'स्मॉल टाउन जिंदगी' नाटक का मंचन
यह सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन यह पूर्णतः सत्य है कि जैसे दर्शक के अनुभव से हमारा सामना बेगूसराय के दिनकर कला मंच में हुआ, वह न तो एनएसडी - भारंगम के अभिमुख में मिला और न ही कोलकाता के मिनर्वा के मधुसूदन मंच पर। हर मंच की अपनी एक अलग पहचान और कहानी रही है, लेकिन जब हमारा नाटक बेगूसराय के रंगप्रेमी दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत हुआ, तो अलग संरचना वाले दर्शक वर्ग का सामना हुआ, जिसको समझना रंगमंच के विकास के लिए आवश्यक है।
अवसर था आशीर्वाद रंगमंडल और अमित रौशन द्वारा आयोजित 10वां आशीर्वाद राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव 2025, और मंच था बेगूसराय का प्रतिष्ठित दिनकर कला मंच। हृषिकेश सुलभ के ‘दाता पीर’ पर आधारित हमारा नाटक 'स्माल टाउन जिंदगी’ का मंचन 25 मार्च को हुआ, और इस यात्रा में बतौर निर्देशक रणधीर कुमार के साथ मैं भी था। सफर के दौरान रणधीर कुमार ने एक दिलचस्प बात कही—"बेगूसराय में शो करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि पटना के बाद यहाँ मंचन होने के बाद लगता है कि बिहार कंप्लीट हो गया।"
सच ही तो है, बेगूसराय के बिना बिहार का रंगमंच अधूरा सा लगता है, जैसे कोई राग अपनी अंतिम स्वरलहरी से वंचित रह जाए।
इसलिए रंगमंच और लोक के रिश्ते को समझना हो, तो बेगूसराय को समझना होगा। उसकी मिट्टी में घुली रंग परंपरा को महसूस करना होगा। और यदि इसे गहराई से देखना हो तो 1982 से सतत सक्रिय 'आशीर्वाद रंगमंडल' की उस जीवंतता को समझना होगा, जिसने और अन्य रंग समूह ने साथ मिलकर इस धरती पर रंगकर्म को केवल एक कला नहीं, बल्कि एक लोक-संस्कार और पारिवारिक उत्सव बना दिया है।
बाल-दर्शक का प्रश्न
बेगूसराय के दर्शकों की एक विलक्षण विशेषता यह थी कि लगभग 350-400 दर्शकों में 50 से अधिक बच्चे अंत तक बने रहे। यह शहरी रंगमंच की तरह नहीं है, जहाँ 8 साल से छोटे बच्चों को प्रवेश ही नहीं दिया जाता। वहाँ कोई ऐसा दरवाज़ा नहीं, जिस पर लिखा हो—'आठ साल से छोटे बच्चों का प्रवेश वर्जित।' वहाँ रंगमंच केवल उन लोगों के लिए आरक्षित नहीं, जो पहले से ही थिएटर की भाषा समझते हैं। बल्कि उन आँखों के लिए भी खुला है, जो पहली बार अंधकार में उजाले की यात्रा करती हैं।
शहरों के वातानुकूलित सभागारों में तर्क दिया जाता है कि बच्चे शोर करेंगे, अनुशासन तोड़ेंगे, कलाकारों की एकाग्रता भंग होगी। लेकिन यह कौन तय करेगा कि रंगमंच का अधिक बड़ा अपमान क्या है? बच्चे का अबोध कोलाहल या एक पीढ़ी का रंगमंच से अछूता रह जाना?
पता नहीं, वे किस रंग-शुद्धतावादी या पवित्रतावादी स्थान का निर्माण कर रहे हैं, जहाँ बच्चों का प्रवेश संभव नहीं है। बच्चे देखेंगे नहीं, तो रंगमंच को जानेंगे कैसे? ठीक है कि बच्चों के होने से थोड़े व्यवधान होते हैं, मगर जो प्राप्त होगा, वह अधिक महत्वपूर्ण है। भारत में बच्चा-विरोधी रंगमंच की एक संस्कृति बना रखी गई है, जिसमें लिखा रहता है कि आठ साल से छोटे बच्चों का प्रवेश निषेध है। ऐसे रंगमंच का भविष्य नहीं होगा, और यह एक आत्मघाती कदम है। बेगूसराय इस मामले में अलग है।
शहरी रंगमंच जिस भविष्य की ओर बढ़ रहा है, वह एक निषिद्ध गलियारा है। वहाँ कला विशुद्ध तो होगी, लेकिन निर्जीव। बच्चा-विरोधी रंगमंच सिर्फ बच्चों को नहीं, बल्कि स्वयं को भी वंचित कर रहा है; एक ऐसे भविष्य से, जहाँ रंगमंच केवल प्रदर्शन नहीं, बल्कि अनुभव होगा। बेगूसराय में यह अनुभव अभी भी बचा हुआ है। वहाँ कोई दरवाज़ा बंद नहीं, वहाँ कोई प्रवेश निषेध नहीं। वहाँ थिएटर एक जीवंत परंपरा है, न कि एक परिष्कृत और निर्वासित अभिजात्यता।
जिस शहर के बच्चे रंगमंच देखते हैं, उस शहर में रंगमंच कभी मृत नहीं हो सकता, वह सदैव जीवंत रहेगा, साँस लेता रहेगा। इस मामले में दिल्ली और पटना बेगुसराय से सीख सकता है। यह लोक दर्शक की स्वीकृति है। यह शहर पटना या दिल्ली की तरह कोई राजधानी नहीं, जहाँ संसाधनों की बौछार होती हो, फिर भी बेगूसराय दशकों से रंगमंच का एक सशक्त केंद्र बना हुआ है।
इस दर्शक वर्ग की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता थी—लगभग 50 महिलाओं की उपस्थिति, जो अपने परिवार के साथ नाटक देखने आई थीं। मगर वे वहाँ किसी महिला रंगकर्मी की पहचान से नहीं, किसी रंगकर्मी के परिवार से जुड़े होने के कारण नहीं, बल्कि शुद्ध दर्शक के रूप में उपस्थित थीं। लोग अंत तक लगातार आते रहे।ऐसा अन्य शहरों के रंगमंच में नहीं होता। ऐसा प्रतीत हुआ मानो रंगमंच देखना उनके लिए एक पारिवारिक क्रिया हो, एक सांस्कृतिक परंपरा जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी जीया जा रहा हो।
और सबसे अद्भुत बात यह थी कि इन दर्शकों को नाटक की लय का गहरा ज्ञान था—कहाँ चुप रहना है, कब ताली बजानी है, कब मौन ही सबसे बड़ी प्रशंसा होती है। ऐसा दर्शक स्वयं नाटक के एक अनदेखे पात्र की तरह होता है, जो मंच पर नहीं, बल्कि सभागार में बैठकर नाटक को गढ़ता है।
यह उसी परंपरा की झलक थी, जो हमने ब्रेख्त के ‘गैलीलियो की जिंदगी’ के प्रदर्शन में बर्लिन के दर्शकों में देखी थी, जब वे वैज्ञानिक तर्कों पर गहरी चुप्पी साध लेते और सत्ता के कटाक्षों पर सामूहिक अट्टहास करते। यह वही संवेदनशीलता थी, जो शेक्सपीयर के ग्लोब थियेटर में, ‘हैमलेट’ के मंचन के दौरान देखी गई, जब दर्शक किसी एक संवाद पर सहम जाते और किसी तीखे व्यंग्य पर एक साथ तालियाँ गूँज उठतीं।
यही बेगूसराय का दर्शक था—सजग, संवेदनशील और नाटक का सच्चा सहयात्री। ऐसे दर्शकों के बीच नाटक केवल एक प्रस्तुति नहीं रहता, बल्कि वह एक संवाद, एक जीवंत अनुभव, एक सांस्कृतिक अनुष्ठान बन जाता है।
इस सांस्कृतिक सक्रियता के पीछे, संभवतः आशीर्वाद रंगमंडल, स्थानीय इप्टा और अन्य रंगमंचीय संस्थाओं की निरंतर गतिविधियाँ हैं, जिन्होंने इस शहर को रंगकर्म के एक मजबूत केंद्र के रूप में स्थापित किया है।
बेगूसराय और दिनकर कला केंद्र की चर्चा उसके सामने की चाय की दुकान के बिना अधूरी ही रह जाएगी। यह दुकान केवल चाय पीने की जगह नहीं, बल्कि रंगकर्मियों की आत्मा का अड्डा है, जहाँ हर शाम मंच की कहानियाँ गूँजती हैं, संवादों में नए अर्थ खोजे जाते हैं, और भविष्य के नाटकों की नींव रखी जाती है। यह वह स्थान है जहाँ चाय की हर घूँट के साथ रंगमंच की आत्मा और गहरी होती जाती है।
रंगोत्सव के रंग
लंबे समय से सक्रिय रंगकर्मी अमित रौशन के रचनात्मक नेतृत्व में यह रंगोत्सव 21 से 26 मार्च 2025 तक आयोजित किया गया। इसमें पुणे, दिल्ली और बिहार से आए नाट्य समूहों ने अपने उत्कृष्ट नाटकों का मंचन किया। इस उत्सव में विविध शैलियों और कथानकों से सजे पाँच नाटकों ने दर्शकों को सम्मोहित किया।
आशीर्वाद रंगमंडल, बेगूसराय द्वारा प्रस्तुत 'पश्मीना', जिसे मृणाल माथुर ने लिखा और डॉ. अमित रौशन ने निर्देशित किया, एक गहन मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी कथा थी। ये दर्शकों को भीतर तक प्रभावित करने में सफल रही। मैथिली नाटक 'काँट', जिसे प्रदीप बिहारी ने लिखा और सचिन कुमार के निर्देशन में रंग सृजन आर्ट एंड सोशल एसोसिएशन, बेगूसराय द्वारा प्रस्तुत किया गया, ने क्षेत्रीय भाषा और संस्कृति के रंगमंचीय सौंदर्य को जीवंत किया।
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अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नाटककार आर्थर मिलर की कृति 'ऑल माय सन्स' हैप्पी रणजीत के निर्देशन में यूनिकॉर्न एक्टर्स स्टूडियो, नई दिल्ली द्वारा मंचित किया गया; जिसने पूंजीवाद, नैतिकता और पारिवारिक दायित्वों पर तीखी टिप्पणी प्रस्तुत की।
हृषिकेश सुलभ के उपन्यास 'दाता पीर' से रूपांतरित 'स्मॉल टाउन जिंदगी', जिसका नाट्य रूपांतरण कृष्ण समिद्ध यानी इस नाचीज़ ने किया और निर्देशन रणधीर कुमार ने इसे संभाला। यह 'रागा' पटना की प्रस्तुति के रूप में मंचित हुआ। इस नाटक ने छोटे शहर की संघर्षपूर्ण जीवनशैली को संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया। यह हृषिकेश सुलभ के ‘दाता पीर’ और आठ अभिनेताओं का जादू ही था कि नाटक के अंत में पूरा सभागार एक साथ खड़ा हो गया, तालियों की गूंज देर तक रंगमंच की दीवारों से टकराती रही। यह केवल एक स्टैंडिंग ओवेशन नहीं था, बल्कि रंगमंच और जीवन के अनूठे संगम का उत्सव था।
बंगाली नाटक 'अनिकेत संध्या, जिसे चंदन सेन ने लिखा और निर्देशित किया; 'हजबराल नाट्य समूह' द्वारा मंचित किया गया। जिसमें मानवीय अस्तित्व एवं संघर्ष को गहरी दार्शनिकता के साथ मंच पर प्रस्तुत किया गया।
अंतिम दिन 'स्वतंत्र थिएटर: पुणे' द्वारा मंचित 'हमीदा बाई की कोठी', जिसका निर्देशन अभिजीत चौधरी ने किया ने दर्शकों को एक ऐतिहासिक और सामाजिक विमर्श में उलझाया, जिसमें समाज के हाशिए पर पड़ी महिलाओं की पीड़ा और शक्ति का अद्वितीय चित्रण प्रस्तुत किया गया।
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अंत में अमित रौशन के दक्ष नेतृत्व, मुन्ना जी के सतत सहयोग और मंच से शानदार संचालन करने वाले भाई को बधाई। यह रंगोत्सव रंगकर्म के प्रति उनके लगाव और प्रेम को दर्शाता है।
आशीर्वाद रंगमंडल, बेगूसराय की पूरी टीम को बधाई, जिन्होंने एक जीवंत रंगोत्सव आयोजित किया। यह केवल नाटकों का आयोजन नहीं था। यह रंगमंच और समाज के बीच सेतु बांधने का एक सुंदर प्रयास था। इस रंगोत्सव ने न केवल नाट्य प्रेमियों को समृद्ध अनुभव प्रदान किया, बल्कि साहित्य, समाज और रंगमंच के विभिन्न पहलुओं पर संवाद का महत्वपूर्ण अवसर भी इसने उपलब्ध कराया।