पिछले कुछ दशकों में हमारे गांव और शहर दोनों बरबाद हुए हैं। गांव अपने ठहराव में सड़ांध और बिखराव के शिकार हुए हैं तो शहर अपने बदलावों की वजह से हांफ रहे हैं। गांव इस तरह ख़ाली हो रहे हैं कि खंडहर हुए जा रहे हैं और शहर इस तरह भर रहे हैं कि वहां करवट बदलने की जगह नहीं बचती। इस स्थिति ने एक बहुत बड़ी नागरिक आबादी को भयावह यंत्रणादायी वर्तमान में छोड़ दिया है। समाजशास्त्रीय भाषा जिसे 'अग्रेरियन क्राइसिस' और 'अरबन पुअर प्लाइट' के रूप में पहचानती है, वह दरअसल भूख-प्यास, बेघरी और अंततः मौत या आत्महत्या का वह यथार्थ है जिससे हम आंख मिलाने से बचते हैं।
सविता पाठक का उपन्यास 'कौन से देस उतरने का' इस दुखदायी यथार्थ के बहुत सारे पहलुओं को जोड़ कर रचा गया है। दिल्ली की चमचमाती मेट्रो के आभिजात्य से लेकर पुरानी-ग़रीब बस्तियों की नारकीय स्थितियों तक और गांवों के सड़ांध से विस्थापन की तकलीफ़ तक- वे कई सिरों को लगभग अचूक संवेदनशीलता के साथ छूती हैं और पाठक को मजबूर करती हैं कि वह उनके साथ इन तमाम जगहों के चक्कर लगाए। चलते-चलते वे उन लोगों तक भी पहुंचती हैं जिनकी कोई बस्तियां नहीं होतीं, जिनके घर नहीं होते और जो रेलवे पुलों और फ्लाई ओवरों के नीचे या कचरे के पहाड़ों के बीच जीवन गुज़ारने को मजबूर होते हैं। जिसे उपन्यास का केंद्रीय चरित्र कहा जा सकता है वह मुनीश ऐसी ही किसी सड़क पर एक लावारिस लाश सा पड़ा हुआ है। ठंड और भूख के बीच उसकी आती-जाती चेतना उसे अवचेतन के उन हिस्सों में ले जाती है जहां बचपन में मां की स्मृति है, जहां गरम भात खा लेने की पुकार है, जहां एक कोल्हू है जिससे एक बच्चा लगातार अपना एकांत साझा करता है।
नहीं, यह कोई भावुक आख्यान नहीं है जिसमें गांव के सरल-सुंदर जीवन के नॉस्टेलजिक चित्र हों। यह ठोस यथार्थ पर चलता उपन्यास है जिसमें गांव और घर-परिवार की अपनी यंत्रणाएं हैं। इसमें एक स्त्री भी है जो बस इसलिए अपने पति के हाथों पिटती है कि वह गीत गाती है और गांव के समारोह में नाच लेती है। फिर धीरे-धीरे इसमें कई स्त्रियां दिखती हैं जो अलग-अलग वजहों से जीवन के हाथों पिटती रहती हैं - कई पुरुष भी जो गरीबी और उपेक्षा की मार खाकर गांव छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं। बड़ेलाल और आजी की कहानियां अपने आसपास से उठाई हुई और जानी-पहचानी लगती हैं लेकिन उन्हें नए सिरे से देखना-पढ़ना उदासी से भर देता है।
कई चरित्रों और स्थितियों का 'कोलाज'
धीरे-धीरे हम पाते हैं कि यह उपन्यास कई चरित्रों और स्थितियों के कोलाज में बदलता जा रहा है। अलग-अलग वजहों से गांव छोड़ने को मजबूर युवा और बुजुर्ग शहरों में कारखानों में काम करने से लेकर रिक्शा चलाने और भीख मांगने तक का काम कर रहे हैं। वे तंग कमरों से उठ कर कूड़े के ढेर तक में रहने को मजबूर हैं। लड़कियां भी शहर आ रही हैं और संघर्ष कर रही हैं। बीते हुए कल के किसान आज के दिहाड़ी मज़दूर हैं और यह मज़दूरी भी उनसे छिन जा रही है। कभी उनके पास एक सांस्कृतिक स्मृति हुआ करती थी, अब उनकी कुंद होती चेतना में बस उसकी ऊबती-डूबती यादें हैं।
लेखिका के सामने इन सारे चरित्रों और कथा सूत्रों को गूंथने की चुनौती है। मुनीश के लिए उन्होंने कुछ ज़्यादा ही दुर्भाग्य रच दिए हैं। गांव-घर के समारोहों में गीत-नृत्य गा लेना, अपने पास इन लोकगीतों की कॉपी रखना और इन सबके लिए कभी-कभार तारीफ़ पा लेना मुनीश की मां का अपराध है। यह बात उनके फ़ौजी पति को इस क़दर चुभती है कि वह उसे 'रंडी' बताने के साथ-साथ सबके सामने जब तब पीटता रहता है। अरसे तक वह गांव से बाहर रहता है। इसी दौरान पत्नी किसी के क़रीब आती है और उसे गर्भ ठहर जाता है। इस अक्षम्य अपराध की सज़ा उसकी संतान को जन्म लेते भुगतनी पड़ती है जिसे मार दिया जाता है और उसकी मां को उम्र भर, जिसे ज़िल्लत, मारपीट सबकुछ सहनी पड़ती है। इस दौरान उसके दो बच्चे और हैं जिनमें एक मुनीश भी है। लेकिन तब तक सब कुछ संदिग्ध हो चुका है। अब वह संदिग्ध संतान है और पिता द्वारा उपेक्षित-उत्पीड़ित भी है।
उसका बड़ा भाई- जिसकी वैधता अपने पिता की निगाह में बिल्कुल असंदिग्ध है- अपनी बुआ के घर रह कर पढ़ता है और अंततः विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और और प्रो वीसी तक बनने की राह पर है। वह देश की राजधानी की संभ्रांत कॉलोनी का संभ्रांत बाशिंदा हो चुका है। दूसरी तरफ़ आधी-अधूरी स्कूली पढ़ाई करके निकला और अपनी बिल्कुल लाचार बना कर छोड़ दी गई मां के स्नेह की स्मृति के साथ जी रहा मुनीश पहले गांव से निकल कर रुड़की की एक दुकान में नौकरी करता है, फिर गांव लौटता है और इसके बाद दिल्ली आकर उस तलछट में शामिल हो जाता है जिसे हम रोज देखते हुए अनदेखा करते हैं। वह कई काम करता है, अंत में रिक्शा चलाता है और अंततः एक दिन सड़क पर मरणासन्न पड़ा मिलता है।
इस मोड़ पर कुछ रुकने की इच्छा होती है। काली मंदिर के किनारे पड़े मुनीश की स्मृतियों से ही उपन्यास के मूल रेशे बन रहे हैं, लेकिन ये स्मृतियां इतने मानवीय और संवेदनशील ढंग से दर्ज की गई हैं कि गहरी करुणा जगाती हैं। दरअसल यह उपन्यास अपने इन हिस्सों में बेहतरीन है। गांव-घर के छोटे-छोटे दुख जो बहुत बड़े साबित होते हैं, लोगों के आपसी रिश्तों के तनाव, संबंधों में पड़ती और बढ़ती फांक, आंगनों और गलियों में होने वाले संवाद, कुओं में डालकर मारी जाती लड़कियां, अभाव और संकट के चरम पर अपने हिस्से का जीवन जीने की ज़िद और उसके बीच होने वाली चुहल, एक बीमार भाई का कातर अनुरोध कि बड़ा भाई उसका इलाज करा दे, अपने बीमार मरणासन्न भाई का फोन काटता प्रोफेसर भाई- यह उपन्यास जैसे एक बड़ा आईना हो जाता है जिसमें पिछले कुछ दशकों में टूटते गांव-शहरों को पहचाना जा सकता है।
इस पहचान में एक बात और है। ऐसा नहीं कि हिंदी में पलायन और विस्थापन की कथाएं नहीं हैं। हाल ही में भारत के विकट ग्रामीण यथार्थ पर केंद्रित शिवमूर्ति का महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘अगम बहै दरियाव’ आया है। कृषि-क़र्ज़ के जाल पर हरियश राय का उपन्यास ‘माटी राग’ भी इस विषम यथार्थ की कथा कहता है। लेकिन सविता पाठक की कथा गांव से शहर आते-आते जिस तलछट को छूती है, वहां अमूमन हिंदी के लेखक अब जाते नहीं। जबकि यह तलछट उनके बिल्कुल पास है। जिन चमचमाती सड़कों और फ्लाई ओवरों के ऊपर से उनकी गाड़ियां गुज़रती रहती हैं, उनके ठीक नीचे यह तलछट सोता-जागता और जीता है। हमारे समय, समाज और संवेदन में यह छोटी सी दूरी लगभग अलंघ्य बनी हुई है- यह विडंबना भी काफी कुछ कहती है। सविता पाठक ने यह दूरी तय की है- यह बड़ी बात है। जिस सड़क के किनारे मुनीश पड़ा हुआ है और अपने मुंद रहे जीवन के आख़िरी स्वप्न देख रहा है, वहीं से गुज़र रही एक लड़की कुछ पसीजती है और ठंड में ठिठुर रही इस ठठरी को अपना शॉल उढ़ा आती है। उसके हिस्से अपने पिता की स्मृति है जो बरसों पहले घर छोड़कर चले गए और फिर नहीं लौटे। उसकी मां के हिस्से एक कातर और क्षीण प्रतीक्षा है जिसमें बेटी भी साझा करने लगी है- इस अंदेशे से भरी कि सड़क पर पड़ी ऐसी किसी देह को उसकी मां पहचान न ले।
कथा सूत्र इसी लड़की के हाथ में है। उपन्यास के शुरू में ही वह एक लड़के और एक कोल्हू का ज़िक्र करती है और कहती है कि उस लड़के में वह भी शामिल है। यह शामिल होना आसान नहीं है। यह उसके सपनों में शामिल होना है, इन सपनों की उंगली पकड़ कर उसकी स्मृतियों में उतरना है और अंततः उस सच से आंख मिलानी है जो दरअसल उसका भी उतना ही है जितना इस लाश की तरह पड़े हुए लड़के का।
विश्वसनीय और समृद्ध ग्रामगंधी भाषा
उपन्यास में गहन यथार्थ-बोध है जिसे लेखिका की बहुत विश्वसनीय और समृद्ध ग्रामगंधी भाषा सजीव करती चलती है। यह उपन्यास व्यक्तियों की कहानी नहीं रह जाता, उन स्थितियों का आख्यान बन जाता है जिसमें फंसे और छटपटाते ये लोग किसी तरह अपना जीवन जीने- बल्कि काटने- को मजबूर हैं। बेशक, इन्हीं के बीच कुछ लोग हैं जो गांव के सामंती मिज़ाज और शहर की मुनाफाखोर तबीयत के बीच अपने हिस्से की लूट-खसोट कर लेते हैं। इस लिहाज से यह उपन्यास पुरानी सामंती सड़ांध के अलावा नई आर्थिक लूट का भी आईना बनता है।
उपन्यास पठनीय है लेकिन फिर भी एक अतृप्ति सी रह जाती है, कुछ छूटा सा लगता है। वह क्या चीज़ है? शायद लेखिका ने जितने चरित्र खड़े किए वे और जगह चाहते थे, उनका रंग पर्याप्त गाढ़ा नहीं हो पाया। दूसरी बात यह कि लड़के और कोल्हू के जिस रिश्ते को उपन्यास के शुरू में लगभग केंद्रीय सी जगह मिलती दिखी, वह कहीं भी स्थापित नहीं हुआ- कहीं-कहीं लेखिका उसे छू कर ज़रूर निकल गई। इसी तरह मुनीश में अपने भी शामिल होने की बात लेखिका कहती तो है, लेकिन वह उस प्रगाढ़ता से उभर नहीं पाई है कि अपने पाठकों को स्पंदित कर सके। लेकिन इसके बावजूद गांव से महानगर तक की कई सामाजिक विडंबनाओं की उपन्यास में बहुत खरी पहचान मिलती है और यही वजह है कि उपन्यास हमारे समकालीन समय की एक महत्वपूर्ण कृति बन जाता है।
किताब: कौन से देस उतरने का
लेखक: सविता पाठक
प्रकाशक: लोकभारती पेपरबैक्स
मूल्य: 299 रुपये
पृष्ठ: 158