मृत्यु के बाद जीवन को समाप्त मान लिया जाता है। माना जाता है कि मृत्यु के बाद जीवन की तमाम गतिविधियां और कारोबार ठप हो जाती हैं। उस पर पूर्ण विराम लग जाता है। मृत्यु के बाद मनुष्य के सत्कर्मो की तो चर्चा होती है लेकिन उसके अपकर्मों का जिक्र भी कुफ्र माना जाता है। भारतीय परंपरा में ‘मृत्यु’ को दर्शन, आध्यात्म और रहस्य का विषय बनाकर रखा गया है।
मैंने जितने भी दार्शनिकों और कवियों को पढ़ा है, अमूमन सभी ने मृत्यु की अमूर्त, वायवीय और अझेल किस्म की व्याख्या प्रस्तुत की है। लेकिन हिंदी के लिए यह सुखद है कि कवि अरुण देव मृत्यु की भौतिकवादी व्याख्या करते हैं। वह भी सौ पदों में। सौ पदों में प्रशस्त उनकी कविता पुस्तक ‘मृत्यु कविताएं’ मृत्यु के जितने भी पक्ष, आयाम, भाव हो सकते हैं, सबकी काव्यात्मक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। कवि अरुण देव का जीवन मृत्यु के बाद खत्म नहीं होता बल्कि वह मृत्यु के इर्द-गिर्द शुरू होता है।
ऐसा लगता है कि कवि मृत्यु से जीवन को छीन रहा है। मृत्यु से जीवन के पक्ष में मुठभेड़ कर रहा है। मृत्यु में जीवन की संभावना को संभव कर रहा है और इस तरह वह मृत्यु को एक्सप्लोर करता है। उसी तरह से जिस तरह नचिकेता ने अपने पिता और सावित्री ने अपने जीवनसाथी सत्यवान के जीवन के लिए यमराज से किया था। प्रोमेथ्यूस ने पृथ्वी पर मानव जीवन के लिए स्वर्ग से अग्नि चुरा लिया था। उल्लेखनीय है कि मृत्यु में जीवन की तलाश करने की यह अदा अरुण देव को विशिष्ट बनाती है।
वरिष्ठ कवि अरुण कमल सही लिखते हैं- ‘‘मृत्यु भी इसी जीवन, इसी संसार की परिघटना है, शाश्वत और सर्वग्रासी। लेकिन जीवन सबसे बड़ा है।’’ अरुण देव इसी जीवन को खोज लाते हैं। यह मामूली बात नहीं है।
मृत्यु का उनका यह प्रयोग हमें बताता है कि जीवन के दृष्टिकोण से हमें उसे कैसे देखना चाहिए। दुनिया किसी के अपकर्मों का जिक्र करे या नहीं करे लेकिन मृत्यु की बेचैनी जब स्वयं को घेरती है, तब क्या उससे बचा जा सकता है-
''मन डूबता-उतराता है
अपकर्मों के पन्ने खुलते हैं
कोई बांचता है इन्हें
छलकता है छल का उष्ण जल
किसी मोड़ पर कायरता की पीठ दिखती है
घात का रक्त फूटता है हथेलियों से
देह बिलखती है मृत्यु के लिए।''
ऐसी आत्मालोचना क्या बगैर मृत्युबोध के संभव है? आखिर संसार में मृत्यु के अलावा और कौन-सा दर्पण है जिसमें जीवन इतना साफ-साफ दिखाई देने लगता हो? वैसे नहीं कहा जाता है कि मृत्यु की घड़ी में जीवन का प्रत्येक क्षण आंखों के सामने सिलसिलेवार तैरने लगता है। मृत्यु का छिलका छुड़ाकर रख देते हैं अरुण देव। वह उसको अबूझ या पहेली नहीं रहने देते। वह जीवन को आकार देने के लिए मृत्यु को हथियार बनाते हैं। उसकी तीन अवस्थाओं- पूर्व, मध्य और उत्तर का ऐसा चित्रण बगैर गहरे मृत्युबोध के संभव नहीं।
समय-समय पर कवियों ने जीवन के कारोबार की समग्र और सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए अपने टूल्स और शिल्प को बदलने का काम किया है। ऐसा करने को वे तभी मजबूर होते हैं जब बदलते समय और समाज की जटिलताओं और परिस्थितियों को प्रचलित टूल्स के जरिए अभिव्यक्त कर पाना संभव नहीं होता।
ऐसे में कवियों को कभी-कभी उन टूल्स की भी खोज करनी पड़ जाती है जो लोगों के लिए आश्चर्य, अजूबे और कौतूहल से कम नहीं होते। वे यह मानने को कतई तैयार नहीं होते कि टूल्स के बदलने से हमारे सरोकार, प्रतिबद्धता और पक्षधरता पर आंच नहीं आने वाली क्योंकि आज भी हम उन्हीं मूल्यों की बात कर रहे हैं जो कल कर रहे थे।
हां, सत्य की खोज के लिए हमने अपने माध्यम जरूर बदल लिए। पहले हम वहां जीवन का ढ़ोल पीट कर पहुंचते थे लेकिन अब मृत्यु के माध्यम से पहुंच रहे हैं।
दूसरी ओर ‘मृत्यु’ ऊपर-ऊपर से रहस्य की प्रतीति और बड़े-बड़े खन्नास को भी डराने का काम इसलिए करती है क्योंकि उसके इर्द-गिर्द हम जाना नहीं चाहते। उसकी खोज करना नहीं जानते। ‘मंगल’ पर तब तक जीवन की संभावना की खोज नहीं हुई जब तक मनुष्य वहां नहीं पहुंचा। अंतरिक्षयात्रियों के मंगल पर पहुंचते ही वहां पृथ्वी से कहीं अधिक जीवन की संभावना का पता चला। विज्ञान, कला और साहित्य जीवन की संभावनाओं की खोज को संभव करते हैं। जीवन का विकास और उसके अछोर विस्तार का पता हमें विज्ञान, कला और साहित्य ही कराते हैं।
कहना नहीं होगा कि अपने समय के सत्य का असरदार, प्रभावी, काव्यात्मक और कलात्मक चित्रण करने के लिए अरुण देव ने ‘मृत्यु’ जैसे टूल को खोजने का साहस दिखाया। उनके यहां मृत्यु हताशा, निराशा, अवसाद, ऊब, खीझ थकान, तनाव, विलाप, रुदन आदि के पर्याय नहीं है बल्कि वह इन सभी से जीवन की खोज के हेतु हैं-
‘‘एक झुके आदमी के साथ मैंने उसे देखा
एक टूटी स्त्री को वह दे रही थी हिम्मत
सड़क पार करते बच्चे की उंगली पकड़ उसने कहा
बचो.”
अरुण देव मृत्यु जैसे शाश्वत और सर्वग्रासी टूल का जीवन के पक्ष में कैसे खोज करते हैं यह उल्लेखनीय है। उन्होंने मृत्यु जैसे टूल का अपनी कविताओं के लिए इसलिए प्रयोग किया ताकि सम-सामयिकता को भी काव्यात्मक संप्रेषणीयता और दीर्घजीविता में कन्वर्ट किया जा सके।
उनके उल्लेख्य संग्रह की कविताओं में पैठने के बाद आपको पता चलेगा कि उन्होंने चीजें हमारे आस-पास से उठाई हैं। हम वेवजह उन पर यह आरोप चस्पा कर रहे हैं कि उन्होंने मृत्यु का चित्रण करके जीवन से पलायन करने का काम किया है और युवाओं को श्मशान में भटकने को छोड़ दिया है। मैं आरोपियों से पूछना चाहूंगा कि जीवन से पलायन करने वाला कवि क्या यह लिख लिखता है-
“घर में मुअज्जम आते
दादी हिलमिलकर बतियातीं
शीशे का गिलास उनका अलग था
वह अपना होना पोंछ कर चले जाते
पितामह की चिता ठंडी होने तक
वह अकेले ही थे अस्थिशेष के पास
वह गिलास मैंने तोड़ दी थी
कुछ दिनों घर में उसकी टूटी किरचें चुभती रहीं
एक दिन माँ ने उन्हें बुहार कर बाहर फेंक दिया
कभी कभी सपने में आते हैं मुअज्जम चच्चा
टूटी आवाज़ आती रहती है
कैसे हो बेटा!”
यह कविता एक साथ भारत के पचास फीसदी अल्पसंख्यकों और दलितों के साथ बरते जाने वाले अपमानजनक व्यवहार को हमारे सामने उघाड़कर रख देती है। आज तो छुआछूत ने और भी भयंकर रूप धारण कर लिया है। कोई दलित बच्चा स्कूल में यदि पानी के मटके से पानी पी लेता है तो उसकी पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है। मैं पूछना चाहता हूं कि समकालीन हिंदी कविता की तथाकथित मुख्यधारा में जाति के सवाल क्यों अनुपस्थित हैं?
हिंदी के स्वनामधन्य कवियों की संवेदना इतनी सलेक्टिव क्यों है कि उनके संज्ञान में रोंगटे खड़े करने वाली ऐसी घटना कभी आती ही नहीं? आखिर उनकी करुणा सबसे कमजोर और सताए हुए लोगों के कब काम आएगी?
उल्लेखनीय है कि अरुण देव की कविता हम सबसे यह सवाल करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती। मुझे हैरत तब होती है जब समकालीन हिंदी कविता की तथाकथित मुख्यधारा में अल्पसंख्यकों के सवाल तो आते हैं लेकिन जाति के सवाल वहां गायब मिलते हैं। यह सुखद है कि कवि अरुण देव के यहां बड़ी गंभीरता और मार्मिकता से सबका चित्रण होता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि अल्पसंख्यकों और दलितों के हालात सबसे बदतर हुए हैं। उसमें भी तब जब देश के निर्माण में उनका अमूल्य योगदान है। जैसा कि कवि स्वयं कहते हैं- ‘‘पितामह की चिता ठंडी होने तक/ वह अकेले ही थे अस्थिशेष के पास।’’
अरुण देव की कविताओं पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित गगन गिल टिप्पणी करती हैं- ‘‘कभी जान पड़ता है, यह निजी स्पेस की कविताएं हैं, फिर दूसरे ही क्षण वे सार्वजनिक जीवन और राजनीतिक क्षोभ की कविताएं लगती हैं। हम कितनी बार, किस-किस तरह से रोज मरते हैं, उसकी बानगी भी। इस मरने में भी सांस्कृतिक स्मृति है, जैसे हमारे जीने में, इसे रेखांकित करतीं ये कविताएं अनन्य हैं।’’
अरुण देव की कविताओं के उतने ही रंग हैं जितने जीवन के। उनको पढ़ने के बाद पता चलता है कि उन्होंने अपनी बात को कहने के लिए ‘मृत्यु’ को क्यों टूल बनाया। उन्होंने ऐसे-ऐसे विषयों को अपनी कविताओं की जद में लाने की कोशिश की है जिनके फलक मृत्यु की तरह बड़े और व्यापक हैं और जिनको प्रचलित टूलों में समेटना संभव नहीं।
मध्यवर्ग एक ऐसा विषय है जिस पर आपको हिंदी और अंग्रेजी में स्वतंत्र रूप से उपन्यास और विचार साहित्य पढ़ने को मिल जाएंगे। लेकिन उस मध्यवर्ग को लक्ष्य करके कोई स्वतंत्र कविता भी लिखी गई हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता। मध्यवर्ग किसी भी समाज या देश का न सिर्फ अगुवा होता है बल्कि वह उसकी रीढ़ भी होता है। क्रांति का हिरावल दस्ता होता है। अधिकांश दार्शनिक, लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक, राजनेता मध्यवर्ग की ही उपज होते हैं। लेकिन आज के भारतीय मध्यवर्ग को हम कुछ यूं पाते हैं-
“श्मशान हूँ
सदी की जली लकड़ियाँ बिखरी हैं
संस्कृति की काली पताकाएँ
नागरिकता की अस्थियाँ चुनी जा चुकीं
इतिहास के धुएँ से भर गया है वर्तमान
संयम के अस्तबल से बाहर निकल चुकी हैं आस्थाएँ
स्वतंत्रता की नदी सूख रही है
विवेक और विचार के टूटे मृदभांड पड़े हैं
मध्यवर्ग की दलदली जमीन पर आन्दोलनों की कब्र है
उपनिवेशों के जिंदा प्रेत डोल रहें हैं.”
कवि का यहीं कमाल देखने को मिलता है कि जो मध्यवर्ग अपने को चित्रित करने के लिए उपन्यास या मोटी-मोटी पुस्तकों को लिखने की मांग करता है अरुण देव उसको मात्र 65 शब्दों या 10 काव्य पंक्तियों में बड़ी खूबसूरती से संभव कर देता है। मेरा खयाल है कि भारतीय मध्यवर्ग की पतनशीलता और अवसरवाद पर इससे बड़ा व्यंग्य और कटाक्ष कुछ और नहीं हो सकता। यह कविता पढ़कर आम्बेडकर याद आते हैं जिन्होंने कहा है, ‘‘मध्यवर्ग क्रांति का नेतृत्व करता है लेकिन वह दुष्ट भी हो सकता है।’’
अरुण देव अपनी कविताओं में कंट्रास्ट पैदा करते हैं जिसकी किसी भी रचना को विशिष्ट बनाने में अहम भूमिका होती है। यह अकारण नहीं है कि वह जीवन का चित्रण करने के लिए मृत्यु जैसे टूल का प्रयोग करते हैं। प्रसिद्ध आलोचक हरीश त्रिवेदी कहते हैं- ‘‘अरुण देव की ‘मृत्यु कविताएं’ यथार्थवादी भी हैं और अति यथार्थवादी भी। देशकाल का उनका परिप्रेक्ष्य इतना व्यापक है कि अनन्त का बोध होता है। इन कविताओं में कहीं दूर से आती हुई ध्वनि सुनाई पड़ती है और तुरंत उसके पास से आती प्रतिध्वनि भी।’’
अरुण देव कोई सस्पेंश क्रिएट नहीं करते। यह बात अलग है कि उनकी कविताओं के नाना अर्थ निकाले जा रहे हैं और उनके कई पाठ और भाष्य संभव हैं। गगन गिल कहती हैं- ‘‘यदि एक कवि इतना सब कर लेता है, जैसे अरुण देव करते हैं, आपके भीतर जीवन की प्यास जगा देता है और मृत्यु के आइने में आपकी लुप्त छवि दिखा देता है, तो उसने निश्चित ही बड़ा काम किया है। वह बड़ा कवि है।’’
जीवनरस से भरा कवि प्राणीजगत के कल्याण का स्वप्न ही देख सकता है। धरती पर अमन-चैन की प्रार्थना कर सकता है। स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा, न्याय, अहिंसा और शांति की सदिच्छाएं कर सकता है-
“अन्याय की मृत्यु कब होगी
हिंसा का आखिरी दिन कब आएगा
हत्यारे कब विलुप्त होंगे
कट्टरता की किताब के कितने पुनर्मुद्रण होंगे
तानाशाह कब तक अपने को अद्यतन करते रहेंगे
मछलियों को कब मिलेगी पानी की नागरिकता
पशुओं को जंगल की
पक्षियों को आकाश की
कौन-सा बुरे दिनों का होगा अंतिम दिन.”
अरुण देव की कविताओं का रेंज बड़ा है। उनकी कविताओं की जद में एक तरफ यदि छोटी बेटी की गृहस्थी नहीं जमने की भी चिंता व्यक्त होती है, तो वहीं दूसरी तरफ ‘मलबे से निकल रहे हैं फूल जैसे बच्चे’ के शोक को भी महसूस किया जा सकता है। यहां यह कहने की जरूरत है कि मलबे से फूल जैसे बच्चों के निकलने की ह्दयविदारक खबरें फिलिस्तीन और गल्फ कंट्रिज से आती रहती हैं। अरुण देव की कविताओं से उनके जीवन से गहरे कर्न्सन का पता चलता है।
उल्लेख्य संग्रह ‘मृत्यु कविताएं’ पर कहने के लिए इतनी बातें हैं कि वे कभी खत्म नहीं हो सकतीं। संग्रह की कविताएं इतनी संक्रामक हैं कि आप उसके प्रभाव से बच नहीं सकते। अरुण देव के इस संग्रह का अपना महत्व है। संग्रह को पढ़ने के बाद उन कुलीन आलोचकों की यह शिकायत भी दूर होगी कि हिंदी में दीर्घजीवी कविताएं नहीं लिखी जा रही हैं।
कविता संग्रह : मृत्यु कविताएँ
अरुण देव
राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली
संस्करण – 2025
मूल्य : 250