4 जून
आज बादल कुछ ज़्यादा ही भारी हैं। जैसे उनके भीतर कोई ऐसा राज़ दबा हो जो फूटकर बरस जाना चाहता हो। कमरे की खिड़की से बाहर झाँकती हूँ तो लगता है—मानो आसमान अपने ही आँसुओं का बोझ सँभालने में हाँफ रहा हो। काली, लदी हुई घटाएँ धीमे-धीमे सरकती हैं और हवा में एक ठंडापन घुल गया है,जो रूह को छूकर लौट आता है।
पता नहीं क्यों, दिल बहुत बेचैन है। ऐसी बेचैनी जो शब्दों में नहीं ढल सकती, बस धड़कन में धुकधुकी की तरह बजती रहती है। जैसे कोई अनजाना भय दरवाज़े पर दस्तक दे रहा हो या जैसे कुछ बहुत कीमती, बहुत निजी, धीरे-धीरे मुझसे फिसलता जा रहा हो।
एक अजीब-सी थकान भीतर तक उतर आई है —कंधों पर, पलकों पर, दिल की तहों में भी। मानो कई जिंदगियाँ जी ली हों और अब शरीर एक पुरानी गठरी की तरह बस कहीं टिक जाना चाहता हो।
माँ चुपचाप रसोई में कुछ बना रही है। उसके हाथों की चाल भी अब पहले जैसी नहीं रही। हथेलियाँ शायद अब थकने लगी हैं या शायद दुख ने उनके उत्साह को चुप कर दिया है। उसकी आँखों के नीचे काले घेरे अब मानो स्थायी निवासी हो गए हैं —जैसे नींद ने उससे दोस्ती तोड़ ली हो और सारी रातें जागकर माँ के कंधों पर बैठी रहती हों।
मैं बहुत देर तक उसे देखती रही। सोचा, शाम को उससे कहूँगी —"माँ, चलो कहीं बाहर चलते हैं। पास के पार्क में, या बस यहीं छत पर बैठकर कुछ बातें करें। जैसे पहले किया करते थे।"
पर फिर मन में डर भी समा गया। कहीं माँ के पास अब वो शब्द ही ना बचे हों, जो हमें वैसे ही जोड़ सकें,जैसे कभी हमारे बीच एक अदृश्य धागा था।या शायद यह सब मेरा ही वहम है। माँ तो माँ है—उसकी चुप्पियाँ भी तो एक भाषा हैं, जो मैं अब भी समझ सकती हूँ।
पर फिर भी...आज आसमान की तरह ही मेरी आत्मा भी भारी है। मुझे डर है —कि कहीं ये बादल मेरे भीतर भी बरस न जाएँ।
8 जून
आज मैंने अपनी डायरी के पहले कुछ पन्ने फाड़कर फेंक दिए। वो पन्ने अब कूड़ेदान में ऐसे पड़े हैं,
मानो मेरे मन के बोझ को अपने साथ लेकर चुपचाप सो गए हों। उन पन्नों पर लिखी हर इबारत मेरी उन शिकायतों से बनी थी, जिन्हें मैं दिल में इतने समय से सँजोए बैठी रही —जीवन से, लोगों से, और सबसे ज़्यादा... खुद से भी।
कभी लगता था, इन शब्दों में अपने दुःख को उड़ेलकर मैं हल्की हो जाऊँगी। माँ भी तो यही कहती है— "बोझ हल्का करने के लिए लिखो। काग़ज़ सब सुन लेता है।"
पर मुझे अब समझ आता है कि लिखना हमेशा राहत नहीं देता। कई बार यह अपने ही जख्मों को फिर से कुरेदने जैसा होता है। जैसे पुरानी परतें हटाकर खून फिर से बहाने लगो। शब्दों की नोंक मेरे दिल में चुभती है और वह दर्द पन्नों पर बहकर भी मुझसे दूर नहीं होता।
फिर भी लिख रही हूँ। क्यों? शायद इसलिए कि कहीं न कहीं मेरे मन के किसी कोने में एक सूखी-सी उम्मीद बची है। शायद कोई एक दिन इन पन्नों को पढ़े। शायद कोई मेरी उलझनों को, मेरी चुप्पियों को ठीक वैसे ही समझ पाए जैसे मैंने खुद भी कभी पूरी तरह नहीं समझ पाई।
कभी सोचती हूँ— ये सब लिखकर मैं किसे पुकार रही हूँ? क्या ये माँ के लिए है? या उन अनजाने लोगों के लिए जो मेरे जाने के बाद इन पन्नों को सहेजकर पढ़ेंगे और मेरे भीतर के टूटे हुए हिस्सों को अपने शब्दों से सहला देंगे?
जो भी हो, अब यह डायरी मेरी सबसे अंतरंग संगिनी बन गई है। मेरे आँसुओं की स्याही से भीगी हुई। मेरे मन की थकान, मेरी ग़लतियाँ, मेरे डर — सब यहाँ दर्ज हैं। और शायद, यही इस सबकी तसल्ली भी है कि मैं कम से कम झूठे मुस्कुराते चेहरों से दूर होकर यहाँ सच्ची रह सकती हूँ।
14 जून
मुझे फूल बहुत पसंद हैं। बचपन में जब भी कहीं किसी फूलों की दुकान के पास से गुज़रती थी, तो उन रंग-बिरंगे गुच्छों को देख ऐसा लगता था जैसे ज़िंदगी ने अपने सारे जादू वहीं सजा रखे हों। रजनीगंधा की हल्की-सी खुशबू भी मेरे भीतर कुछ मीठा घोल जाती है — मानो थोड़ी देर को दुनिया की सारी कड़वाहटें कहीं पीछे छूट चली हों।
पर कमाल देखो — मेरे कमरे में कभी कोई फूल नहीं सजा। ना माँ को कभी इतनी फुर्सत मिली, ना मुझे ही इतनी तमीज़ थी कि अपनी मेज़ पर एक काँच के गिलास में दो-तीन ताज़े फूल रखकर अपनी साँसों को खुशबूदार कर लूँ।
कभी-कभी लगता है, हम जीते जी खुद को इतना कम समझते हैं कि वो छोटी-छोटी खुशियाँ, जो बिना मांगे भी मिल सकती थीं, हम उनसे भी हाथ खींच लेते हैं।
आज पहली बार ये खयाल आया — अगर मैं मर जाऊँ, तो लोग कितने फूल लाएँगे। गुलाब, गेंदा, चमेली, शायद मेरी पसंद की रजनीगंधा भी। मेरे चारों ओर इतने फूल बिछा देंगे, जितने मैंने कभी अपने सपनों में भी न देखे थे।
कितनी अजीब बात है न? जीते जी जिन फूलों को पाने के लिए दिल तरसता रहा, वे मौत पर हमारे चारों ओर बिछा दिए जाते हैं। जैसे मृत्यु कोई उत्सव हो, और फूल उसके आमंत्रण पत्र— लोग उन्हें लेकर आते हैं और चुपचाप हमारे पास छोड़कर चले जाते हैं।
क्या सच में हमारे हिस्से की सारी सुंदरता हमारे जाने के बाद ही हमारे क़दमों में रखी जाती है? या ये फूल भी एक तरह की विदाई की औपचारिकता हैं — जो हमें, हमारे खाली पड़े जीवन को, ढकने का बहाना भर हैं?
19 जून
रात में एक सपना आया। सपनों की वह अजीब सी दुनिया, जहाँ सब कुछ जाना-पहचाना भी होता है
और अजनबी भी। मैं अपने ही कमरे में लेटी थी — वही चारदीवारी, वही खिड़की से छनती हल्की रोशनी, वही टेबल पर खुली अधूरी डायरी। सब कुछ वैसे ही था, पर फिर भी कुछ अलग था।
मैंने अपनी ओर देखा...और ठिठक गई। वहाँ मैं नहीं थी। मेरी जगह कोई और लेटा था — सफेद चादर से सिर तक ढका हुआ। कपड़े की उस ठंडी चुप्पी में कोई साँसें नहीं थीं। चारों ओर रिश्तेदारों की भीड़ थी। सबके चेहरे पर वही दुख की नक़ाबें, जिन्हें मैं असल में भी अक्सर देख चुकी हूँ।
माँ वहाँ थी। मेरी प्यारी माँ, जो अब टूटी हुई मिट्टी के बर्तन सी लग रही थी। उसकी सिसकियाँ पूरे कमरे में गूँज रही थीं, जैसे कोई करुण राग बज रहा हो जिसे सुनकर दीवारें भी भीग जाएँ।
रिश्तेदार धीमे स्वर में बातें कर रहे थे, उनकी आवाज़ें मेरी तरफ़ आते-आते मानो किसी धुँध में लिपटकर फीकी पड़ जाती थीं। फिर भी एक वाक्य कानों में साफ़-साफ़ गूंज गया — "बेचारी बहुत छोटी थी, अभी तो ज़िंदगी शुरू भी नहीं हुई थी।"
उसे सुनकर मुझे हँसी आ गई। कितनी अजीब बात है — लोग कितनी आसानी से तय कर लेते हैं किसकी ज़िंदगी कब शुरू हुई और कब अधूरी रह गई। मुझे लगा, ज़िंदगी कब शुरू हुई थी जो अब बीच में छूट गई? क्या सच में वो कभी शुरू हुई भी थी?
मेरे लिए तो यह हमेशा से लंबी और थकान भरी राह रही। जैसे कोई पुरानी देन, जो मुझ पर चुपचाप उधार चढ़ा दी गई थी। हर दिन उसे ढोना, चुकाना —और अब लगता है लौटाने का वक़्त आ ही गया।
सपना धीरे-धीरे टूटने लगा। कमरा फिर से धुंधला हो गया, माँ की रोती हुई आवाज़ कहीं दूर से आती हुई लगने लगी।
और मैं उस सफेद कपड़े के नीचे लेटी देह को एक आख़िरी बार देखती रही — जैसे कोई अपने ही अक्स को विदा कह रहा हो।
23 जून
आज सचमुच एक अजीब-सी शांति महसूस हो रही है। जैसे कई दिनों से भीतर मचलती हलचल किसी ने हथेली रखकर थाम ली हो। मन में कोई आवाज़ नहीं, कोई प्रश्न नहीं, सिर्फ़ एक गाढ़ी, ठहरी हुई ख़ामोशी।
माँ मेरे कमरे में आई। चुपचाप, धीमे कदमों से। उसके पाँव की आहट तक। मानो मेरी यह चुप शांति इससे बिखर न जाए, इसलिए फर्श पर रुक-रुक कर पड़ रहे थे उसके पांव।
वह मेरे सिरहाने बैठी। धीरे-धीरे उसके हाथ मेरी ज़ुल्फ़ों में उतर आए। उंगलियाँ बहुत देर तक मेरे बालों में डोलती रहीं —जैसे कोई भूली हुई कहानी मेरे सिर पर उकेर रही हो। उसकी उंगलियों में वही माँ की गंध थी, जो बचपन में मेरे तकिए में समाई रहती थी।
हम दोनों चुप रहे। उसने मुझसे कुछ नहीं पूछा, मैंने भी कुछ नहीं कहा। पर फिर भी ऐसा लगा जैसे इस मौन में बहुत कुछ कह और सुन लिया गया। जैसे हमारी सांसें आपस में गले मिल रही हों।
काश, मैं उसे बता पाती कि उसे रोते देखना मेरे लिए सबसे कठिन बात है। कि मेरी आत्मा तक कांप उठती है जब उसके कंधे हिलते हैं और वो अपने आँसुओं को मुझसे छुपाने की नाकाम कोशिश करती है।
काश, मैं कह पाती कि अगर कभी मैं चली भी गई तो भी उसके आँसू पोंछने ज़रूर आऊँगी। उसके माथे पर वही सांत्वना धर जाऊँगी, जो उसने बरसों मुझ पर रखी थी।
पर सोचकर डर भी लगता है। शायद तब मेरा हाथ उसके चेहरे तक पहुँच नहीं पाएगा। शायद तब मैं सिर्फ़ एक मद्धम सी हवा बनकर उसके गालों को छू लूँगी — और वो समझ भी न पाए कि वो मैं ही हूँ।'
सोचकर मन कांप उठता है। और मैं इस ख़ामोश शांति में अपनी पलकों के भीगने की आवाज़ सुनती रहती हूँ।
30 जून
आज सब कुछ बहुत धुंधला है। कमरा, दीवारें, मेज़ पर रखा पानी का गिलास, माँ की घबराई हुई आवाज़ —सब जैसे किसी कोहरे में लिपट गए हैं। हर चीज़ अपनी जगह है, फिर भी वो ठोस नहीं लगती, मानो मैं किसी पुराने, टूटते हुए स्वप्न में भटक रही हूँ।
मैं उठना चाहती हूँ। बैठकर माँ को देखना चाहती हूँ। उसके काँपते हाथों को अपने हाथों में लेना चाहती हूँ।
पर शरीर अब बहुत भारी हो गया है। जैसे हज़ारों पत्थर मेरी छाती पर रख दिए गए हों। हर साँस किसी कर्ज़ की तरह आती है जिसे चुकाने में मेरी देह थक चुकी है।
माँ बार-बार मेरा माथा छू रही है। उसकी हथेलियाँ अभी भी उतनी ही मुलायम हैं जितनी बचपन में थीं,जब बुख़ार में तपते हुए मुझे वो नीम की सी गंध आती थी।अब भी वही गंध है —बस इस बार डर ज़्यादा है।
मेरी पलकों पर उसकी भीगी उँगलियों का एहसास हो रहा है। उसके आँसुओं की नमी मेरे चेहरे पर गिर रही है,जैसे माँ अपने आँसू मुझसे छुपाने के लिए उन्हें मेरी पलकों में सहेज रही हो।
काश, मैं उसके आँसू अपने हाथों से पोंछ पाती। उसकी आँखों को देखती और कहती —"माँ, मत रो। सब ठीक हो जाएगा।" पर शब्द अब गले में कहीं फँसकर रह जाते हैं।
काश, एक बार और कह पाती —"माँ, मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ। इतना प्यार कि अगर ये सब ख़त्म भी हो जाए, तो भी मेरी रूह तुम्हारे पास ही बैठी रहेगी।"
पर अब कुछ भी कहना मुश्किल हो रहा है। माँ की सिसकियाँ धुंध में दूर से आती कोई पुकार लग रही हैं।
मैं उन्हें पकड़ना चाहती हूँ, पर मेरी उंगलियाँ भी अब जैसे मुझसे विदा माँग रही हैं।
और इसी धुँध में, मेरी आँखें धीरे-धीरे बँधने लगती हैं —माँ की उँगलियों के स्पर्श में, उसके आँसुओं की गंध में, उस दबी हुई पुकार में, जिसे शायद अब मैं फिर कभी सुन न सकूँ।
… (कहीं उस पार)
अब मैं उन्हें देख सकती हूँ। सब वहीं हैं, मेरे चारों ओर —माँ, जिसकी आँखों के नीचे अब कोई आँसू नहीं बचे, सिर्फ़ एक निर्वाक् थरथराहट है; मेरी पुरानी सहेलियाँ, जो चुपचाप सिर झुकाए खड़ी हैं; और पड़ोस की आंटी, जिनकी साड़ी की कोर तक भीगी हुई है।
फूलों की इतनी भीड़ मैंने कभी नहीं देखी। गुलाब, गेंदा, रजनीगंधा, मोगरा —जैसे पूरा बाग़ मेरे पैरों में बिछा दिया गया हो। जीवन में जिन्हें पाने को तरसती रही, वे सब अब मेरे विदा होने पर मेरी देह को ढँकने आ पहुँचे हैं।
माँ की आँखें अब रोते-रोते सूख गई हैं। पर उसके दिल की सिसकियाँ अब भी पूरे वातावरण में गूंज रही हैं। मुझे लगता है जैसे हर किसी की साँस यहाँ एक बोझ बन गई है —भारी, धीमी, दुख में डूबी हुई।
मैं कोशिश करती हूँ माँ के कंधे पर हाथ रखने की, उसे दिलासा देने की —"माँ, मैं ठीक हूँ। मत रोओ।"
पर मेरा हाथ बीच हवा में ही ठहर जाता है। अब मैं उसके लिए सिर्फ़ एक हल्की हवा हूँ, जो उसकी साड़ी को ज़रा सा छूकर फिर खो जाती है। सब व्यर्थ।
तभी कोई मुझे पुकारता है। एक हल्की, उजली रोशनी।जिसे देखकर ज़रा भी डर नहीं लगता। उसमें एक अजीब-सा अपनापन है —जैसे मैं बहुत दिनों बाद अपने असली घर लौट रही हूँ।
मैं माँ को आख़िरी बार देखती हूँ। उसका चेहरा —जिस पर अब जीवन का नहीं, बल्कि सिर्फ़ टूटे हुए सपनों का रंग है।फिर भी मेरे होंठों पर धीरे से एक मुस्कान तैर आती है।जैसे मैं उसे कहना चाहती हूँ —"माँ, मुझे यूँ ही याद रखना — मुस्कुराती हुई।"
मैं धीरे-धीरे उस रोशनी की ओर बढ़ने लगती हूँ। मेरे भीतर का सारा बोझ, सारी थकान कहीं गलकर मुझसे दूर होती जा रही है। जैसे मैं कोई गीत बन गई हूँ, जो धीरे-धीरे हवा में घुलता जा रहा है।
और तब...
मेरी आख़िरी प्रार्थना माँ तक पहुँचती है — कृपया माँ से कहना —"मुझे माफ़ करना। मैं जहाँ हूँ, वहाँ बहुत शांति है। तुम्हारे आँसू यहाँ तक आते हैं, पर अब मुझे कोई दर्द नहीं। माँ, तुम भी अब मुस्कुराना सीख लो। मेरी खातिर।"