पुस्तक समीक्षा: आशंकाओं के द्वीप में लघुमानव- विजयदेव नारायण की कविताओं और आलोचना की गम्भीर पड़ताल करती एक किताब

आनंद पांडेय की यह कृति विजयदेव नारायण साही की जीवनी, काव्य मीमांसा और आलोचना दृष्टि पर केंद्रित है। इसके माध्यम से यह समकालीन साहित्यिक चेतना की पड़ताल भी करती है।

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Photograph: (Facebook)

आलोचक आनंद पांडेय की विजयदेव नारायण साही पर केंद्रित आलोचना पुस्तक ‘आशंकाओं के द्वीप में लघुमानव : साही साखी’ समकालीन हिन्दी आलोचना की एक गंभीर और जरूरी आलोचना पुस्तक है। यह न केवल विजयदेव नारायण साही के साहित्यिक और वैचारिक व्यक्तित्व को उद्घाटित करती है, बल्कि उनकी कविता और आलोचना की गम्भीर पड़ताल करती है। साही की कविता और आलोचना दृष्टि का समुचित मूल्यांकन आलोचक का केंद्रीय कथ्य है लेकिन यह पुस्तक आधुनिक हिन्दी साहित्य-चिंतन की कुछ केंद्रीय बहसों को भी पुनर्परिभाषित करती है। 

आनंद पांडेय की यह आलोचना कृति एक प्रकार से साही की आलोचना-परंपरा के भीतर उतरने, उससे संवाद करने और उसके माध्यम से अपने समय को समझने का गंभीर प्रयत्न है। समकालीन हिन्दी आलोचना में कुछ नाम ऐसे हैं जो केवल लेखकों के रूप में नहीं, बल्कि विचारधारा, संवेदना और चेतना की संरचना में भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। विजयदेव नारायण साही निस्संदेह ऐसे ही साहित्यकार हैं। वे एक ऐसे युग साक्षी सर्जक और दृष्टि संपन्न आलोचक हैं जो स्वतंत्रता के स्वप्न से यथार्थ की कठिन ज़मीन पर उतरते हुए भारतीय समाज और साहित्य को बार-बार अपनी ‘सत की परीक्षा’ की नैतिक मुद्रा से आलोड़ित करते हैं।

‘आशंकाओं के द्वीप में लघुमानव’ गहन अनुशीलन, प्रामाणिक पुनर्पाठ और प्रखर आलोचना दृष्टि का साक्ष्य है। यह आलोचना ग्रंथ आलोचना की उस आत्मिक जिज्ञासा का दस्तावेज़ है जो साही जैसे विचारकों की विरासत को पुनः वर्तमान संदर्भों में परीक्षित करना चाहती है। यह कृति उन द्वंद्वों को उजागर करती है जिनसे स्वयं साही का जीवन और लेखन गुजरता रहा—आलोचना और सृजन, विचारधारा और स्वतंत्रता, राजनीति और साहित्य, आत्मा और समाज, और सबसे बढ़कर—मानव और लघुमानव के बीच की गहरी खाई को पाटने की बेचैनी।

आनंद पांडेय की यह कृति साही की जीवनी, काव्य मीमांसा और आलोचना दृष्टि पर केंद्रित है। इसके माध्यम से यह समकालीन साहित्यिक चेतना की पड़ताल भी करती है। यह हमारे समय के सवालों को उस आलोचक की रोशनी में देखती है जिसने आज से कई दशक पहले ही सत्ता, समाज और साहित्य के गठजोड़ पर प्रश्नचिह्न लगाया था। इस ग्रंथ में लघुमानव केवल साहित्यिक नायक नहीं, बल्कि हमारे समाज के उस अदृश्य, हाशियाकृत, किंतु जीवंत नागरिक की छवि है, जो सत्ता के इंद्रजाल में उलझा हुआ भी अपनी आत्मा की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। ‘आशंकाओं के द्वीप’ केवल कवि की कल्पना नहीं, वह यथार्थ का वह द्वीप है जहाँ विचार, सत्ता और मनुष्यता आपस में संघर्षरत रहते हैं।

आनंद पांडेय की यह आलोचना न केवल साही के आलोचना-दर्शन को उद्घाटित करती है, बल्कि हिन्दी आलोचना को बौद्धिक कर्म को साथ साथ एक नैतिक-आत्मिक संवाद  भी बनाती है। साही की आलोचना दृष्टि, केवल साहित्यिक सौंदर्य या वैचारिक विमर्श तक सीमित नहीं है, बल्कि वह एक नैतिक अनुशासन की मांग करती है। वे मानते थे कि साहित्यकार को सत्ता,  दलगत वैचारिकता और संगठनों की बाध्यताओं से स्वतंत्र रहना चाहिए। यही कारण है कि वे लेखक के लिए ‘संतन को कहा सीकरी सो काम’ की नीति के पक्षधर रहे हैं। उनकी दृष्टि में साहित्य न तो केवल आत्माभिव्यक्ति है और न ही सत्ता की सेवा में रचा जाने वाला औजार, बल्कि यह मानवता के कल्याण का माध्यम है।

साही के काव्य में लघु मानव उस आम आदमी का प्रतीक है जो आज़ादी के बाद की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के भीतर रहकर भी अपनी अस्मिता और नैतिकता के लिए संघर्ष करता है। यह व्यक्ति आशंकाओं, अकेलेपन और भटकाव के द्वीप में फंसा है, लेकिन फिर भी उसमें प्रतिरोध का भाव है। वह यथार्थ से भागता नहीं, बल्कि ‘कुछ कर गुजरने’ की तैयारी करता है। यह नायक न तो नायकत्व के दंभ से युक्त है और न ही नायकहीन है—वह एक नैतिक आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया में है। आनंद पांडेय ने लघुमानव की अवधारणा की चर्चा की है लेकिन उनकी काव्य और आलोचना दृष्टियों को वे इस अवधारणा के परे भी जाकर पढ़ते हैं।

पुस्तक का दूसरा अध्याय ‘आशंकाओं के द्वीप में लघुमानव’ साही की कविताओं की आलोचना है। यह साही की कविताओं के विस्तृत, सुचिंतित और विशद अध्ययन का साक्ष्य है। साही की कविताओं को समग्रता में रखकर पढ़ने की यह कोशिश संभवतः पहली बार हुई है। साही की कविताएँ आत्मबद्ध व्यक्ति और सामाजिक चेतना के द्वंद्व को उभारती हैं। उनका मानना है कि रचना स्वांतः सुखाय होते हुए भी सार्वजनिक उपयोगिता की मांग करती है। इसीलिए वे कवि को केवल ‘भावुक आत्मा’ न मानकर सामाजिक यथार्थ का विश्लेषक मानते हैं। कविता उनके लिए एक ऐसा माध्यम है जहाँ संवेदना और विचार, आत्मा और समाज का संलयन होता है।

एक आलोचक के रूप में साही की ख्याति मलिक मुहम्मद जायसी की कालजयी कृति ‘पद्मावत’ के आलोचक के रूप में है। आनंद पांडेय ने पुस्तक के अंतिम अध्याय में ‘पद्मावत’ के साही-पाठ की सुविस्तृत और धैर्यपूर्ण पड़ताल की है। पांडेय पाते हैं कि साही का जायसी संबंधी अध्ययन उनके सांस्कृतिक दृष्टिकोण की गहराई को प्रकट करता है। वे ‘पद्मावत’ को किसी धार्मिक संप्रदाय विशेष की विचारधारा में सीमित करके नहीं पढ़ते, बल्कि उसे 'शुद्ध काव्य' मानकर उसके सौंदर्यशास्त्र और मानवता-बोध को महत्व देते हैं। 

यह दृष्टि उन्हें सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से दूर रखते हुए भारतीय साहित्यिक परंपरा की साझी संस्कृति की ओर ले जाती है। पांडेय ने साही के पूर्वग्रहों और आलोचकीय अतियों के प्रभाव में न आकर ‘पद्मावत’ सम्बन्धी उनकी आलोचना का व्यवस्थित पुनर्पाठ किया है।

साही की आलोचना का उद्देश्य केवल पाठ की व्याख्या नहीं, बल्कि पाठक के भीतर उपस्थित पूर्वग्रहों को समाप्त कर उसे नए बोध की ओर उन्मुख करना भी है। वे आलोचना को संवाद की प्रक्रिया मानते हैं जो पाठक को पाठ के साथ एक नैतिक और बौद्धिक सहयात्री बनने के लिए प्रेरित करती है।

साही की कविताओं में सत्ता के विरुद्ध एक स्थायी असहमति मौजूद है, चाहे वह राजनीतिक हो या सांस्कृतिक। उनकी काव्य-पंक्तियाँ—“हम सभी बेचकर आए हैं अपने सपने”—एक ऐसी पीढ़ी की आत्मस्वीकृति को प्रकट करती हैं जो कभी आदर्शों के लिए लड़ी थी लेकिन अब समझौतावादी बन चुकी है। यह कविता आत्मग्लानि का नहीं, आत्मजागरण का आह्वान है।

साही की आलोचना केवल एक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं है। वे रूपवाद, अंतर्वस्तु, विचारधारा और पाठक की संवेदना—इन सभी घटकों के मध्य संबंधों को पहचानते हैं और एक समग्र दृष्टिकोण विकसित करते हैं। उनका आलोचना-विमर्श 'सभ्यता समीक्षा' के स्तर तक पहुँचता है।

साही का व्यक्तित्व केवल एक साहित्यकार का नहीं था—वे सक्रिय राजनीतिज्ञ, शिक्षक और जनतांत्रिक चेतना से लैस व्यक्ति भी थे। उनका समग्र जीवन साहित्य और जीवन के अद्वैत संबंध की पुष्टि करता है। पांडेय ने इस पुस्तक में इस त्रिमुहानी भूमिका को सफलतापूर्वक रेखांकित किया है।

‘आशंकाओं के द्वीप में लघुमानव’ हिन्दी आलोचना-साहित्य की एक गंभीर कृति है। आनंद पांडेय ने केवल साही को नहीं, बल्कि उनके माध्यम से पूरे समकालीन हिन्दी साहित्यिक परिदृश्य को विश्लेषण और संवेदना के स्तर पर पुनर्व्याख्यायित किया है। इस कृति की विशेषता इसकी संतुलित भाषा, सम्यक् ऐतिहासिक बोध, और गहन आलोचना-शैली में है, जो न केवल साही के काव्य और आलोचना को समझने में सहायक है, बल्कि पाठक को को स्वयं अपने समय के प्रति सजग बनाती है।

इस कृति का महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि यह केवल एक विश्लेषण नहीं, बल्कि साहित्य और जीवन के गहरे रिश्तों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास है। पांडेय के लेखन में कहीं भी सैद्धांतिक बोझिलता नहीं है; बल्कि एक संवेदनशील विद्यार्थी की तरह वे साही के साथ संवाद करते हैं और हमें भी उस संवाद में सहभागी बनने का अवसर देते हैं।

‘आशंकाओं के द्वीप में लघुमानव’ केवल एक आलोचनात्मक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक विचार-संवाद है — साही की पीढ़ी और आज की पीढ़ी के बीच। यह कृति एक दुर्लभ उदाहरण है कि किस तरह एक समर्पित लेखक, एक विश्लेषक और एक जिज्ञासु पाठक अपने समय से, परंपरा से और विचारधारा से टकराते हुए एक मूलगामी आलोचना-समालोचना का परिदृश्य तैयार करता है।

विजयदेव नारायण साही की आलोचना दृष्टि उस परंपरा की प्रतिनिधि है जो साहित्य को सिर्फ़ सौंदर्यबोध का क्षेत्र नहीं, बल्कि संवेदनशील विवेक और सक्रिय सामाजिक चेतना का कर्मक्षेत्र मानती है।

आनंद पांडेय की शैली विद्वत्तापूर्ण होते हुए भी बोझिल नहीं है। वह उद्धरणों से समृद्ध है, पर उद्धरणों की गिरफ्त में नहीं आती है, उनका अपने ढंग और दृष्टिकोण से मूल्यांकन करती है। आनंद पांडेय का अपना कथ्य भी सामने आता है। उनका यह गुण  उन्हें सच्चे आलोचक की भूमिका में स्थापित करता है — न केवल साही के प्रति, बल्कि पूरे समकालीन साहित्यिक विमर्श के प्रति एक जिम्मेदार आलोचनात्मक हस्तक्षेप के रूप में।

पुस्तक- आशंकाओं के द्वीप में लघुमानव: साही साखी
लेखक: आनंद पांडेय
प्रकाशक: सर्वभाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण: 2025

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