पुस्तक समीक्षा: खोयी हुई चीजें- भारतीय कविता के अंतःसूत्र को सम्बोधित अनुवाद

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित के. सच्चिदानंदन मलयालम के कवि, संपादक और अनुवादक हैं। वे सबसे अधिक अनुवादित कवियों में से भी हैं। उनकी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन ‘खोयी हुई चीजें’ की कविताओं का चयन और अनुवाद प्रख्यात कवि, उपन्यासकार और स्त्री विमर्शकार अनामिका ने किया है। इसी पुस्तक पर पढ़िये कवि-कहानीकार बसंत त्रिपाठी को-

Khoe hui chhezen

के. सच्चिदानन्दन मलयाली के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले कवियों में से हैं। कवि के अलावा भारतीय पाठक उन्हें ‘इंडियन लिटरेचर’ के श्रेष्ठ संपादक के रूप में भी जानते हैं। समय-समय पर उनकी कविताएँ हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। अनामिका जी हिन्दी की चर्चित कवयित्री, संपादक और अनुवादक हैं। हाल ही में दो भारतीय कवियों के उनके द्वारा किए गए अनुवाद के संकलन प्रकाशित हुए हैं – नीलिम कुमार और के. सच्चिदानन्दन। दोनों ही किताबों में कविताओं से पहले अनुवाद को लेकर एक लम्बी भूमिका है - भारतीय कविता : अनुवाद की ‘लोकनी’। यह भूमिका दिलचस्प है। इसलिए इसकी संक्षेप में चर्चा ज़रूरी है।

भूमिका में अनुवाद के महत्व और सीमाओं को लेकर अनामिका जी ने कुछ ज़रूरी सवाल उठाए हैं और इन सवालों को लोक-प्रचलित किस्सों-किंवदंतियों-मुहावरों के माध्यम से रखा है। कुछ-कुछ रसूल हमजातोव के ‘मेरा दागिस्तान’ की तरह। अनुवादक को उन्होंने ‘लोकनी’ कहा है। “लोकनी यानी वह  वृद्धा या प्रौढ़ा दाई जो बालिका वधू को अपने संरक्षण में ससुराल लाती थी। नये परिवेश में नई बहू खुद ही मुँह खोलकर कुछ माँगे या किसी बात का ज़वाब दे - यह  तो मर्यादा का उल्लंघन माना जाता था। उसकी तरफ़ से जो  कहना  होता था – ‘लोकनी’ ही  कहती  थी।” (पृष्ठ-11) वधू, लोकनी जैसे लोक-प्रचलित प्रतीकों से लेकर भारतीय और पश्चिम के अनुवाद-कला की सैद्धांतिकी को जिस आसान और सरस भाषा में समझाया है, वह किसी कवि के बूते की ही बात है न कि शास्त्रकार के. अनामिका जी ने अनुवाद कर्म की मुश्किल और चुनौतियों को अधिकतर स्त्री-जीवन के हवाले से कहा है। इसे हम अनुवाद की सैद्धांतिकी का स्त्री-पाठ भी कह सकते हैं।

अनुवादक की चुनौतियों को डॉ शशिमुदीराज के हवाले से भी कहा है – “रचनाकार अपनी अनुभूति से लिखता है, अनुवादक की अनुभूति अपनी नहीं, उधार ली हुई है। इस कारण रचनाकार यदि ईश्वर है तो अनुवादक एक विवश ईश्वर है क्योंकि उसकी रचनात्मकता उसकी मूल रचना से बँधी है। अनुवादक को वही अनुभव करना है और लिखना है जो मूल रचना में है। इसलिए अनुवादक का कार्य अधिक कठिन है। एक ओर सर्जनात्मकता के आवेग में अपने आपको डुबो देना है और दूसरी ओर अपने निजी व्यक्तित्व को आरोपित होने से बचाये रखना – ये दो शर्तें ऐसी हैं जिनको निभाना और जिनके बीच संतुलन बनाये रखना कठिन है।” (पृष्ठ-23)   

कविता का कोई भी अनुवाद निरापद और त्रुटिहीन नहीं हो सकता। इसे अनुवादक की नहीं, कविता विधा की मुश्किल मानी जानी चाहिए। लेकिन फिर भी जो त्रुटि अनुवादक के द्वारा हुई हो और कविता विशेष की मूल भाषा न जानने या न देखने वाले पाठक को सहज ही दिख जाए और चुभे, उसका जिक्र ज़रूरी है। अनूदित कविता को मूल से मिलाकर अनुवाद की गुणवत्ता की जाँच यद्यपि विशेषज्ञों का काम है और बहुत श्रमसाध्य भी। बहुधा होता यह है कि मूल पाठ, विशेषज्ञों और जिज्ञासु पाठक तक को आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता। ऐसे में अनुवाद पर भरोसा करना पाठक की मज़बूरी हो जाती है। लेकिन जहाँ मूल या फिर स्रोत भाषा, जिसे अनुवादक ने अपने लिए चुना है, सहज उपलब्ध हो जाए, तब विशेषज्ञ तो विशेषज्ञ, साधारण पाठक भी, जो उस भाषा को थोड़ा-बहुत भी जानता है, स्रोत भाषा में ताक-झाँक लेना अपने विश्वास के लिए ज़रूरी मानता है।

इन पंक्तियों के लेखक ने भी, जो खुद को साधारण पाठक ही मानता है, स्रोत भाषा यानी अंग्रेजी में सहज उपलब्ध के. सच्चिदानन्दन की कविताओं को देख लेना ज़रूरी समझा। और उसे ऐसा करते हुए प्रथम दृश्ट्या जो दिखा, उसे अनुवाद के लिहाज से कतई अच्छा और प्रीतिकर नहीं कहा जा सकता। भूमिका में हालाँकि अनामिका जी ने यह आशंका व्यक्त की है कि ‘आदर्श स्थिति हमेशा घटित नहीं हो पाती, सम्बन्धों की अपनी राजनीति होती है जिसके तहत लोग सामने वाले व्यक्ति, पाठ या संस्कृति का कचूमर निकालने पर तुल जाते हैं !” (पृष्ठ- 9-10) लेकिन यहाँ मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है। मैं केवल उन असंगतियों का उल्लेख कर रहा हूँ जिसे जानना संभवतः अनामिका जी के लिए भी रचनात्मक हो।   

पहली बात तो यही कि के. सच्चिदानन्दन की अंग्रेजी में अनूदित एक कविता ‘Misplaced Objects’ है जिसके आधार पर इस संग्रह का शीर्षक रखा गया है -  खोयी हुई चीज़ें। लेकिन आश्चर्य कि इस कविता को संग्रह में शामिल ही नहीं किया गया। ‘Days of the Weak’ का अनुवाद ‘सप्ताह के दिन’ शीर्षक से इस संकलन में उपलब्ध है। अंग्रेजी में  हर दिन के बाद एक अंतराल है। जबकि हिन्दी अनुवाद में प्रथम चार दिन के विवरण में कोई अंतराल नहीं है। सवाल यहाँ उठता है कि क्या अंतराल का ध्यान अनुवाद में नहीं रखा जाना चाहिए? अंतराल या पैरा या बन्ध की यह समस्या ‘मुझे क्या सिखाया है तत्त्वों ने’ में भी है। जागरूक पाठक मूल अंग्रेजी पाठ के अलावा ‘कविता कोश’ में के. सच्चिदानन्दन की अनूदित कविताओं से इस संकलन में शामिल कुछ कविताओं का मिलान कर देख सकते हैं।   

इसके अलावा दो भयंकर गलतियाँ इस संकलन में ऐसी है जिसके लिए अनुवादक को माफ नहीं किया जा सकता। ‘अलिखित कविता’ शीर्षक से दो कविताएँ किताब के पृष्ठ 55 और 129 पर हैं जो एक ही कविता ‘The Unwritten Poem’  का हिन्दी अनुवाद है। एक ही कविता के दो भिन्न अनुवाद एक ही संकलन में देने का क्या अर्थ है ? फिर दोनों के पाठ में भी अंतर है। पहले अनुवाद में ‘sail’ के लिए पाल आया है तो दूसरी में पतवार। यह कविता एक अनलिखी कविता का बयान है। लेकिन पहले पाठ में ‘One day I will find my words’ के लिए ‘ एक दिन मैं अपने शब्द ढूँढ़ लूँगी’ है तो दूसरे पाठ में ‘एक दिन पा लूँगा मैं शब्द अपने’ है। ‘पाना’ और ‘ढूँढ़ना’ को अनुवादिका का अपना चयन मान भी लें तो एक में स्त्री लिंग और दूसरे में पुर्लिंग! हिन्दी अनुवाद में स्त्री-लिंग पुर्लिंग के प्रति सावधानी नहीं बरती गयी। और तो और अनामिका जी अनुवाद में इतना डूब गयी कि कई बार यह भी भूल गयी कि वे एक पुरुष कवि की कविताओं का अनुवाद कर रही है। जैसे कविता ‘भग्न संवाद’ कविता में वाचक एक पुरुष है जबकि एक जगह अनुवाद में ‘जानती हूँ’ कर दिया गया। यह टाइपिंग एरर नहीं है। ऐसी भूलें और भी हैं। यह मूल का अपनी मर्जी के मुताबिक पुनरुत्पादन है।

इसी तरह ‘धरती के भीतर’ (पृष्ठ-135) और ‘धरती के नीचे’ (पृष्ठ-195) भी एक ही कविता के दो अनुवाद हैं। इतना ही नहीं दूसरे अनुवाद में किसी और कविता का अंश भी जुड़ गया लगता है। इस पर अलग से कुछ  कहने की बजाय दोनों अनुवाद को शब्दशः उद्धृत कर रहा हूँ : 

धरती के भीतर

मेरा भरोसा ही नहीं किया 
जब मैं बोला कि धरती के भीतर 
घण्टियाँ हैं, और अब तो 
सुनती हो उन्हें कहीं धरती के भीतर 
पेड़ हैं, पशु हैं, 
जंगल, नदी, एक पूरा समुन्दर, 
सड़कें, नगर, पुरालेखधारी स्तम्भ, 
मठ, बच्चों-सी 
हँसती यादें, सपने जो 
धरती पर देखे नहीं हमने, अनगाये गीत, 
महाबली के आस-पास बुनी, 
अकथ कथाएँ, शेर की गुफाएँ, 
आग की और जोगियों की गुफाएँ, 
भूकम्प और पहाड़ की गुफाएँ, 
बर्फ, हवा, भँवर, घाटियाँ ! 
घण्टियों के भीतर 
कोई करता इन्तज़ार, 
आँखें उसकी बिन बरौनी, 
बर्फ की तरह सफेद बाँहें, 
धरती के भीतर !

धरती के नीचे

विश्वास नहीं किया तुमने 
जब मैं बोला कि घण्टियाँ 
धरती के नीचे, पर अब 
तुम सुनती हो ख़ुद ! धरती के भीतर 
पेड़ हैं, जानवर, जंगल, नदियाँ, महासागर, 
गलियाँ, शहर, स्तम्भ और शिलालेख, 
मठ और स्मृतियाँ बच्चों की सी हँसती हुई, 
जो धरती पर हमने देखे नहीं, वे भी सपने अनगाए गीत, 
महाबली को केन्द्र में रखकर बुनी गयी अनकही कहानियाँ, सिंहों की माँदें,
अग्नि की, गुफाएँ, योगियों की, 
भूकम्प की माँदें, पर्वत, 
बर्फ, हवा, भँवर, 
घण्टियाँ ! घण्टियों के नीचे कोई 
हमारी प्रतीक्षा में लीन, 
पलकहीन आँखें उसकी, 
बाँहें बर्फ-सी सफेद- 
धरती के भीतर ! 

काम करने वाला काम किए जाता है! 
मृत्यु से डरता नहीं!
जानता है जब वह मर जायेगा, 
आएँगे दूसरे और सँभालेंगे काम, 
चीनी कथा के उस मूर्ख बूढ़े की तरह 
जिसने पहाड़ ठेलना चाहा था । 
जो बाद में उसका काम उठाने आएँगे, 
इन तिक्तमन लोगों से मिलेंगे वे भी; 
उनको यहीं रहने दो : 
रोग के कीटाणुओं की तरह 
जिन्हें सुई से देह में डाला जाता है 
कि देह की रक्षा वे करें रोग से !

उक्त दूसरे अनुवाद में जो इटालिक में है साफ दिखायी पड़ रहा है कि वह इस कविता का हिस्सा नहीं हो सकता। पाठक इन दो पाठों के अंतर को खुद जाँचें। इस पर अलग से अब कुछ कहना ज़रूरी नहीं है। इसलिए मैं इस संकलन के अनुवाद की भाषा को लेकर कतई आश्वस्त नहीं हूँ। अनुवाद कविता में केवल भाव का होता है या वह कथ्य जो कवि अपने पाठक को सौंपना चाह रहा है। यदि अनुवादक इतना भर कर पाता है तो यह किसी भी कविता के अनुवाद की उपलब्धि है। विशेषज्ञ इसकी सिरे से पड़ताल कर सकते हैं। वैसी क्षमता मुझमें नहीं हैं। इसलिए मैं अब ऐसी अक्षम्य भूलों को दरकिनार कर कथ्य के रूप में जो मुझ तक पहुँच रहा है, उस पर कुछ बात कहना ज़रूरी समझता हूँ। वैसे भी किसी गढ़ी गई सैद्धांतिकी के अनुरूप उसकी सर्जना सौ प्रतिशत सही नहीं हो सकती। जैसे किसी आलोचक की अपेक्षा का संपूर्ण निर्वहन करने की क्षमता उसकी कला में नहीं होती। कुछ न कुछ रह ही जाता है।   

यह अनुवाद, जैसा कि भूमिका में ही अनामिका जी ने स्पष्ट कर दिया है, कि स्वयं कवि द्वारा मलयाली से अंग्रेजी में किए गए अनुवाद पर आधारित हैं। अनामिका जी ने जिन कविताओं में अनुवादक का स्वाभाविक धर्म निभाते हुए अपने रचनाकार को प्रकटतः स्थगित रखा है वहाँ कवि का मंतव्य मानीखेज तरीके से प्रकट हो पाया है। ऐसे अनुवाद के लिए उनकी प्रशंसा करनी होगी। इस संकलन से गुजरते हुए यह सहज ही दिखायी पड़ता है कि के.सच्चिदानदन जीवन की पूर्णता के कवि हैं। प्रेम, आसक्ति, ऐन्द्रिकता, ऊब, मृत्यु, प्रतिरोध, जन-पक्षधरता, नागरिक जीवन, इतर कलाओं के प्रति सहज आकर्षण, वैश्विक चिंतन – यानी जीवन का शायद ही कोई रंग हो, जिसके प्रति वे सहज और रचनात्मक रूप से आकर्षित न होते हों। इस आकर्षण में वे अपने ही द्वारा स्थापित जीवन के प्रतिमानों से बाहर जाने का जोखिम भी उठाते हैं। अनुभूत जीवन की तड़प और आकांक्षा को वे जिस तरह से कविता में ले आने को उद्धत दिखायी पड़ते हैं उससे उनकी रचनाशीलता के प्रति सहज जिज्ञासा पैदा हो जाती है। उनकी कविता में कहन के पीछे जो अर्थ छिपा रहता है, वह अद्भुत है। जैसे ‘वृद्धाएँ’ कविता : 

पार्क की किसी खाली बेंच पर टिकी 
नाम से बुलाती हैं वे फाख़्ताओं को 
और मुग्ध कर लेती हैं उनको 
भुट्टे के दानों से !             (पृष्ठ-43)  

फाख़्ताओं को नाम से बुलाने का मतलब ही यह है कि उस वृद्धा ने फाख़्ताओं के नाम रख छोड़े हैं ! इससे उसके अकेलेपन का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह विदेशों में बसी अपनी संततियों का इंतज़ार करती वृद्धा है। जाहिर है कि देश से बाहर जाकर कमाने वालों में मलयाली समाज अग्रणी है। 

के. सच्चिदानन्दन की कविता में क्रूरता के खिलाफ प्रतिबद्ध जन की उपस्थिति को कई रूपों में देखा जा सकता है। ज़रूरी नहीं कि इसके लिए प्रतिरोध की कोई अलग राजनीतिक कविता ही वे लिखें। अराजनीतिक-से लगते विषयों में भी वे जिस तरह राजनीतिक दृष्टि का समावेश करते हैं, वह ध्यान देने योग्य है। तुर्की की सत्ता के खिलाफ पार्क में केवल चुपचाप खड़े रहकर और एक दूसरे को चुंबन देकर अपना विरोध जताते जन पर लिखी दो कविताएँ – खड़ा आदमी और चुंबन - या इरोम शर्मिला के लिए लिखी ‘हाँ’ जैसी कविताएँ तो हैं ही, ‘हकलाहट’ और पत्थर’ जैसी कविताएँ भी हैं। इन दोनों ही कविताओं में चयनित उदासीनता और अकर्मण्यता के खतरों को अलग ही अंदाज में कवि ने रखा है। इससे परे ‘अनंत’ जैसी प्रदीर्घ प्रेम कविता या कि ‘राई’ जैसी कविता में भी राजनीतिक स्वर स्पष्टतः सुनाई पड़ते हैं : 

नन्हे मेरे दाने – किसने भरा है तुम्हारा यह नन्हा 
शरीर
इतने जोशो-खरोश से ? 
क्या तुम हो कोई गुरिल्ला योद्धा
तेलांगना-आक्रोश से धारते अपना रोष ? 
फिर धधकते तेल के स्पर्श से 
विस्फोटित आत्महत्या सेनानी ?             (राई, पृष्ठ-79) 

उक्त कविता में इटालिक  शब्द की जगह किताब में ‘तन्हा’ और ‘से’ छपा है जो मुझे लगा कि प्रिंट की गलती है, सो मैंने इन पंक्तियों को उद्धृत करते हुए सुधार लिया। 

प्रियजनों पर लिखी - बेटी, भग्न संवाद, शुरुआतें, सुलेखा, नानी - जैसी कविताएँ इस संकलन की उपलब्धि हैं। इसलिए कि इन्हें लिखते हुए संबंधों की आत्मीयता और गहरायी को जिस स्तर पर महसूस किया है, वह अब लगातार दुर्लभ होता जा रहा है। इन्हें केवल स्मृतियों की कविता नहीं कह सकते। खासकर ‘भग्न संवाद’ और ‘शुरुआतें’ को, जो असमय मृत हो गए दो साथियों पर लिखी गई है। इनमें बीते समय की स्मृतियाँ तो हैं ही, वह स्वप्न भी है जो प्रियजन के न होने के बावजूद तिरोहित नहीं हुआ है। इसके साथ ही दुनिया के महान रचनाकारों और उनकी रचनाशीलता पर केन्द्रित कुछ महत्वपूर्ण कविताएँ – हरा (केन सारो बीवा पर), वॉन गॉग के जूते, अशांति (कैण्टो की आत्मकथा पर केन्द्रित), मसीहा (दोस्तोएवस्की पर) - भी ध्यान खींचती हैं। ऐसी कविताएँ उनके वैश्विक अध्ययन और चिंतन को दर्शाती हैं, साथ ही सृजन की चुनौतियों के समक्ष जीवन खपाने के साहस को भी रेखांकित करती है। वे कहते हैं कि दुनिया के विस्तार में अपना जीवन खपाकर कुछ रच पाने की जिजीविषा के सामने ईश्वर भी नतमस्तक होता है ! जैसे ‘मसीहा’ कविता में जीसस कुर्सी के पीछे खड़ा, दोस्तोएवस्की के द्वारा पन्नों पर रचे जीवन संगीत को सुनता है। इसी क्रम में कश्मीर पर लिखी कविता ‘जब लल्लदेद बोली सीमाओं के खिलाफ’ को भी लेना चाहिए। ये कविताएँ विशुद्ध राजनीतिक कविताएँ हैं और इनमें मनुष्यता के विरुद्ध सक्रिय और तत्पर सत्ताओं के बरअक्स रचनाकारों के दायित्व को रेखांकित किया गया है। 

प्रेम पर कविता लिखते हुए के. सच्चिदानन्दन भाव-बोध और मांसल प्रेम, उदात्त भाव और ऐन्द्रीयता के बीच फर्क नहीं करते। हिंदी में प्रेम कविताओं पर मर्यादा और विचार का कुछ इस तरह का दबाव रहा कि इससे जुदा भावों, खासकर जिसमें उद्दाम आकांक्षाएँ व्यक्त होती हों, से बचा जाने लगा। ऐसी ऐन्द्रीय और मांसल आकांक्षाओं को  कलावादी कहे जाने वाले  कवियों के लिए छोड़ दिया गया। इस तरह लम्बे समय से हिन्दी में प्रेम के दो वर्ग बन गए। उद्दाम दैहिक आकांक्षाएँ व्यक्त करने वाले कवि विचार-शून्य होते गए और मर्यादा वादी कवि विचार में अग्रणी रहे। लेकिन हिन्दी से इतर भारतीय और गैर-भारतीय भाषाओं की प्रेम कविताओं में ऐसा विभाजन नहीं है। नेरूदा, नाजिम हिकमत, शंख घोष जैसे कितने ही उदाहरण लिए जा सकते हैं। के. सच्चिदानन्दन को भी इसी कड़ी में लिया जाना चाहिए। चुंबन, देहयष्टि का उत्तप्त स्पर्श, केले की कलियों का स्तनाग्र पर मलना, दंतक्षत जैसे विवरण तो उनकी लम्बी कविता ‘अनंत’ में है ही, वे वियतनाम के युद्ध से बचकर भागती ग्यारह वर्ष की लड़की में भी अपनी प्रियतमा को देखते हैं। प्रेम उनके लिए व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया है। ‘एक औरत को प्यार करना’ जैसी कविताएँ इसकी गवाह है। लेकिन इस प्रेम के लगातार सीमित होते जाने को भी वे महसूसते हैं। ‘महानगर में प्यार’ में लिखते हैं :     

महानगर में प्यार 
एक गुलाब है  फेंका हुआ 
एक तेज गाड़ी से दूसरी पर फेंका हुआ। 

महानगर में प्यार 
एक सायनायड की गोली 
किसी तरह  से जिसका  करके  जुगाड़ 
खा लेता है कैदी जेल के भीतर ! 
यह वह कभी  जान पाता नहीं 
मीठा था या कि कड़वा !             (पृष्ठ- 116)  

इसी तरह की एक और कविता है ‘इन दिनों प्रेम कैसे मरता है’। वे लिखते हैं – मरता है प्रेम जैसे कौवे मरते हैं। महानगरीय जीवन की आपा-धापी और दौड़-भाग कैसे हमारा चैन हथिया लेती है इसे लेकर वे लगातार सोचते रहे हैं। कलाएँ और सुकून, मद्धिम आँच में पकते हैं। गति की तेज आँच में जीवन और प्रेम केवल जलता है। ‘घोंघा’ कविता में भी लिखते हैं – ‘मगर हम प्यार भी निपटाते हैं जल्दी से !’ वे घोंघा के माध्यम से ‘धीरे’ का आग्रह करते हुए दिखाई पड़ते हैं। प्रेम के प्रति उदासीन परिवार, जो अपनी रोजमर्रा की मध्यवर्गीय रुचियों का बंदी है, की स्थिति को व्यक्त करती उनकी गद्य कविता ‘नरक की रपट’ इस संकलन में अलग से ध्यान खींचती है। परिवार संस्था की खामियों को जिस तरह से नरक के रूपक के माध्यम से उन्होंने रखा है, वह दिलचस्प है। के. सच्चिदानन्दन इस कविता में परिवार तंत्र के मौजूदा मध्यवर्गीय ढाँचे को स्वतंत्र व्यक्तित्व की निर्मिति के अवरोध के रूप में चिह्नित करते हैं। इसमें वे प्रेम विहीन सेक्स तक को अनिद्रा की चिकित्सा और ऊब कहते हैं। बेशक यह एक साहसिक कविता है। और चुनौतीपूर्ण भी, क्योंकि ऐसे विषयों को साहित्य में लाने के दोहरे खतरे हैं। एक तो उसे रचनाकार विशेष के निजी जीवन से जोड़कर देखा जाने लगता है और दूसरा इसे उसके अंतिम निष्कर्ष के रूप में चिह्नित किया जाता है।     

 इस संकलन में ऐसी कई कविता है जो के. सच्चिदानन्दन ने अपनी सृजनात्मक प्रक्रिया पर लिखी हैं। जैसे अलिखित कविता, जली हुई कविताएँ, फोटोग्राफर, कैक्टस, लौटेगी कविता, मृत कविता, कविता कहाँ इसमें, कविता से कवि, माफ करो आदि। कविता पर विश्वास और उसे लिखे जाने की ज़रूरत और मुश्किलों को संबोधित ये कविताएँ मौजूदा सृजनात्मक संघर्ष को समझने की दृष्टि से भी ज़रूरी कविताएँ हैं। जीवन से सौंदर्य के लगातार छीजते जाने और उसे अभिव्यक्त करने को अभिषप्त कवि की मुश्किल इन कविताओं में साफ दिखाई पड़ती है। ‘फोटोग्राफर’ और ‘कैक्टस’ इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। एक सुंदर दृश्य के समानांतर कुरूप और जुगुप्सा जगाने वाले दृश्य की आक्रामक उपस्थिति को ‘फोटोग्राफर’ में दिखाया गया है। ‘कैक्टस’ जैसे इस स्वीकृति का औचित्य है :

एक-एक काँटा है मेरा,
ललचाता नहीं तितलियों को मैं, 
कोई भी चिड़िया मेरी प्रशस्ति नहीं गाती, 
मैं किसी सुखाड़ को समर्पित नहीं ! 
रचता हूँ अलग ही तरह का सौंदर्य
पार चाँदनी के, 
सपनों के इस पार 
तेज़, नुकीली एक 
भाषा : समानांतर                (पृष्ठ-76)         

के. सच्चिदानन्दन अपनी कविताओं में न केवल गतिहीन सौंदर्य, प्रेम या सृजनात्मक संकट की चुनौतियों को रखते हैं बल्कि मिथकों के प्रचलित अर्थ और रूढ़ हो चुके प्रतीकों से बाहर जाने का जोखिम उठाते हैं। घोंघा, कैक्टस जैसे प्रतीक तो हैं ही। दस छोटे परिच्छेदों में लिखी कविता ‘एक पहल बातचीत की’ के छठवें परिच्छेद में उन्होंने रामकथा के एक प्रसंग को जिस नए अर्थ में रखने का जोखिम उठाया है वह साहसिक ही है। कविता कब लिखी गई यह तो इस संकलन से पता नहीं चलता, लेकिन आज इसे पढ़ना भी साहसिक ही माना जाएगा : 

आशान सी सीता बैठी है बीच में कहीं जंगल और आग के 
जो उसको उसके स्वामी ने दिये 
और याद करती है बालयान 
रावण की जिसने कि उसको सिखाया 
है प्यार क्या !

रावण  की तरह सान्द्र 
एक राक्षस-बच्चे की एषणा में
दुखती है सीता की कोख !             (पृष्ठ-96)

के. सच्चिदानन्दन ने अपनी अंतिम यात्रा को जिस तरह से कल्पित किया है वह जीवन के पक्ष में खड़ा हुआ कवि ही कर सकता है। इसमें कवि ने यह इच्छा प्रकट की है कि बिल्ली, पड़ोसी, बारिश, कढ़ी पत्ते का वृक्ष, कबूतर, किताब, गुलमोहर के साथ उन्हें इत्मीनान से अंतिम विदा लेने दिया जाए। गीता पढ़ने की सख्त मनाही है क्योंकि उन्हें एक और युद्ध अब बर्दाश्त नहीं। राख हो जाने से पहले उनका नरमुण्ड फुसफुसा कर जो यह कहेगा, उसे जीवन के पक्ष का तर्क मानना चाहिए – 

उतना बुरा भी नहीं था 
धरती पर मेरा प्रवास, अगर ज़रूरत हो तो 
मुझे दुबारा आने से गुरेज नहीं !         (पृष्ठ-202)

जीवन के पक्ष में तमाम आत्मवादियों के विरुद्ध और भौतिकवादी दार्शनिकों के समानांतर कवि का यह कहना बहुत विश्वसनीय है। यह जीवन की तमाम सीमाओं के बावजूद जीवन के पक्ष में लिखी कविता है। 

‘खोयी हुई चीज़ें’ भारतीय रचनाशीलता के साझेपन और विशिष्टता को संबोधित एक महत्वपूर्ण संकलन है। उन तमाम खामियों के बावजूद, जिसका उल्लेख आरंभ में हो चुका है। हम पाठक उम्मीद कर सकते हैं कि अनामिका जी आगे के अनुवाद में अधिक जागरूक, सचेत और अनुवादक की अपनी अपेक्षाओं के निकट होंगी।

पुस्तक: खोयी हुई चीजें 
कवि: के. सच्चिदानन्दन 
चयन एवं अनुवाद : अनामिका 
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन 
मूल्य: रुपये  425 

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