पिछले दिनों जब अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार की लाँग-लिस्ट में बानू मुश्ताक़ की किताब ‘हार्ट-लैंप’ का नाम आया था तो इस किताब के इर्द-गिर्द एक माहौल बनना शुरू हो गया था। भारतीय पाठकों ने उनकी कहानियों को हाथों-हाथ लिया और तभी यह समाचार आया कि बानू की इस किताब को इस वर्ष का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिल गया है। बानू को बुकर मिलने पर खुशी की एक ख़ास वजह यह है कि जैसी आम मिसालें हैं उपन्यास को पुरस्कार मिलने की, उसकी जगह पर कहानियों के एक संग्रह को यह पुरस्कार दिया गया है। बुकर के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ है।

बानू की कहानियाँ ना सिर्फ़ मुस्लिम समुदाय की औरतों के संघर्षों की बानगी हैं बल्कि इन कहानियों को गौर से देखने पर पता चलता है कि ये समूचे भारतीय उपमहाद्वीप की औरतों के संघर्षों की बानगी है। घरेलू हिंसा, उपेक्षा, शोषण-दमन और हर तरह के जिन अत्याचारों का चित्रण इन कहानियों में हुआ है वह कमोबेश हर क़ौम की औरतों पर लागू होता है। बानू की कहानी में जिस तरह की दहेज उत्पीड़न की शिकार मुस्लिम औरतें हैं, वैसे अनगिनत उदाहरण हिंदू समुदाय में भी देखने को मिल जाएँगे। बानू ने कुछ कहानियों के मार्फ़त उन अँधेरी गलियों में भी घुसने की कोशिश की है जो इन असमानताओं का पोषण करती हैं।

बानू की भाषा में रवानगी और विविधता है, कन्नड़ से लेकर उर्दू और हिंदी तक के शब्दों का भरपूर इस्तेमाल उनकी कहानियों में दिखाई देता है। इन कहानियों में कर्नाटक के एक छोटे-से शहर के बहाने भारतीय शहरों के जनजीवन का एक मानचित्र खिंचा दिखाई देता है। इसमें रहने वाले भिन्न संस्कृति और समुदाय के लोगों के आपसी संबंध और उन्हें चलाने वाले सामाजिक-आर्थिक शक्तियों को भी इन कहानियों में चिह्नित किया जा सकता है। इस किताब के लिए हमें दीपा भस्ती का भी शुक्रगुज़ार होना चाहिए क्योंकि उन्होंने इन कहानियों को अंग्रेजी में हमारे सामने लाने का जरूरी काम किया।

शाइस्ता महल के पत्थर

पुरस्कृत कथा संग्रह 'हार्ट लैंप' की पहली कहानी है - 'शाइस्ता महल के पत्थर।' यूँ तो प्रथम पुरुष में ज़ीनत इस कहानी को बयान करती है लेकिन ये कहानी ज़ीनत की सहेली शाइस्ता और उसकी बड़ी बेटी आसिफ़ा के बारे में है। तो शाइस्ता महल को ताज महल जैसा सपना समझ लीजिए। प्यार के दावों और वादों के पीछे दबी ज़ुबान से होने वाली नाइंसाफ़ी की यह कहानी है। पुरुष के लिए स्त्री इतनी सुलभ है कि उसकी उपस्थिति में वह शाइस्ता महल के सपने बुनता है, एक महल जो ताजमहल से भी अधिक भव्य है, दूसरी ओर मौका मिलते ही शाइस्ता की जगह कोई आरिफ़ा, कोई तरन्नुम ले लेती है। शाइस्ता महल के सपने को आरिफ़ा महल और तरन्नुम महल में बदलने में जरा भी वक़्त नहीं लगता।

अगर ये कहानी सिर्फ़ प्यार के धोखों के बारे में होती तो कोई बात नहीं लेकिन इस प्यार के पीछे पुरुष की हिंसा और लापरवाही का लम्बा इतिहास दिखाई देता है। उसने ना सिर्फ़ अपनी बीवियों को धोखा दिया बल्कि अपने बच्चों के सपनों को भी रौंद दिया। उनकी बेटियाँ, उनकी बेटियाँ नहीं रहीं बल्कि उनकी माएँ बन गईं। बाहर से दिखने वाले खूबसूरत और भरे-पूरे परिवारों के पीछे हिंसा और नियंत्रण की कितनी महीन परतें बुनी हुई होतीं हैं, इस बात को यह कहानी बड़ी कुशलता से बयान करती है। यूँ तो यह कहानी मुस्लिम परिवारों में व्याप्त नैसर्गिक हिंसा को रेखांकित करती है लेकिन इसकी मार पितृसत्ता से संचालित सभी समुदायों पर पड़ती है। पितृसत्ता कितनी चालाकी से स्त्रियों के लिए कैदखाने निर्मित करता है, उसकी मिसाल यह कहानी है। इस कहानी में कोई ओढ़ा हुआ तेवर नहीं है बल्कि एक भोगा हुआ यथार्थ है। एक हृदयविदारक कहानी..'ताज महल प्यार की मिसाल नहीं बल्कि एक कब्र है।’

अग्निवर्षा

संपत्ति-संबंध हमारे समाज को किस हद तक संचालित करते हैं, इसकी एक सजीव बानगी इस कहानी में देखने को मिलती है। ना सिर्फ़ पारिवारिक संरचना बल्कि धार्मिक संरचनायें भी इन्हीं संपत्ति-संबंधों के इर्द-गिर्द मँडराती रहती हैं। बानू की कहानी अग्नि-वर्षा हमारे समाज की इन्हीं विसंगतियों पर केंद्रित है। यूँ तो कहानी शुरू होती है एक बहन द्वारा अपने भाई से संपत्ति में अपना हिस्सा मांगने से। गौरतलब है कि बहन ये हिस्सा सिर्फ़ इसीलिए माँग रही है क्योंकि उसका पति उसे अपने भाई से अपना हिस्सा माँगने को उकसाता है। यहाँ एक विरोधाभास पैदा होता है।

एक ओर पितृसत्ता एक स्त्री को उसके अधिकारों से वंचित करती है तो दूसरी ओर एक दूसरी पितृसत्ता, उसके अधिकारों की वापसी का संघर्ष भी पैदा करती है। इस तरह की स्थितियाँ हमारे चारों ओर बहुत आम है। सबसे दुखद पहलू यह है कि एक पितृसत्ता से अपने अधिकार हासिल करके स्त्री को अपने अधिकार दूसरी पितृसत्ता के हवाले करना होगा। उसका ना तो कुछ था और ना कुछ हुआ। इस संघर्ष में उसका हर तरह से विमानवीकरण हुआ और संपत्ति अंततः पितृसत्ता के पास रही।

हालांकि बानू की यह कहानी इस द्वंद्व से शुरू होकर और बड़े सामाजिक द्वंद्वों तक पहुँच जाती है। वह है धर्म और संपत्ति-संबंध। जिस समय मुतवल्ली उस्मान साहेब अपने बहन-बहनोई के दुस्साहस पर खीझ रहे थे, अल्लाह ने उनके सामने एक बड़ी ख़ास पेशकश की। यह पेशकश थी एक ग़रीब मुस्लिम को न्याय दिलाने की, जो नाली में गिरकर मर गया है और जिसे पुलिस ने हिंदू श्मशान घाट में दफना दिया है। इस विचित्र स्थिति में ना सिर्फ मुतवल्ली साहेब बल्कि उनके बहन-बहनोई और पूरा मुस्लिम समुदाय अपना दुख भूलकर इस बड़े दुख में शरीक हो जाता है।

इस मोड़ पर यह कहानी धर्म के पाखंडों और शक्तिशाली लोगों द्वारा इन विसंगतियों का उपयोग अपने व्यक्तिगत हितों में करने की दिशा में बढ़ जाती है। मुतवल्ली साहेब किस तरह एक मृत मुस्लिम को न्याय दिलाने के लिए जिलाधिकारी के एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय भटकते हैं और पूरा मुस्लिम समुदाय आपसी कलह और संघर्ष भूलकर इस मुद्दे पर एकजुट होकर मुतवल्ली साहेब की मदद करता है। मुतवल्ली के लिए यह एक मौका है अपनी शाख़ मज़बूत करने की लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में मुतवल्ली साहेब जाने किस तरह ये भूल जाते हैं कि उनका भी एक बीमार बच्चा है और उसकी देख रेख करती उनकी भोली-भाली पत्नी है जिसपर वे हर वक़्त ख़फ़ा रहते हैं।

दीन की इस पूरी मुहिम में उस औरत और बच्चे की ज़िंदगी किस तरह उनके ख्यालों से रफूचक्कर होती है। यह कहानी धार्मिक पाखंड, पितृसत्ता और धार्मिक मूर्खताओं पर एक गहरा तंज है। यूँ तो यह कहानी मुस्लिम समुदाय के पाखंडों को सवालों के दायरे में लाती है लेकिन जिस तरह से धर्म के सामाजिक-आर्थिक संबंधों का खुलासा इस कहानी में किया गया है वह सभी धर्मों में समान रूप से व्याप्त है। धर्म और पाखंड कहीं ना कहीं पितृसत्ता को मजबूत करने की जरूरी कड़ी है। इस विचार को यह कहानी सशक्त तरीक़े से व्यक्त करती है।

दिल का दिया (हार्ट लैंप)

बानू की कहानियों के केंद्र में स्त्रियों के संघर्ष हैं। संघर्षों के इस चित्रण को मुस्लिम स्त्रियों के संघर्ष कहकर सीमित करना अनुचित होगा। एक ग़ैर-मुस्लिम होते हुए मैं इन संघर्षों को हिंदू समुदाय में जस का तस पाता हूँ। स्त्रियों का जीवन, उनके ऊपर पितृसत्ता का नियंत्रण, उनके संघर्ष, उनकी पीड़ाएँ बाहरी तौर पर अलग लगेंगी मगर इस उपमहाद्वीप के अन्य धर्मों के केंद्र में मूल बात यही है। बानू की कहानी दिल का दिया भी स्त्री के इन्हीं यातनाओं की कहानी है जो एक मुस्लिम स्त्री की पीड़ा के माध्यम से भारतीय उपमहाद्वीप की सभी स्त्रियों की पीड़ा का चित्रण है। मगर इस कहानी का ज़िक्र सिर्फ़ इसमें चित्रित स्त्री-संघर्षों के लिए नहीं करना चाहिए।

यह कहानी मूलतः प्रेम की कहानी है। प्रेम के खोने की कहानी है। उससे उपजे दुखों, अकेलापन और अलगाव की कहानी है। लेकिन अंत में यह कहानी प्रेम के जीत की कहानी है। पीड़ा पर प्रेम की विजय। अलगाव पर जुड़ाव की जीत। कितने भी झंझावात आयें, दिल का दिया बुझने ना पाये - चाहे जैसे हालात हों। इस रूमानियत के परे एक सच यह भी है कि ऐसा हमेशा संभव नहीं। अक्सर जब ज़िंदगी के झंझावातों का सामना करते-करते स्त्रियों के दिल का यह दिया बुझ जाता है तो बीमारियों, आत्महत्याओं जैसी अजीबोग़रीब स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं। कहानी को पढ़कर समझ में आता है क्यों लेखक ने इस कहानी को संग्रह का शीर्षक देना तय किया होगा। लेखक ने अपने साक्षात्कारों में भी बार-बार प्यार की महत्ता पर ज़ोर दिया है।

लाल लुंगी

पिछले दिनों इस कहानी का हिंदी अनुवाद समालोचन वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ। इस कहानी को बेशक पसंद किया गया। यथार्थवाद का एक शानदार नमूना है यह कहानी। खतने जैसी कुप्रथा का जीवंत चित्रण है इस कहानी में कि चरित्रों की कराहें पाठक ख़ुद महसूस करने लगता है। चरित्रों की चीख के साथ चीखने तक का मन हो जाता है। इस कहानी में ना सिर्फ़ इस कुप्रथा पर तीखा प्रहार किया गया है बल्कि वर्ग भेद पर भी पैनी नज़र है। परंपरा और चिकित्सा विज्ञान के द्वंद्व का भी चित्रण है। समालोचन पर पाठकों की प्रतिक्रियाओं से कुछ बातें निकलकर आती हैं।कई पाठकों ने लेखक के मंतव्य पर सवाल उठाए हैं। क्या लेखिका इस कुप्रथा की आलोचना करना चाहती हैं या नहीं।

मुझे यही लगा कि इस कहानी में कुप्रथा की आलोचना है। ख़ासकर खतने की प्रक्रिया में बच्चों पर जो गुजरती है, उसका जैसा चित्रण है उससे स्पष्ट है कि लेखिका बच्चों से सहानुभूति रखती हैं। लेकिन क्या यह सिर्फ़ सहानुभूति है? बेशक जो भी खतने की इस प्रक्रिया का साक्षी होगा, उसे बच्चों के प्रति एक सहानुभूति पैदा होगी लेकिन सवाल यह है कि क्या लेखक इस प्रथा को अस्वीकार करता है या नहीं? इस सवाल का जवाब नहीं मिलता। ख़ासकर संग्रह की अन्य कहानियों को पढ़ने के बाद भी लेखक का पक्ष स्पष्ट नहीं होता। एक तरफ़ लेखिका ने मुस्लिम समाज में स्त्रियों की बदहाली का चित्रण किया है, दूसरी तरफ़ उन कुप्रथाओं के प्रति एक पक्षधरता भी दिखाई देती है। जो कहीं ना कहीं स्त्रियों के प्रति अत्याचार की भूमिका तैयार करती हैं।

गोभी मंचूरियन की अजब कथा

इस संग्रह की सबसे रोचक कहानी शायद यही है - 'अरबी उस्ताद और गोभी मंचूरियन'। ये कहानी अरबी पढ़ाने वाले एक ऐसे उस्ताद की कहानी है जिसे एक अजीब बीमारी है। यह बीमारी है गोभी मंचूरियन खाने की। गोभी मंचूरियन खाने के लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकता है। जी हाँ, आपने सही पढ़ा। हज़रत गोभी मंचूरियन खाने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। उनके इसी पागलपन की यह कहानी है। यह पागलपन उन्हें घरेलू हिंसा तक पहुँचा देता है। यह पागलपन उन्हें कोर्ट कचहरी तक घसीट ले जाता है। इस पागलपन से उनकी शादी रुक जाती है। इस पागलपन से उनकी नौकरी चली जाती है।

सोचिए अदद गोभी मंचूरियन के लिए हज़रात इन सभी हालातों में ख़ुद को पाते हैं। बेशक, ये एक बड़ी मजेदार कहानी है। आप कह सकते हैं कहानी को ऐसा होना चाहिए। समाज की विसंगतियों को ज़ाहिर करने के लिए विनोद पूर्ण लेखन। इस चुलबुली कहानी को पढ़कर आप हँसी से लोटपोट भी हो सकते हैं। लेकिन ये कहानी ख़त्म होते-होते ख़ुद को एक बहुत ही पारंपरिक स्थिति में पाती है। जिन विसंगतियों को कहानी उधेड़ती है, उन विसंगतियों के ख़ात्मे के लिए एक बहुत ही पारंपरिक तरीका सुझाती है - धर्म और परंपरा में वापसी। हमने अपने आस-पास घरेलू हिंसा के कितने ही ऐसे मामले देखे हैं जहाँ पर इन मामलों को परिवार, समाज के नाम पर दबा दिया जाता है।

कम से कम हिंदू समाज में इस तरह के कितने मामले मैंने देखे हैं। अपने परिवार, अपनी रिश्तेदारी में ऐसे मामले देखे हैं और मैं व्यक्तिगत रूप से घरेलू हिंसा का समाधान परंपरा में नहीं पाता हूँ। परंपरा ही घरेलू हिंसा का पोषक है फिर आप किस आधार पर परंपरा को ही इन मामलों से निपटने में सक्षम साबित करना चाहते हैं? यह एक मजेदार कहानी होते हुए भी ऐसे गंभीर विचार हमारे सामने छोड़ जाती है। शोषण के प्रति लेखक का यह इत्तिफ़ाक़न रवैया बिल्कुल भी गले नहीं उतरता। इसके साथ ही इस कहानी में क्षेत्रवाद की भी हल्की गंध महसूस की जा सकती है हालाँकि लेखिका ने इस मसले पर बहुत समय नहीं दिया है।

एक बार के लिए औरत बनकर देखो, प्रभु!

एक खूबसूरत काव्यात्मक कहानी है! एक कविता जो स्त्री पर होने वाले अत्याचारों के अँधेरे में फूल की तरह खिलती और मुरझाती है। यह कहना मुनासिब होगा कि इस कहानी में कहानी कहने की कला में बानू मुश्ताक ने नए मुकाम हासिल किए हैं। सहज, सरस और मासूम भाषा में एक स्त्री ईश्वर को एक पत्र लिखकर अपने दुख बयान करती है और उससे आग्रह करती है कि जिस कुशलता से उसने इतनी जटिल दुनिया बनायी, उस कुशलता का प्रयोग करके उसने एक औरत के दिल में क्यों नहीं झाँका - उसे क्यों नहीं दिखाई दिया कि एक औरत के दिल में डर, असुरक्षाएँ, इच्छाएँ, सपने और निराशाएँ भी होतीं हैं। और एक मर्द उसपर अपना हक जताता रहता है। उसे मनमाफिक प्रताड़ित करता रहता है। औरत के ना सिर्फ़ दिल के टुकड़े हुए हैं बल्कि उसकी आत्मा का भी चीर-फाड़ दिया गया है। 'तुमने मर्दों को इतनी खुशियाँ दीं, इतने अधिकार दिए - क्या इसलिए कि तुम भी एक मर्द हो? अगर मर्द हो तो ही प्रभु, तुममें इतनी शक्ति है - तुम सर्वशक्तिमान, सर्व-विद्यमान और सर्वज्ञ हो तो एक औरत के दुख को समझने के लिए कम से कम एक बार तो इस धरती पर औरत बनकर आओ!'

बुकर पुरस्कार और औपनिवेशिक दृष्टि

इन कहानियों को पढ़कर एक सवाल यह आता है कि हम इस किताब को तब कैसे देखते अगर इसे बुकर ना मिला होता? इस सवाल का अब जवाब मिलना मुश्किल है। ये कहानियाँ हमारे बिल्कुल आस-पास की कहानियाँ हैं, रोजमर्रा की कहानियाँ हैं। हम परिचित को नज़रअंदाज़ करने के माहिर हैं। लेकिन परिचित में सच्चाई के कई ऐसे सूत्र छिपे होते हैं, जिन्हें देखना ख़ुद को नई दृष्टि देने के लिए आवश्यक है। इन छिपी हुई सच्चाइयों के सहारे एक बेहतर समाज का सपना भी देखा जा सकता है। भारतीय स्त्रियों के रोजमर्रा के संघर्षों को समर्पित इस रचना को पहचान मिलना वाकई खुशी की बात है।

मगर एक और ज़रूरी सवाल इन कहानियों को बुकर मिलने के बाद की स्थितियों से पैदा होता है। बानू मुश्ताक़ एक भारतीय लेखिका हैं तो उनकी कहानियों से हम तब क्यों परिचित होते हैं जब उन्हें बुकर पुरस्कार मिलता है? क्या भारतीय सांस्कृतिक प्रतिष्ठान हमारे श्रेष्ठ लेखन को पुरस्कृत और चिह्नित कर पाने में असफल हैं?

कहीं ना कहीं इन बड़े पुरस्कारों के आलोक में लेखकों को देखने से उनकी किताबों के प्रति एक रूमानियत, एक ग्लैमर जैसे हालात बनते हैं। भारतीय संस्कृति वर्ग की दृष्टि पर अभी भी औपनिवेशिक दृष्टि भारी है। हम अपने आप को पश्चिम की नज़र से देखते हैं। यहाँ तक कि हमने जो वैकल्पिक रास्ते ईजाद किए हैं, वे भी इन्हीं औपनिवेशिक विचारधाराओं के प्रभावित हैं। जब भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारतीय कलाओं का स्वागत होता है तो हम उन रचनाओं के प्रति भाव-विभोर हो जाते हैं और इन रचनाओं के प्रति किसी भी तरह की आलोचकीय दृष्टि का त्याग कर देते हैं।

हमें यह भी समझना चाहिए कि पश्चिम के मकबूल पुरस्कारों को देने वाले समूहों में एक ऐतिहासिक अपराध बोध भरा हुआ है। एक लंबे समय तक उन्होंने तीसरी दुनिया के देशों की कलाओं को नज़रअंदाज किया। यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों में तीसरी दुनिया के लेखकों और कलाकारों को पर्याप्त सम्मान मिलने लगा है। यूँ तो यह एक स्वागत योग्य कदम है लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि हमारे सांस्कृतिक मापदंड सिर्फ़ इन पुरस्कारों के आधार पर नहीं स्थापित हो सकते।

Banu Mushtaq
बानू मुश्कात (बाएं) Photograph: (IANS)

यह एक ऐसी किताब है जिसे पढ़ा जाना चाहिए, जिस पर चर्चा होनी चाहिए। कन्नड़ साहित्य में 70-80 के दशक में बंदाया आंदोलन की शुरुआत हुई थी। इस आंदोलन का उद्देश्य कन्नड़ साहित्य में सवर्ण पुरुषों के एकाधिकार को चुनौती देना था। बानू मुश्ताक़ भी इस आंदोलन से प्रभावित हुईं हैं उन्होंने इस आंदोलन के विचार को पूरी तरह से आत्मसात किया। 

पितृ-सत्ता से औरतों के शाश्वत संघर्ष का बहुत ही सजीव, मार्मिक और प्रभावशाली वर्णन बानू की कहानियों में मिलता है। हालांकि, बानू की कहानियों में मौजूद प्रतिरोध की इस आवाज़ में कहीं-कहीं एक पराजय-बोध, एक परंपरा-धर्मिता भी दिखाई देती है; मसलन ‘अरबी उस्ताद और गोभी मंचूरियन’ कहानी। इस कहानी के अंत में लेखिका ने एक स्त्री का पक्ष चुनने की जगह, परंपरा का पक्ष चुना है - जिसका अर्थ है पुरुष का पक्ष। ऐसे ही शीर्षक कथा ‘हार्ट लैंप’ में अपने हालात से परास्त स्त्री अंततः अपने बच्चों का मुँह देखकर जीती है, है तो यह एक पारंपरिक विचार ही। 

आज नारीवादी विमर्श स्त्री को अपने बंधनों से ख़ुद को आज़ाद करने की वकालत करेगा। आज हम तलाक को एक जरूरत की तरह देखते हैं ना कि अभिशाप की तरह। कई कहानियों में धर्म और परंपरा के आगे आत्म-समर्पण और भीरुता दिखाई देती है। अन्याय को रेखांकित करते हुए कई जगह लेखिका विनम्र हो जाती हैं। इस स्थिति में यह किताब जो वादे करती है, उनको तोड़ती हुई भी दिखाई देती है।