Photograph: (सोशल मीडिया)
(मेय मस्क की आत्मकथा ‘जब औरत सोचती है’ का संदर्भ)
सवालों के बिना ज्ञान-विज्ञान की दुनिया में एक क़दम बढ़ाना भी मुमकिन नहीं। ज्ञान का क्षेत्र चाहे विज्ञान के अनुशासन का हो या अध्यात्म, दर्शन, कला और साहित्य का। ज्ञान का लक्ष्य ही है अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों के ज़रिए यथार्थ की जटिलताओं से मुठभेड़ करना ताकि समय, सृष्टि एवं व्यक्ति-मानस से जुड़े सवालों को सुलझाने की दिशा में क़दम बढ़ाया जा सके। लेकिन हर जवाब नए सवाल पैदा कर ज्ञान की खोज को जीवन का अनंतिम सत्य बना बैठता है।
शायद इसलिए आज भी यह सवाल अनुत्तरित है कि हम साहित्य क्यों पढ़ते हैं? ख़ास तौर से आत्मकथात्मक साहित्य में वह कौन-सा बिंदु है जो हमें किसी की निजता में झांकने को प्रेरित करता है? क्या इसे हम वोयूरिज्म की तामसी प्रवृत्ति मानें? लेकिन साहित्य अंतस के परिष्कार का कलात्मक माध्यम है, तामसी वृत्तियों के पोषण का नहीं।
इसलिए सवाल उठता है कि जब पाठक आत्मकथाकार की निजता का राजदार बनता है, तब वह दरअसल रसास्वाद की प्रक्रिया में किस स्रोत में आनंद पा रहा है? रसास्वादन की प्रक्रिया पाठक के ज्ञान-बोध के अनुरूप दो स्तरों पर चलती है। पहले स्तर पर वह स्थूलताओं यानी तथ्य, घटनाओं, संघर्ष के ब्यौरों, उपलब्धियों को महत्वपूर्ण मानता है और उनके आलोक में उभरने वाले आत्मकथाकार (जो अमूमन सफल प्रतिष्ठित सामाजिक व्यक्तित्व ही होता है) के जीवन-संघर्ष से नाता जोड़ता है। यह प्रेरणा और प्रभाव का भावुक स्तर है जहाँ पाठक महज़ निष्क्रिय उपभोक्ता है।
दूसरा स्तर बोध का वस्तुपरक संश्लिष्ट स्तर है जहाँ विश्लेषक और सह-सर्जक के रूप में पाठक हस्तक्षेप करता है। लिहाज़ा वह प्राथमिक स्तर पर जुटायी गई तमाम सूचनाओं से तादात्मीकरण करते हुए उनकी स्थूलताओं को बिसरा देता है। याद रखता है, उसके व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले उन तमाम अवयवों को जो उसके चरित्र, जीवन-दृष्टि, अंतर्ज्ञान और स्वप्न को बुनते हैं। यानी प्रतिकूलताओं से जूझने का हौसला, संकल्पदृढ़ता, निर्णय लेने की क्षमता, धीरता, संयम, कर्मठता और वैचारिक उदारता। साहित्य में पाठक ‘मनुष्य’ को बनते हुए देखना चाहता है और इस प्रक्रिया में एक मनुष्य-इकाई के रूप में अपने व्यक्तित्व-वैशिष्ट्य की भी निस्संग जाँच कर लेना चाहता है। तब आत्मकथा उसे व्यक्ति से ही नहीं जोड़ती, अपने समूचे समाज, संस्कृति और मनोवृत्तियों का विश्लेषणात्मक पाठ करने का सामर्थ्य भी देती है।
मेय मस्क की आत्मकथा ‘जब औरत सोचती है’ को पढ़ना वैश्विक संस्कृति के संदर्भ में एक स्त्री के संघर्ष को जानना भर नहीं है, न ही यह रेखांकित करना कि मनुष्य-इयत्ता कहाँ और कैसे एक दिन अकस्मात् बुलंदियों के आसमान को छू लेती है, बल्कि इस तथ्य को गुनना है कि ऊपरी तौर पर दिखाई पड़ती ‘आकस्मिकता’ की कौंध दरअसल असफलताओं से बुनी-कुतरी जाती संघर्षशील जिजीविषा का आत्मविश्वास ही है।
पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर प्रमुखता से विज्ञापननुमा दो टिप्पणियाँ छपी हैं। पहली टिप्पणी पुस्तक के बेस्ट सेलर होने की सूचना है कि अब तक छह साल में विश्व की कुल बत्तीस भाषाओं में इसकी दस लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। दूसरी टिप्पणी पुस्तक के कथ्य की सूचना देती है कि यह “रोमांच, सौंदर्य और सफलता से भरी ज़िंदगी के नुस्ख़े” प्रस्तुत करती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि पुस्तक जिंदगी को जिद और जिजीविषापूर्ण नजरिये से जीने की परिपक्व दृष्टि का बयान है।
मेय मस्क औसत भारतीय के लिए अपरिचित हो सकती हैं, लेकिन वे दो वज़हों से ख्यात हैं। एक, साठ वर्ष की उम्र से मॉडलिंग करियर को ऊँचाई पर ले जाने वाली अमेरिकी मॉडल आइकॉन के रूप में। दूसरे, विश्व के सर्वाधिक धनी व्यक्ति इलॉन मस्क की माँ के रूप में। ज़ाहिर है इस परिचय के बाद पुस्तक पढ़ने का उत्साह बढ़ता भी है और कुछ पूर्व-धारणाएँ भी निर्मित होने लगती हैं कि धन-कुबेर परिवार की स्त्री क़े जीवन में संघर्ष कैसा? क्या ‘वह तथाकथित संघर्ष’ हम तीसरी दुनिया के लोगों का उपहास नहीं करता जो दो जून रोटी, साफ़ हवा-पानी और मनुष्य-गरिमा के अभाव में पीढ़ी दर पीढ़ी निरर्थक जिए चले जाते हैं?
बेशक़ मेय मस्क की यह पुस्तक साहित्यिक आत्मकथा नहीं है जहाँ वैचारिकता, दार्शनिक चिंतन या मनोविश्लेषण की गूढ़ प्रविधियां पाठक को सम्मोहित करें। यह बेस्टसेलर पुस्तक है जो सीधी सरल भाषा में अपने जीवनानुभवों से निकले वैचारिक दर्शन से बुनी गई है।
यह पुस्तक दो वज़हों से ख़ास उल्लेखनीय है। एक, यहाँ निजी जीवन का पुनरावलोकन करते हुए क्राइसिस को गहराने वाली उन घटनाओं को प्रत्यक्ष किया गया है जो एक इकाई के रूप में मेय के व्यक्तित्व-विकास में सहायक हुईं। दो, ग्लैमर और उपभोक्ता संस्कृति के दबाव में जीती युवा पीढ़ी की स्त्री का दिशा-निर्देश करती है ताकि अपने दिल, दिमाग़ और देह तीनों पर नियंत्रण पाकर वह दुनिया में मनवांछित मुक़ाम हासिल कर सके। लेकिन प्रबोधन की इस प्रक्रिया में पूरी एहतियात यह बरती गई है कि पुस्तक किसी भी तरीक़े से प्रवचन-शास्त्र न बन जाए।
रोचक अंतरंग संवाद की शैली में रचित यह पुस्तक अपनी जड़ों (पारिवारिक इतिहास) को खंगालने के क्रम में सबसे पहले 1930 की महा मंदी के दौरान उत्तर अमेरिकी महाद्वीप सहित कैनेडा की राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों की थाह लेती है। यह वह समय था जब विवाह-बंधन में बँधने से पूर्व मेय मस्क के माता-पिता अपनी मध्यवर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि में अभावों के बीच पढ़ाई पूरी कर रहे थे।
मेय के पिता मैडिसन की पढ़ाई का खर्चा उठाने के लिए पार्ट टाइम जॉब के रूप में घुड़सवारी का प्रशिक्षण दे रहे थे और माँ नृत्य सीखने के लिए अख़बार में काम करके पैसा कमा रही थीं। वे बताती है कि जिद, जनून और सनक उन्हें पिता से विरासत में मिले हैं जिन्होंने उनके परिवार को बाकियों से अलगाया। पिता डे ड्रीमर भी थे और हाड़तोड़ मेहनतकश भी। घुमक्कड़ी उनका स्वभाव थी।
इसलिए जब आर्थिक स्थिति मज़बूत हुई तो अपनी महंगी इम्पोर्टेड कार बेच कर उन्होंने सेकेंडहैंड हवाई जहाज़ खरीदा जो प्रोपेलर से चलता था और नेवीगेशन के लिए स्वचालित यंत्र की बजाय नक़्शों और कम्पास की मदद लेनी पड़ती थी। इसी जहाज़ से उन्होंने सपरिवार आस्ट्रेलिया तक की तीस हज़ार मील की दुष्कर दूरी भी तय की। फिर 1950 में उन्होंने अपनी लगी-लगायी कायरोप्रेक्टिशनर की बढ़िया नौकरी छोड़ दी और सपरिवार साउथ अफ़्रीका के लिए रवाना हो गये। वजह सिर्फ़ यह कि वे गिलेरमो फरिनी जैसे दुस्साहसी युवक से अत्यधिक प्रभावित थे जिसने उन्नीसवीं सदी के अंत में तनी हुई रस्सी पर चलकर न केवल नियाग्रा फाल्स को पार किया बल्कि अफ़्रीकी महाद्वीप के नौ लाख वर्ग किलोमीटर में फैले विशालकाय मरुस्थल कालाहारी की यात्रा करते हुए कई लापता शहर भी खोज निकाले थे।
मेय के पिता ने भी निश्चय किया कि वे अनंत सफर पर निकल कर मरुस्थल में लापता बस्तियों/शहरों को खोज निकालेंगे। दरअसल उनके लिए ज़िंदगी का अर्थ था सपनों और पैशन का पीछा करते हुए जीना। सुख, आराम और निरापद भविष्य जैसी सांसारिकताओं से कोई वास्ता नहीं।
संपन्नता के बीच ‘चुनी गई फ़क़ीरी’ जीवन के बंद घेरों और बिंधी हुई लकीरों का अतिक्रमण करती है। बचपन से ही परिवार के साथ निरंतर दुस्साहसिक (एडवेंचरस) सफ़र में बने रहने की मानसिकता ने मेय को जिज्ञासु, ऑब्जर्वर, निडर, जुझारू और लचीला तो बनाया ही, न्यूनतम में से अधिकतम जीवनीशक्ति अर्जित करके अपनी लड़ाई को जारी रखने का आत्मविश्वास भी दिया। मौत को सिरहाना बनाकर जीने का जुनून ज़िंदगी में अपने राजमार्ग तलाश ही लेता है। यह जुनून बचकानी भावुकता को संकल्पदृढ़ता में बदलता है और मुहैया बैसाखियों की बजाय अपने पैरों में इरादों की मज़बूती भरता है।
नॉस्टेल्जिया, पश्चाताप, रोने-गरियाने ठाठ और किंकर्तव्यविमूढ़ता उन्हीं लोगों के अग़ल-बग़ल डेरा डालते हैं जो अपनी तंग कुठरियों में महफ़ूज़ बने रहने की फिक्र में बदन सिकोड़े पड़े रहते हैं। इसलिए मेय की भाषा में आँसू, दैन्य, बड़बोलापन या अवसाद नहीं है। अतीत की अंदरूनी गलियों में चहलक़दमी करते हुए वे राग या द्वेष किसी को भी अपने ऊपर हावी नहीं होने देतीं। बस उन्हें देखती हैं, कहती हैं, और आगे बढ़ जाती हैं। वीतरागी की तरह नहीं, अड़चनभरी एक और पग-बाधा दौड़ को पार करने की प्रेरणा लेकर।
पति की अमानुषिकता का वर्णन करते हुए उनकी क़लम कहीं-कहीं ज़रूर कांपी है। ख़ासकर विवाह के तीन वर्ष के भीतर तीन बच्चों का जन्म, और छोटे-छोटे बच्चों के सामने पति द्वारा गाहे-बगाहे दरिंदगी से इस क़दर पीटा जाना है कि अगली सुबह डायटीशियन के रूप में अपने मरीज़ों से बात करते हुए उन्हें चोट के निशान छुपाना मुश्किल हो जाता था।
पति से तलाक़ की दस वर्षीय लंबी क़ानूनी प्रक्रिया … सिंगल मदर के रूप में तीन बच्चों की परवरिश … और फिर अचानक बयालीस साल की उम्र में बड़े बेटे एलन मस्क के आग्रह पर एक बार फिर कनाडा लौटने का निर्णय! मेय के व्यक्तित्व में परम्परागत आत्मत्यागी, समर्पिता भारतीय माँ को देखना कठिन नहीं। लेकिन ठीक यहीं वे आत्माभिमानी कर्मठ स्त्री के रूप में अपनी स्वायत्त पहचान हेतु जूझती भी नज़र आती हैं। ज़िंदगी मानो तराजू हो। एक पलड़े पर बच्चे और दायित्व। दूसरे पर निजी अस्मिता का स्वाभिमान। ऊँच-नीच की कोई गुंजाइश नहीं। दोनों पलड़ों के लिए समन्वय और समतोल जरूरी।
इसलिए यहाँ से उनकी ज़िंदगी के अगले बीस बरस एक सामान्य भारतीय पाठक के सामने कंट्रास्ट, आश्चर्य और प्रेरणा के रूप में उभरते हैं। यह वह उम्र है जब ज़िंदगी अमूमन एक ढर्रे पर चल निकलती है और ज़रा सा पैर फैलाकर व्यक्ति अपनी देह को ढीला छोड़ देता है। युवा होते बच्चों से उम्मीदें और नाकामयाबियों के लिए विधाता से अनगिन शिकायतें! लीक पर चलती ज़िंदगी लीक तोड़ने का जोखिम नहीं लेना चाहती। लेकिन मेय सिर पर कफ़न को स्कार्फ की तरह बाँध लेती हैं। वे बताती हैं कि एक बैडरूम अपार्टमेंट में कैसे वह अपनी बेटी के साथ पलंग पर सोती थीं और दोनों बेटे लिविंग रूम में सोफ़े और जमीन पर। कैसे अपनी प्रतिभा और मेहनत के बूते तीनों बच्चों ने अपने लिए कॉलेज और स्कॉलरशिप तलाशे। कैसे स्कूल के बाद बेटी ने माँ की आर्थिक मदद के लिए डिपार्टमेंटल स्टोर के टॉयलेट आदि साफ़ करने की नौकरी की।
इन सबके बीच वह स्वयं तीन स्तरों पर संघर्ष करती रहीं। सबसे पहले उन्हें कनाडा की मेडिकल शिक्षण संस्थानों की अपरिहार्यताओं के मुताबिक़ अपनी डिग्री को परीक्षाएं पास कर री-वैलिड कराना था और बेहतर भविष्य के लिए पीएचडी की पढ़ाई को आगे बढ़ाना था। इसके लिए बाकायदा एडमिशन लेकर उन्होंने यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की और साथ ही जूनियर कक्षाओं को पढ़ाने का काम भी किया।
दूसरे, डायटीशियन के रूप में अपने कैरियर को बनाने के लिए कॉलेज के बाद वे लोगों के छोटे-छोटे समूहों को संबोधित कर डाइट और स्वास्थ्य सम्बंधी नि:शुल्क सलाह देतीं… अपनी गतिविधियों को साइकलोस्टाइल करा पर्चे बाँटती … और डायटीशियन एसोसिएशन से मान्यता पाने के लिए अपनी तमाम गतिविधियों की सूचना भेजतीं। तीसरे, अतिरिक्त आय के लिए मॉडलिंग कैरियर को जमाने हेतु स्टूडियो और विज्ञापन कंपनियों के अनगिन चक्कर लगाए। एक घटना का ज़िक्र ज़रूरी है। वे बताती हैं, दिसंबर माह की कड़कड़ाती ठंड में उन्हें टोरंटो से पैंतालीस किलोमीटर दूर बसे शहर मिसीसागा के एक स्टूडियों में मॉडलिंग की शूटिंग का ऑफ़र मिला।
कल्पना भर से सिहरन होती है कि साउथ अफ़्रीका जैसे गर्म देश से आयी स्त्री फाकामस्ती के दिनों में कैसे भीषण सर्दी का मुक़ाबला करती होगी। शूटिंग वाले दिन जमकर बर्फ़बारी हो रही थी। टोरंटो से दो बसें और दो लोकल ट्रेन बदलकर और तीन फुट बर्फ़ से ढका लंबा रास्ता पैदल चलकर जब वे स्टूडियो पहुँची तो सभी उनकी हिम्मत पर चकित रह गए।
दरअसल मेय को सफल मॉडल बनाया पापड़ बेलने की इसी महारत ने, और हवा में तेज़ी से दौड़ कर विलीन होते अवसरों को पकड़ने की कला ने। साठ वर्ष की उम्र में जब सब मॉडल नाउम्मीद होकर घर बैठ जातीं हैं, तब मेय ने अपने सफ़ेद बालों के साथ दो चुनौतीपूर्ण फ़ोटो सेशन कर स्वयं को अमरीकी समाज के आइकॉन के रूप में स्थापित किया।
पहला फोटोशूट था तंदुरुस्ती, खुशी और सौंदर्य से चहकती उम्रदराज गर्भवती महिला का। इस तस्वीर को स्त्री-स्वास्थ्य पर केंद्रित पत्रिका के कवर पर छापा जाना था। इस फोटोशूट की कहानी भी खासी दिलचस्प है। पहले पेट को उभारने वाले एक ख़ास पोज़ में मेय को शूट किया गया। फिर पूर्ण गर्भवती स्त्री के पेट की फ़ोटो लेकर उस गर्भ को फ़ोटोशॉप के ज़रिए मेय मस्क के पेट पर लगा दिया गया।
दूसरा असाइनमेंट इससे भी कहीं ज़्यादा कठिन और चुनौतीपूर्ण था। वह था टाइम मैगजीन के लिए न्यूड मॉडलिंग का टास्क। उनकी यह तस्वीर अपने अद्भुत सौंदर्य, सौम्यता और शांत मुद्रा की वजह से बेहद सराही गई। इस तरह उनका जीवन दूसरों के लिए भी पाठशाला बन जाता है जहाँ प्रतिकूल परिस्थितियां, अर्थाभाव, मानसिक-भावनात्मक संकट, बार-बार के विस्थापन, दुःखद विवाह एवं असफल प्रेम-प्रसंग आदि बाधा बनकर जीवन को जड़ नहीं करते, बल्कि चुनौती की ललकार के साथ व्यक्तित्व का परिष्कार करते हैं।
वे अपनी ज़िंदगी के सबक़ को टिप्स के तौर पर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। जैसे अपने से प्यार करना सीखें.. ज़िंदगी आनंद के लिए हैं और आनंद पूरी लगन और मेहनत से अपना काम करने में मिलता है … यदि परिवेश, परिस्थितियां या निर्णय घुटनभरा माहौल पैदा करें तो अनिर्णय की स्थिति में सड़ने की बजाय तुरंत वहाँ से निकल जाएं… विस्थापन, भ्रमण और पुनर्वास भटकाव का प्रतीक नहीं। वे विचारों को मज़बूत करते हैं और क्षितिज का विस्तार … एक अच्छा दोस्त और वार्डरोब में टंगी कुछेक अच्छी पोशाकें आपकी ज़िंदगी को बदल सकती हैं …ग्लैमर की दुनिया में स्टाइल नहीं, भरोसा साथ देता है और आत्मविश्वास भी।
मेय मस्क ने अपनी आत्मकथा को एलन मस्क की सफलता के तिलिस्मी प्रभाव से यथासंभव मुक्त रखा है। वे एक जीनियस, स्वप्नदर्शी, जुझारू युवक के रूप में अपने पुत्र का ज़िक्र ज़रूर करती हैं जिसके पास दिमाग़ में इनसाइक्लोपीडिया को सुरक्षित रखने की क्षमता है, जो नींद में न्यूनतम समय खर्च करता है और बारह वर्ष की उम्र से ही कंप्यूटर से खेलकर तकनीक की दुनिया में अपने नए-नए ठौर बनाने के आत्मविश्वास से लबरेज़ है। वे उसकी सफलताओं के मद में नहीं झूमतीं, प्रयोग और असफलताओं को साक्षी भाव से देखती हैं कि कैसे (गूगल मैप आने से पूर्व) उसके बनाए इंटरनेट नक़्शे पर चलकर घर लौटने की बजाए वह जाने कहाँ-कहाँ भटकती रही और कैसे उसकी कंपनी स्पेस-एक्स का पहला रॉकेट सफलतापूर्वक लॉन्च ही नहीं हो पाया।
वे मानती हैं कि असफलताएं ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए बेहद ज़रूरी हैं क्योंकि वे ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार के नए गवाक्ष खोलती हैं। समय के साथ चलना, निरंतर पढ़ते रहना, नई-नई तकनीकों का ज्ञान अर्जित कर उनका अपने व्यवसाय-वृद्धि में उपयोग करना, पोषक आहार लेकर तन-मन दोनों को तंदुरुस्त बनाए रखना और युवा पीढ़ी से निरंतर संवादरत रहना उम्र को पछाड़ कर प्रवाह में बने रहने के लिये ज़रूरी हैं। कौन नहीं जानता कि औसत भारतीय सोच नौकरी के बाद पढ़ाई को सदा के लिए नमस्कार कह कर स्वनिर्मित बाड़ों में बंद हो जाती है और अधेड़ होते व्यक्ति को बूढ़ा घोषित कर जिंदगी की दौड़ से बाहर कर देती है।
दरअसल यूनुस खान द्वारा अनूदित मेय मस्क की यह पुस्तक ‘जब औरत सोचती है’ अपने बुनियादी स्वरूप में जिदगी के प्रति सकारात्मक सोच का नज़रिया है। बेशक इसे मोटिवेशनल लिट्रेचर के वर्ग में रखा जा सकता है, लेकिन पुस्तक को पढ़कर भूलने या प्रेरित होने से पहले अपने अंदर उतर कर अपनी जड़ता और किंकर्तव्यविमूढ़ता का रेशा-रेशा जानना बहुत ज़रूरी है कि क्यों एक जातीय अस्मिता के रूप में हम भारतीय अपनी क्षमताओं का पूर्ण दोहन नहीं कर पाते? कि क्यों लोकापवाद का भय, ऊँचा-नीच की वर्जनाएं और छोटे-बड़े काम की विभाजक रेखाएं दबाब बनाकर आगे बढ़ने के अवसर छीनते रहे हैं? कि क्यों घर और परंपराओं से चिपके रहने के अंध मोह में हम कुएं का मेंढक बनने का विकल्प चुन लेते हैं जबकि राम और बुद्ध के यात्रामय जीवन के उदाहरणों को प्रस्तुत कर भारतीय संस्कृति बार-बार मनुष्य-जीवन की सफलता का एक ही मंत्र उच्चारती है - चरैवेति! चरैवेति!!
पुस्तक :जब औरतें सोचती हैं
लेखक- मेय मस्क
अनवाद- यूनुस खान
राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य 350/-