क्या आप मुंशी देवी प्रसाद को जानते हैं? शायद नहीं जानते होंगे और अगर जानते भी होंगे तो आपको यह नहीं पता होगा कि वे भारतीय साहित्य की पहचान बन चुके एक अंतरराष्ट्रीय लेखक के ससुर हैं। 1847 में जन्मे मुंशी देवी प्रसाद पहले शख्स थे जिन्होंने स्त्री लेखन का पहला संचयन तैयार किया और अगर यह कहा जाए कि उन्होंने ही स्त्री लेखन का पहला इतिहास लिखा था तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। भले ही वह प्रयास रामचंद्र शुक्ल जैसा प्रयास न हो।
मुंशी देवी प्रसाद और कोई नहीं बल्कि शिवरानी देवी के पिता यानी प्रेमचन्द के ससुर थे। उन्होंने 1904 में 'महिला मृदुवाणी ग्रंथ" की रचना की थी और इसका आधार राजपूताना के हस्तलिखित ग्रंथ की खोज रहा है। इसमें उन्होंने करीब 34 कवयित्रियों का उल्लेख किया है।
यह तब की बात है जब 'मिश्र बंधु विनोद' या रामचंद्र शुक्ल का 'हिंदी का साहित्य का इतिहास' नहीं लिखा गया था। 1893 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हो चुकी थी और 1901 से सभा द्वारा दुर्लभ ग्रंथों की खोज का काम शुरू हो गया था जो शुक्ल जी के इतिहास की आधार सामग्री बनी। इन 34 कवित्रियों में कुछ को छोड़कर अधिकांश के बारे में हिंदी साहित्य आज भी अनजान है या अल्प ज्ञात है। अगर इन्होंने यह संचयन नहीं तैयार किया होता तो हमें स्त्री साहित्य के नाम पर कुछ भी सामग्री नहीं मिलती।
शिवरानी देवी ने भी 'प्रेमचंद घर में' में अपने पिता का जिक्र करते हुए इन बातों का उल्लेख नहीं किया है और अमृत राय ने भी प्रेमचन्द की जीवनी 'कलम का सिपाही' में भी यह सब जानकारियां नहीं दी है। शायद यही कारण है कि हिंदी साहित्य को मुंशी देवी प्रसाद के बारे में इस रूप में जानकारी नहीं है और यह तो बिल्कुल भी नहीं कि वह प्रेमचंद के ससुर थे।
रामचन्द्र शुक्ल ने रामानंद के 12 शिष्यों में दो महिला रचनाकारों का जिक्र किया। अंडाल का भी नाम लिया पर कुछ विशेष नहीं लिखा जबकि अब तो पूरे देश में विभिन्न भाषाओं में संत स्त्री कवियाँ सामने आ चुकी हैं। अंग्रेजी की प्रसिद्ध कवयित्री अरुंधति सुब्रमनियम ने तो अंग्रेजी में इनका संचयन भी निकाल दिया है।
बनारस की शुभा श्रीवास्तव ने हाल ही में 'हिंदी साहित्य की आधी आबादी :पूरा इतिहास' नामक पुस्तक में इस बात का रहस्योद्घटन किया है कि मुंशी देवी प्रसाद प्रेमचन्द के ससुर थे और उन्होंने हिंदी साहित्य में बड़ा योगदान दिया है। हालांकि उन्होंने इसका स्रोत नहीं बताया है।
शुभा जी ने यह भी लिखा है कि राजस्थान में हिंदी के हस्तलिखित ग्रंथ की खोज करने वाले लेखक मोतीलाल मिनारियां हैं और मोतीलाल ने यह भी बताया है कि मुंशी देवी प्रसाद ने कुल 40 ग्रंथों की रचना की थी। इनमें 'महिला मृदु वाणी' के अलावा कवि रत्न माला, मीराबाई का जीवन चरित्र, राज रस, नाना अमृत आदि शामिल है। इनमें से कई ग्रंथ तो आज भी उपलब्ध नहीं हैं।
मोतीलाल जी ने लिखा है कि मुंशी जी ने राजस्थान और राजस्थान के बाहर के लगभग 800 हिंदी कवियों की एक सूची तैयार करके मिश्र बन्धु के पास भेजी थी जिसमें 200 के लगभग कवि बिल्कुल नए थे।
शुभा श्रीवास्तव की इस पुस्तक का प्रकाशन ऐसे समय में हुआ है जब रामचंद्र शुक्ल के 1929 में प्रकाशित 'हिंदी साहित्य का इतिहास' का पुनर्नवा संस्करण धूमधाम के साथ सामने आया है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 1929 में इसे पहली बार प्रकाशित किया था और 1940 में इसका संवर्धित संस्करण निकला था।
काशी नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ल के सद्प्रयासों से इस पुस्तक के पुनर्नवा संस्करण का प्रकाशन हो पाया है। उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका भी लिखी है, लेकिन उन्होंने मुंशी देवी प्रसाद जैसे लोगों का कोई उल्लेख नहीं किया है और शुक्ल जी के इतिहास में स्त्रियों के लेखन को उचित प्रतिनिधित्व न दिए जाने के सवाल को भी नहीं उठाया। और समारोह में किसी एक भी स्त्री को वक्ता नहीं बनाया।
रामचंद्र शुक्ल ने 1929 में जब इतिहास लिखा तो तब महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान या दिनकर जैसे लोग बिल्कुल युवा रहे होंगे तो जाहिर है 1940 के संस्करण में उन्होंने इसे शामिल किया होगा। क्योंकि 1929 में महादेवी जी 22 वर्ष की रही होंगी। व्योमेश ने अपनी भूमिका में हिंदी साहित्य के इतिहास के दोनों संस्करणों की तुलना कर जोड़ी गयी नई सामग्री का जिक्र किया होता तो दोनों के पाठान्तर की जानकारी मिलती और इन बातों का उल्लेख होता तो आज थोड़ी स्थिति स्पष्ट होती।
यहां इन बातों को इसीलिए उठाया जा रहा है, क्योंकि इतिहास लेखन में इन बातों का जिक्र किया जाना चाहिए तभी एक मुकम्मल इतिहास सामने प्रस्तुत होता है। वैसे रामचंद्र शुक्ल का इतिहास अब तक का सबसे अधिक वैज्ञानिक और प्रामाणिक इतिहास माना जाता रहा है लेकिन अब उसको लेकर भी सवाल उठने लगे हैं कि उसमें हिंदी की लेखिकाओं के साथ न्याय नहीं हुआ है और उनका उचित प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है। स्त्री नवजागरण की नई विमर्शकारों ने उस दौर के स्त्री लेखन की नई सामग्री पेश कर बताया है कि शुक्ल जी ने कहाँ कहाँ चूकें की हैं।
शुभा श्रीवास्तव की यह पुस्तक रामचंद्र शुक्ल के इतिहास की उस कमी को पूरा करती है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि यह किताब भी मुंशी देवी प्रसाद, सावित्री सिन्हा, सुमन राजे, और नीरजा माधव की प्रकाशित पुस्तकों को आधार बनाकर ही लिखी गई है। शायद यही कारण है कि यह पुस्तक इन्हीं चारों को समर्पित की गई है। बस फर्क इतना ही है कि इसमें आज की लेखिकाओं को भी शामिल किया गया है और इस तरह स्त्रियों के लेखन का संपूर्ण इतिहास लिखने की कोशिश की गई है।
यूं तो इस पुस्तक में भी कई कमियां हैं। पहली बात तो यह है कि इस पुस्तक में न तो पाद टिप्पणियां (फुटनोट) हैं, न ही कोई परिशिष्ट, अनुक्रमणिका या संदर्भ ग्रंथों की कोई सूची। ऐसे इतिहास लिखते समय इन बातों का को शामिल किया जाना बहुत जरूरी है अन्यथा इतिहास की सही-सही तस्वीर नहीं मिलती है, उसकी प्रमाणिकता संदिग्ध हो जाती है। लेकिन मुंशी देवी प्रसाद के बारे में उन्होंने जो तथ्य पेश किए हैं उसे हिंदी साहित्य संभवत पहली बार रूबरू होगा और इसे एक नई रोशनी मिलेगी।लेकिन यहां भी उन्होंने अपना संदर्भ स्त्रोत नहीं बताया है।
मुंशी देवी प्रसाद के बाद दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति ज्योति प्रसाद निर्मल हैं, जिन्होंने 1931 और 1938 में दो महत्वपूर्ण संचयन निकाले; जिसमें स्त्रियों की रचनाओं का संकलन किया गया। पहली किताब 'स्त्री कवि कौमुदी' है। जो 'गांधी हिंदी पुस्तक भंडार, प्रयाग' से प्रकाशित हुई थी। अब इस पुस्तक का नया संस्करण सामने आया है। इसे प्रस्तुत किया है बलवंत कौर ने। उन्होंने अपनी भूमिका में लिखा है -'1931 में प्रकाशित स्त्री कवि कौमुदी ज्योति प्रसाद निर्मल द्वारा किया गया ऐसा अंगूठा संकलन है, जिसमें पहली बार हिंदी भाषा और साहित्य में स्त्री रचनाकारों (कविता के क्षेत्र में) की भूमिका को रेखांकित किया गया है, हिंदी साहित्य में स्त्री लेखन को अन्यन्य रूप से दर्जा देने का संभवत पहला प्रयास कहा जा सकता है।
'कविता कौमुदी' में मीरा, महादेवी और सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी प्रख्यात लेखिकाओं से लेकर गिरिजा कुमारी, झीमा आदि अज्ञात व अल्पज्ञात 41 कवयित्रियों की रचनाओं का संकलन किया गया है। 'स्त्री कवि कौमुदी' की भूमिका में निर्मल जी ने यह भी लिखा है- 'हिंदी साहित्य में इतिहास लेखन सदैव लैंगिक पूर्वाग्रह का शिकार रहा है। इसलिए स्त्रियों का लेखन पाठक के सामने नहीं आ पाया है यदि आ भी गया है तो उसका समुचित उल्लेख साहित्य इतिहास में नहीं मिलता है।' 1938 में निर्मल जी ने स्त्री कवि संग्रह नामक ग्रंथ निकाला था जिसमें उन्होंने 17 कवित्रियों के परिचय के साथ मुख्य रचनाओं को संकलित किया था।
निर्मल जी के बाद गिरजा दत्त शुक्ला और बृजभूषण शुक्ला ने 'हिंदी काव्य की कोकिलायें' नामक ग्रंथ की रचना की जो 1933 में छापा और इसमें उन्होंने 33 स्त्री रचनाकारों पर विचार किया है। गरिमा श्रीवास्तव और रमन सिन्हा ने इधर स्त्री लेखन से सम्बंधित कई पुरानी किताबों को संपादित कर छापा है। इसका जिक्र शुभा जी को करना चाहिए था।
निर्मल जी से पहले रामनरेश त्रिपाठी ने भी 1917 में 'कविता कौमुदी' नामक पुस्तक निकाली थी जिसमें मीरा, चंपा दे, बनी ठनी, प्रवीण राय, संहजो बाई, दया बाई का परिचय रचनाओं सहित दिया है। उन्होंने विश्व बंधु विनोद ,संतवाणी, पुस्तक माला और हिंदी साहित्य सम्मेलन की वार्षिक लेख मालाओं से सहायता ली थी।
1940 में रामनरेश त्रिपाठी ने 'हमारा ग्राम साहित्य' की भी रचना की इसमें उन्होंने स्त्री -लेखन पर अलग से विवेचन किया है; इसलिए स्त्री साहित्य के लौकिक पक्ष की दृष्टि से यह प्रथम प्रयास कहा जा सकता है।
आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने भी अपने ग्रंथ 'हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास' में स्त्री रचनाकारों पर ध्यान दिया है। उन्होंने स्त्री कवित्रियां (यह नाम इसी रूप में यहां लिखा गया है) नाम से अलग अध्याय ही लिखा है। इसमें शामिल कवित्रियां पूर्व में उल्लेखित ग्रंथों की है।
आजादी के बाद स्त्री लेखन के बारे में सावित्री सिन्हा का ग्रंथ 'मध्यकालीन हिंदी कवित्रियां' अपने आप में अंगूठा ग्रंथ है। यह 1953 में प्रकाशित हुआ था। स्त्रीलेखन के संदर्भ में सुमन राजे ने 2003 बड़ा साहसिक प्रयास किया था।
शुभा जी कहती हैं -'इसे इतिहास लेखन का पहला प्रयास तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन उन्होंने इतिहास लेखन की परंपरा की नींव अवश्य डाली।' शायद इसलिए कि सावित्री सिन्हा ने पहले ही मध्यकालीन स्त्री कवयित्रियों पर किताब निकाल दी थी यह किताब सुमन जी के लिए आधार स्तम्भ बना।
सुमन राजे के बाद स्त्री लेखन के इतिहास की नई किताब की आवश्यकता वर्षों से महसूस की जारी थी क्योंकि उस किताब को आए हुए भी करीब 22 वर्ष होने को जा रहे हैं। इन ढाई दशकों में हिंदी साहित्य में काफी लेखिकाएँ आई है और काफी कुछ महत्वपूर्ण भी लिखा गया है।
साल 2000 के बाद 21वीं सदी दरअसल स्त्री लेखन की सदी है। इन 25 सालों में कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि के क्षेत्र में बड़ी संख्या में स्त्रियां आईं हैं और स्त्रियों की दुनिया भी काफी बदली है। ऐसे में एक समग्र इतिहास लिखे जाने की जरूरत वर्षों से महसूस की जा रही थी।
शुभा श्रीवास्तव ने इस काम को पूरा करने का प्रयास किया है हालांकि हर इतिहासकार की एक सीमा होती है और उसकी अपनी दृष्टि भी होती है। शुभा जी के इतिहास में भी कई समस्याएं नजर आती हैं और इसमें भी कई नाम छूट गए हैं। कई लेखिकाओं का बहुत ही संक्षिप्त जिक्र है। संभव वे अपने नए संस्करण में इस कमी को पूरा करें।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब हिंदी साहित्य में गत 3 दशकों से 'दलित विमर्श स्त्री विमर्श चल रहा हो है तो इस इतिहास को लिखे जाने के लिए इन विमर्शों पर आलोचनात्मक दृष्टि से विशेष ध्यान देना चाहिए क्योंकि इस पुस्तक में दलित आदिवासी मुस्लिम लेखिकाओं का विशेष जिक्र नहीं है।
कम से कम हेमलता महेश्वर, अंजलि काजल, जसिंता केरकेटा, अर्जुमंद आरा, तबस्सुम जहाँ आदि के कार्यों को शामिल किया जाना चाहिए था और आशा सहाय, प्रकाशवती नारायण, मणिका मोहिनी, स्नेहमयीं चौधरी, इंदु जैन, सुनीता जैन ,शीला रोहेकर, सिम्मी हर्षिता, सुमति अय्यर, अजंता देव तथा नए लोगों में कुछु लोगों को नहीं छोड़ा जाना चाहिए था।
पिछले कुछ सालों में नवजागरण काल मे स्त्री प्रश्न को लेकर काफी काम हुआ है। सुजीत कुमार सिंह, सुरेश कुमार, आशुतोष पार्थेस्वर ने नवजागरण काल पर काफी कुछ लिखा। स्त्री प्रश्नों पर लेखिकाओं के परिचय न तो उम्र के हिसाब से, न ही अकारदि के क्रम से दिए गए हैं।
बहरहाल, इस किताब के बहाने हिंदी में स्त्री लेखन के इतिहास पर अब बात होनी चाहिए और जब कोई किताब लिखी जाए तो इस तरह बेढंगे तरीके से, हड़बड़ी में न लिखी जाए बल्कि सामूहिक प्रयासों से मुक्कमल दृष्टि से लिखी जाए। रामचन्द्र शुक्ल का हिंदी साहित्य का इतिहास भी शब्द सागर की भूमिका थी जो एक सामूहिक प्रयास था।
पुस्तक का नाम- हिन्दी साहित्य की आधी आबादी : पूरा इतिहास
लेखिका : शुभा श्रीवास्तव
वाणी प्रकाशन
मूल्य- हार्डकवर 850 रुपए
पेपरबैक 450 रुपए