ट वर्ल्ड/डेवलप्ड नेशन सिर्फ पक्की सड़कों, साफ-सफाई और बुलेट ट्रेन से नहीं बनता। आज के दिन भी मैं अपने देश में कितनी लड़कियों को जानती हूँ जो खुशी खुशी अपने हिस्से की प्रापर्टी अपने भाई के नाम करा देंगी, क्योंकि उन्होंने मान लिया है कि भली लड़कियाँ ऐसा ही करती हैं। कानून होते हुए भी हम अपना हक नहीं माँग सकतीं तो झोल कहीं न कहीं हमारे संस्कारों और शिक्षा में है।‘  

इसके पहले वे लिख चुकी हैं कि ‘यूक्का और उसकी बहन की आपस में अच्छी बनती है, जरूरत पड़ने पर वे एक दूसरे के लिए मौजूद होते हैं। इसके अलावा उनमें लेन-देन का कोई रिश्ता नहीं है। यहाँ कोई सीधा-कोथली, भात-संकरात के रिवाज नहीं हैं। दोनों में सिर्फ प्रेम का रिश्ता है। जमीन-जायदाद के बराबर अधिकार हैं। बहन को खेती पसन्द है तो वह खेती करती है। भाई को नहीं है तो वह नहीं करता। ऐसा नहीं है कि भाई करोड़ों की जमीन पर कुंडली मारकर बैठ गया है और होली-दिवाली पर कभी-कभार बहन को दो जोड़ी सूट दे आता है और पचास हजार का भात भर देता है। बहन गलती से प्रापर्टी में हिस्सा माँग ले तो बुरी हो जाती है।‘

कैसा होता होगा बिना दबाव के रहना?

किताब के इसी हिस्से में तथाकथित ‘इज्जत’ और उसके बाध्यकारी दबाव के बारे में बात करते हुए अनुराधा लिखती हैं कि ‘एक लड़के और लड़की का प्रेम में होना काफी नहीं है। लड़की किसके साथ प्रेम में है, किसके साथ होना चाहती है - इससे उसके भाई, बाप, चाचा, ताऊ सबको फर्क पड़ता है। बहन अपने प्रेमी के साथ रहने लगे तो भाई की इज्जत को खतरा हो जाता है। भाई नहीं है तो बाप की पगड़ी उछल जाती है। बाप भी नहीं है तो रिश्तेदार, यहाँ तक की पड़ोसी भी अपनी-अपनी नाक की फिक्र में पड़ जाते हैं।‘ जबकि ‘मीया और यूक्का को नहीं पता, सामाजिक दबाव किस चिड़िया का नाम है। कभी कभी सोचती हूँ, कैसा होता होगा ऐसे, बिना दबाव के रहना?’ 

ये लम्बे लम्बे उद्धरण इस लिए दिए गए क्योंकि अपने यहाँ दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का सपना लगभग हर दूसरी आँख देख रही है। यहीं पर सवाल यह उठता है कि हमारे देश में सोच के स्तर पर जो प्रतिगामी पूर्वाग्रहों का जाल या जड़ता है और जो कि लगभग आम नैतिकता के रूप में स्वीकृत है, जैसे कि किसी दूसरी जाति या धर्म में प्रेम करने पर लड़की को मार देना यहाँ ‘ऑनर किलिंग’ के रूप में स्वीकृत है, यानी कि सम्मान बचाने के लिए की गई हत्या। मेरी जैसी किसी लड़की के लिए यह ‘हॉरर किलिंग’ है।

सवाल यह है कि इस हॉरर किलिंग के रहते हुए, जो कि न जाने कितने रूपों में घटित होती है, भारत तीसरी चौथी नहीं बल्कि पहली अर्थव्यवस्था भी बन गया तो इससे देश की आधी आबादी के जीवन स्तर या आजादी पर क्या फर्क पड़ेगा! ये किताब पढ़ते हुए ये बात इसलिए भी बार बार मन में आती है कि प्रकारान्तर से यह पुरुषों की आजादी की भी उतनी ही बात है कि वह अपने जड़ पूर्वाग्रहों और प्रतिगामी पिछड़ेपन से आजाद होकर बराबर के मनुष्य होने का स्वाद चखें और महसूस करें। मैं जानती   हूँ कि हमारे लोगों को यह आजादी नहीं चाहिए पर उतना ही मैं यह भी जानती हूँ कि मेरे आसपास की हर लड़की को, मेरी हर दोस्त को यह आजादी चाहिए। 

मैं जानती हूँ कि इस आजादी के बिना भारत के पहली अर्थव्यवस्था बन जाने के बाद भी मुझ जैसी करोड़ों लड़कियों के लिए कुछ भी नहीं बदलेगा। क्योंकि महीन पितृसत्तात्मक जाल तब भी उतने ही बने रहेंगे जिसमें लैंगिक पूर्वाग्रहों की सहायक भूमिका में जातिगत और धर्मगत पूर्वाग्रह भी उतने ही बाध्यकारी रूप में रहेंगे। यहीं पर तीसरी अर्थव्यवस्था के सपने को ध्वस्त करता हुआ ये सवाल उठता है कि इतनी भयावह गैरबराबरी और प्रतिगामी सोच के बाद यह किसी भी तरीके से सम्भव है क्या? और इससे भी आगे यह कि यह बात क्यों सम्भव होनी चाहिए जिसमें या जिससे आधी आबादी का जीवन जरा भी न बदलने वाला हो?

यह सवाल इसलिए भी जरूरी है कि स्त्रियों के सन्दर्भ में बात करते हुए अक्सर वर्ग के सवाल भी बेमानी हो जाते हैं। अनुराधा की किताबों के बारे में कुछ लोग यह सवाल उठाते हैं कि लड़कियों का ये कौन सा क्लास है जो इस तरह बेखटके दुनिया घूम सकता है? या कि निम्नवर्गीय लड़कियों के लिए अनुराधा कब और किस तरह की आदर्श या अनुकरणीय हो सकती हैं? 

पहले सवाल का जवाब यह है कि खुद अनुराधा भी बेखटके नहीं घूम रही हैं। जब हम उन्हें इस्ताम्बुल में घूमता हुआ पाते हैं तो असुरक्षा का एक खटका लगातार उनका पीछा करता है पर वे अपनी आजादी के लिए यह खतरा उठाने को सदा तत्पर हैं। यही वजह है कि उन्हें पढ़ते हुए एक सपना जागता है और यह सपना वर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है। रहा सवाल अनुराधा के वर्ग का तो इसके लिए किताब का यह हिस्सा गौर से पढ़ा जाना चाहिए - ‘उन दिनों मैं सप्ताह के सातों दिन काम करती थी। मेरे पास काम पर जाने के लिए सिर्फ साइकिल थी। एक-एक घंटा दूर साइकिल चलाकर जाती, वापस आती; बारिश हो, आँधी हो या बर्फ। मैं किसी भी काम के लिए मना नहीं करती थी। मेरे लिए हर जॉब लंदन में मेरे सर्वाइवल और घूमने के लिए जरूरी था। पूरे हफ्ते काम, काम और काम। चैस सिखाती - कभी स्कूलों में तो कभी क्लब्स में, कभी घरों में। हफ्ते में दो बार एक अस्सी साल के बूढ़े को कहानियाँ सुनाने जाती। वापस घर आकर खाना बनाती। बचे समय में मैं कपड़े धोती और घर की सफाई करती। मैं पूरे साल बीमार तक नहीं होती थी। ऐसा नहीं है कि बीमार नहीं होती थी, लेकिन एक भी छुट्टी नहीं ली मैंने, न किसी त्यौहार की न जन्मदिन की। सबसे ज्यादा बुरा लगता दिवाली पर। ...उन दिनों को सोचकर कई बार काँप जाती हूँ, कैसे इतना काम कर लेती थी और क्यों?’ 

ये लम्बा उद्धरण इसलिए मुझे जरूरी लगा क्योंकि जब हम अनुराधा को देश दर देश घूमते हुए देखते हैं तो एक आम धारणा यह बनती है कि उनके पास बहुत सारा रुपया और बहुत सारी फुरसत होगी। पर किताब पढ़ते हुए यह धारणा बार बार टूटती है। तब हम जानते हैं कि ‘घूमना मेरे लिए शायद उस काम से एस्केप भी है। मैं जब गले तक भर जाती और लगता कि अब शायद टूट जाऊँगी तो अपना बैग पैक कर लेती। गर्मियों की छुट्टियों तक मैं इन्तजार करती टूटने का, उससे पहले मैं खुद को टूटने की भी इजाजत नहीं देती थी। लंदन में रहकर मैं आराम कर ही नहीं पाती। लंदन को मैं हमेशा मेहनत और पैसे से जोड़ूँगी। कभी भी आराम, मौज, शान्ति और चैन के लिए नहीं। उसके लिए मुझे हमेशा वहाँ से बाहर निकलना होता है।‘ इस उद्धरण में अनुराधा का जीवन और दर्शन छुपा हुआ है। जहाँ घूमने को वह एस्केप का नाम देती हैं पर किताब पढ़ते हुए मैं सहज ही जानती हूँ कि यह ‘एस्केप‘ नहीं है। इसके पीछे इस दुनिया और इसके लोगों को जानने समझने की अथाह जिज्ञासा और उत्कंठा छुपी हुई है। यह न होती तो हमें ये किताबें शायद ही मिल पातीं। 

सुनना भी एक यात्रा है...

‘बिन ब्याही लड़कियाँ और डेढ़ कमरे का घर’ में अनुराधा फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी के लोगों के बीच होती हैं। यहाँ पर दो लेस्बियन लड़कियों से कुरेद कुरेद कर बात करते हुए जैसे वे खुद की ही तलाश में उतर जाती हैं। उनकी इस तलाश में अनायास ही हरियाणा का वह समाज बैकग्राउंड में उभर आता है जहाँ अनुराधा का बचपन और किशोरावस्था बीती है। अनुराधा लिखती हैं - ‘सुनना भी एक यात्रा है। जब हम किसी को सुन रहे होते हैं, उसके जीवन से गुजरते हुए अपने जीवन को भी देख रहे होते हैं। कुछ हममें भर रहा होता है। कुछ से हम उबर रहे होते हैं।‘ यह बात किताब के पाठकों के लिए भी उतनी ही सच है। अनुराधा की इन सघन (सांस्कृतिक) यात्राओं को पढ़ते हुए, उन्हें अपने भीतर गुनते हुए न जाने कितना कुछ पाठकों में भर रहा होता है। जाहिर है कि उबरने की प्रक्रिया का इस भरने की प्रकिया से समानुपातिक सम्बन्ध है।  

Anuradha Beniwal
अनुराधा बेनीवाल

‘द स्क्रीम’ में अनुराधा नार्वे में हैं। यहाँ एक समलैंगिक जोड़ा है। अनुराधा इस जोड़े निकोलस और इग्गी में से बेहद खूबसूरत निकोलस के साथ हैं। निकोलस अपने लिए सही साथी और सही जगह की तलाश में स्पेन से भटकते हुए ओस्लो पहुँचा है क्योंकि ‘नार्वे का कानून लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीयर, इंटरसेक्स (L.G.B.T.Q.I.) सबको हर तरह के हक देता है। यहाँ हम लोग साथ रह सकते हैं, शादी कर सकते हैं, बच्चे गोद ले सकते हैं। जो भी हक एक हेट्रोसेक्सुअल कपल को मिलते हैं, हमारे हक भी सेम हैं।‘ इसके बाद हम कानून और सोसायटी के अन्तर्सम्बन्धों को समझते हैं। कई बार कानून बदलाव की गवाही होते हैं तो दूसरी तरफ यह भी इतना ही सच है कि कई बार बदलाव की शुरुआत कानून बनने से होती है। क्योंकि ‘यह सब होने के बावजूद इस दुनिया में मेजोरिटी से अलग होना क्या आसान है?’ 

इसके बाद निकोलस स्पेन के धार्मिक बहुसंख्यकों के बारे में बताता है और मुझ जैसी पाठक हिन्दुस्तान के यथार्थ से उसकी तुलना करते हुए जानती है कि अगर कानून बन जाने से ही चीजें बदल जातीं तो अब तक दहेज हत्याएँ पूरी तरह से समाप्त हो गई होतीं। दहेज लेना या देना कब का बन्द हो गया होता और दहेज की बजाय लड़कियों को उनके पिता और भाई बिना माँगे सम्पत्ति में हक दे रहे होते। जाहिर है कि बिना किसी कोशिश के ये चीजें सामाजिक बदलाव से ही मिल सकती हैं जैसे कि ‘पादरी की पढ़ाई और बर्फ में नंगे भागते लोग’ में यूक्का बिना किसी विवाद के अपनी बहन ईरजा को जमीन दे चुका है।  

“’पश्चिम’ और धारणाएँ” में अनुराधा इंग्लैंड में ही हैं। वह कहीं बाहर नहीं निकली हैं बल्कि खुद उनके यहाँ ही एक लड़की हैना रुकने आई है। हैना पोलैंड के क्राको शहर से है। हेना वर्जिनिटी या एबार्शन आदि के बारे में जिस तरह के विचार रखती है वह अनुराधा को बार बार चकित करते हैं। बात बात में बाइबिल को ले आने वाली हैना से बात करते हुए अनुराधा के भीतर बना हुआ पश्चिम का स्टीरियोटाइप टूटता है। हालाँकि वे यह बताना नहीं भूलती कि पोलैंड भले ही हमारे लिए ‘पश्चिम’ है पर वह यूरोप का ‘पूरब’ ही है। पर वो समय आता है जब अनुराधा खुद पोलैंड जाती हैं और दो साल बाद हैना से दोबारा मिलती हैं। आगे का हिस्सा पढ़ते हुए मैं उम्मीद कर रही थी कि शायद अब तक हैना के विचारों में परिवर्तन हो चुका हो पर यहाँ हम उसके ब्वायफ्रेंड मार्क से मिलते हैं जो किसी आम हिन्दुस्तानी लड़के जितना ही सेक्सिस्ट है और जिसकी मुहब्बत और सम्मोहन में हैना गिरफ्तार है। हैना का यह सम्मोहन बना रहता है पर सारी लड़कियाँ हैना नहीं हैं, कुछ पैट्रीसिया भी हैं जो धर्म और राष्ट्रवाद के मिले जुले परदे के पीछे चल रहे खेल को पहचानती हैं और उसका हिस्सा होने से इनकार करती हैं।

अगर हम पहले से बेहतर नहीं होते तो कैसा प्रेम? 

अक्सर अनुराधा अपनी टिप्पणियों में चीजों को एकदम एकदम सही जगह पर पकड़ती हैं जैसे ‘मार्क को पता है कि वह हैंडसम है और बस यही बात उसको थोड़ा कम हैंडसम बनाती थी।‘ (‘पश्चिम’ और धारणाएँ) किताब के इसी हिस्से में वे लिखती हैं कि ‘प्रेम में हमें खुद का बेस्ट वर्जन हो जाना चाहिए... अगर हम पहले से बेहतर नहीं होते तो कैसा प्रेम?‘ या कि ‘शहर या कोई जगह अपनी भव्यता से नहीं, कुछ और से अपना लगता है। क्या है वह कुछ और कभी सोचा है? मेरा मन तड़प उठता है ऐसी जगह के लिए, जहाँ मेरी भाषा हो, मेरे लोग हों, मेरा घर हो, मेरे त्यौहार हों, मेरे दोस्त हों, मेरा कॉलेज हो, मेरा काम हो और पास ही मेरा गाँव भी हो। सपने जैसी बात लगती है, काम के पास गाँव होना, गाँव के पास आजादी होना, आजादी के पास अपनों का होना, अपनों के पास प्यार होना, प्यार के पास बेफिक्री होना, बेफिक्री के पास भरोसा होना, भरोसे के पास साहस होना, साहस के पास आँखें होना, आँखों के पास कान होना, और कान के पास तुम्हारे होंठ होना... (‘पश्चिम’ और धारणाएँ) 

इसी तरह ‘तलाकशुदा मर्द और धूप में मटर के दाने’ में अनुराधा नार्वे के बर्गेन में हैं जहाँ पर नार्वेजियन स्त्रियों की यौनिकता और व्यक्तित्व से आक्रान्त कुछ पुरुष हैं। और बदले में ‘अंटोनियो की बेटी इंग्रिड जो खुद एक नार्वेजियन औरत है, इन दोनों मर्दों की ओर दया से देखती है।‘ जाहिर है कि इन स्त्रियों का ब्रांड भी आजादी ही है। ‘दाग’ में वह होलोकास्ट की स्मृतियों के बीच में हैं। जहाँ नस्ल की शुद्धता और धर्म के नाम पर लाखों लोग मार दिए गए थे। इस भयावहता के बीच अनुराधा कई बार स्तब्ध सी होती दिखाई देती हैं और जब वह उन बर्बर कैम्पों के बारे में, इस नरसंहार की पृष्ठभूमि के बारे में बताने लगती हैं कि हिटलर के प्रचार तंत्र ने कैसे यहूदियों को एक दोयम दर्जे के मनुष्य के रूप में चित्रित किया था जिसका कभी भी शिकार किया जा सकता था। जब वे यातना कैम्पों की कुछ छवियों के बारे में बताती हैं तो भीतर एक थरथराहट-सी उतर आती है कि धर्मान्धता और राष्ट्रवाद मिलकर कितने भयावह रूप से मानवता विरोधी शक्ल अख्तियार कर लेते हैं जहाँ लोगों के भीतर का हैवान जाग उठता है।  

किताब में एक जगह अनुराधा ने लिखा है कि ‘पापा कहा करते, “हमारी लड़कियाँ अकेले माउंट एवरेस्ट चढ़ सकती हैं, अन्तरिक्ष में जा सकती हैं, लेकिन मजाल कि रोहतक अकेले पार कर जाएँ। हम करने ही नहीं देते... उसे अकेले यूँ ही गुजर जाने देना हमारी ‘महान सभ्यता’ के खिलाफ है।“ ये पंक्तियाँ लड़कियों की सामर्थ्य और उसके बरक्स हमारी सामाजिक सोच पर तीखा तंज करती हैं। कितनी तसल्ली की बात है कि अनुराधा और अनुराधा जैसी तमाम लड़कियाँ इस सामाजिक सोच को ध्वस्त करते हुए अपना बैग पैक करके निकल आई हैं। वे न केवल खुद निकल रही हैं बल्कि अपने अनुभवों को पूरी रचनात्मकता के साथ दर्ज करते हुए दूसरी न जाने कितनी लड़कियों की आँखों और पैरों में सपने भी बो रही हैं। अनुराधा की पिछली किताब ‘आजादी मेरा ब्रांड’ की तरह यह किताब भी हर किसी के पढ़ने के लायक है। इसे पुरुषों को इसलिए पढ़ना चाहिए ताकि वह अपने लैंगिक पूर्वाग्रहों को समझ सकें और लड़कियों को इसलिए कि वह इन पूर्वाग्रहों से पैदा हुए नागपाश की जकड़न को महसूस करते हुए अपने भीतर और बाहर से उसे काट कर फेंक सकें।

लोग जो मुझमें रह गए (यात्रा-आख्यान) - अनुराधा बेनीवाल, प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन

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