भारत रंग महोत्सव 2025।
1999 में शुरू हुए भारंगम ने अपनी यात्रा के 25 वर्ष पूरे कर लिए लेकिन यह 24वाँ भारंगम है क्योंकि कोविड में भारंगम नहीं हो पाया था। एक चौथाई सदी गुजर जाने के बाद अब भारंगम के बारे में इस दृष्टि से भी विचार होना चाहिए कि क्या वह अपने लक्ष्यों को पूरा कर पाया है या वह दुनिया मे अपनी जगह बनाने में संघर्षरत है। यूं तो भारंगम दुनिया का सबसे बड़ा थिएटर फेस्टिवल बन गया है और उसे वर्ल्ड रिकार्ड का प्रमाणपत्र भी मिल गया है, लेकिन आम दर्शकों तक वह कितना पहुंच पाया है?
इस बार फेस्टिवल के रंगदूत 'राजपाल यादव' ने कहा कि वे चाहते हैं कि यह समारोह एक दिन कान्स फिल्म समारोह की तरह दुनिया में प्रतिष्ठित हो। लेकिन अभी तक गोआ अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह ही कान्स फ़िल्म समारोह की टक्कर का नहीं बन पाया है तो भारंगम कैसे बन पाएगा। यह अभी ख्याली पुलाव लगता है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात एनएसडी के निर्देशक 'चितरंजन त्रिपाठी' ने सही कहा कि जब तक नाटकों का मंचन पासजीवी रहेगा तब तक उसका विकास नहीं होगा।
आखिर दर्शक कब तक मुफ्त में पास लेकर नाटक देखेंगे, उन्हें 'टिकटजीवी' होना होगा। यानी लोग टिकट खरीदें और नाटक देखें। इन चुनौतियों के बीच भारंगम शुरू हो हो चुका है, जिसमें 200 नाटक दिखाए जाएंगे। एनएसडी की वेबसाइट पर नाटकों की सूची भी है जिसे कोई भी देख सकता है।बहरहाल इस भारंगम की खासियत यह है कि पहली बार भारंगम के नाटक विदेशों में दिखाए जाएंगे और इस बार कोलंबो तथा काठमांडू में नाटक होंगे। इसके लिए एनएसडी बधाई का पात्र है कि भारंगम का विस्तार हो रहा है और वह देश की सीमा से बाहर भी जा रहा है।
1999 में जब आज़ादी की स्वर्ण जयंती पर भारंगम रामगोपाल बजाज के नेतृत्व में शुरू हुआ था तब उसका मकसद भारत की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को पेश करना था। क्योंकि 70 के दशक में यह बहस शुरू हो गयी थी, कि क्या भारतीय रंगमंच जैसी कोई चीज़ है। इस सम्बंध में प्रसिद्ध नाट्य आलोचक बीरेंद्र नारायण ने 'आलोचना' पत्रिका में लेख भी लिखा था। 'जगदीश चन्द्र माथुर' जैसे संस्कृतिकर्मी इसमें भारतीयता पर जोर देते रहे। साहित्य में भी यह बहसें उठती रहीं कि क्या भारतीय उपन्यास, भारतीय कविता और साहित्य जैसी कोई अवधारणा यहां काम कर रही है? आखिर रामगोपाल बजाज और बाद के निर्देशकों देवेंद्र राज अंकुर, अनुराधा कपूर, वामन केंद्रे आदि ने इसे मजबूत बनाया और सिद्ध किया कि भारतीय रंगमंच भी विश्व के अन्य रंगमचं की तरह विशिष्ट है। वर्तमान निदेशक भी इसका विस्तार करने में लगे हैं। लेकिन इसको दुनिया में स्थापित करने की चुनौतियांं अभी भी है।
भारंगम किसका है!
भारंगम को लेकर मीडिया में भी सवाल उठते रहे हैं कि यह किसका समारोह है। एनएसडी के लोगों का या गैर एनएसडी के लोगों का? ये भी आरोप लगते रहे कि क्या यह एक लॉबी विशेष का समारोह है? लेकिन भारंगम ने रंगकर्मियों में एक उत्साह का संचार किया है और उम्मीद की लौ जगाई है। इसमें स्त्री निर्देशकों की भागीदारी बढ़ी है। इस बार 24 महिला निर्देशकों के नाटक हो रहे हैं। लेकिन हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि किसी राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय समारोह का उद्घटान बड़ा महत्वपूर्ण होता है और उसमें ऐसी फिल्मों या नाटकों का प्रदर्शन किया जाना चाहिए जिसका एक व्यापक संदेश जनता तक पहुंचे। एनएसडी ने पिछले साल भारत रंग महोत्सव किया था तो उसने 'समुद्र मंथन' नाटक से इसकी शुरुआत की थी और समापन 'रंग-संगीत' से। बेहतर होता वह इस बार एक नई प्रस्तुति लेकर आती जिससे उद्घटान होता। क्या एनएसडी के पास बेहतर नाटकों का टोटा है कि वह पिछले साल 'भारंगम' के समापन पर मंचित नाटक को फिर लेकर आ रही है?
दिल्ली के नाट्य जगत में इस निर्णय को लेकर अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है लेकिन क्या यह उचित नहीं होता कि वह इब्राहम अल्का जी धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, बादल सरकार के किसी नाटक से उद्घटान करती क्योंकि इस वर्ष इन विभूतियों की जन्मशती है और इन हस्तियों ने आधुनिक भारतीय रंगमंच के निर्माण में एक अहम भूमिका निभाई है।
क्या पिछले 10 वर्षों में एनएसडी का भी 'रंग' बदला है ,जब अन्य संस्थाओं के रंग बदल रहे और बदलगये? अगर कुछ वर्षों में एनएसडी के कुछ नाटकों की थीम को देखें तो कुछ ऐसे भी नाटक खेले जा रहे हैं जिनमें पौराणिकता और परंपरा की छौंक अधिक है वह भारतीयता के नाम पर पीछे की ओर लौट रही है और अब वह आधुनिकता नहीं रही जो कभी इब्राहिम अलका जी ने एनएसडी में अपने नाटकों से स्थापित की थी ।
यूं तो एनएसडी कह सकती है कि वह परसाई जैसे वामपंथी विचारधारा वाले लेखक पर आयोजन कर रही है, इसलिए उस पर पूर्वाग्रह से ग्रसित होने का सवाल नहीं उठाया सकता है पर प्रश्न यह भी है कि अगर परसाई की जन्मशती बीत गई है और उसके बावजूद उन पर कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे तो हबीब तनवीर पर भी क्यों नहीं? रेखा जैन को क्यों भुला दिया जा रहा? क्या इसलिए कि वह एक स्त्री थी और बाल रंगमचं कर रही थी।
भारंगम में महिला सशक्तिकरण
इस बार भारंगम में महिला निर्देशकों के नाटक भी काफी हो रहे हैं और दिल्ली के अलावा बाहर भी इसके मंचन हो रहे। 24 वें भारंगम में 24 महिला निर्देशकों के नाटक शामिल किए गए। प्रसिद्ध रंगकर्मी हेमा सिंह के नाटक से इसकी विधिवत शुरुआत हुई। हेमा सिंह ने हिंदुस्तानी में आगा हश्र कश्मीरी के नाटक 'ख्वाब ए हस्ती' का मंचन किया। भारंगम में रवींद्र नाथ टैगोर के नाटक 'इति मृणालिनी' असमी में 'राब्जिता गोगोई' तो प्रसिद्ध रंगकर्मी नीलम मानसिंह का मंटों की कहानी पर आधारित नाटक 'तमाशा' भी शामिल है। दिवंगत रंगकर्मी त्रिपुरारी शर्मा द्वारा निर्देशित 'आधे अधूरे' भी शामिल है, जो मोहन राकेश का बहुचर्चित नाटक है।गौरतलब है कि इस साल मोहन राकेश की जन्मशती भी है। इस भारंगम में प्रसिद्ध रंगकर्मी बी जयश्री का नाटक 'जसमा ओडन' भी शामिल है, जो शांता गांधी का मशहूर नाटक है। अलावे इसके नादिरा बब्बर का नाटक और वीणा शर्मा कम्बार का नाटक भी शामिल है।
अन्य महिला निर्देशकों में प्रीति झा तिवारी स्वाति दुबे नवदीप कौर सुष्मिता मुखर्जी पास्की, दिव्या मस्की नसरीना इशाक बी श्रुति ऋतुरेखा नाथ प्रमुख हैं।
रूस की महिला निर्देशक नीना चुसोवा ब्लाज्मनोव की शादी नामक नाटक रूसी भाषा में तो जर्मनी की जुलिया स्त्रेहलेर का भी नाटक "ब्राचलैंड फेलोवलैंड" जर्मन में। कुछ नाटक रांची खैरागढ़ गोरखपुर और अहमदाबाद में प्रस्तावित हैं।
प्रेस कांफ्रेंस में एनएसडी के निदेशक चितरंजन त्रिपाठी ने कहा- इस बार बड़ी संख्या में महिला निर्देशकों के नाटक आये हैं और सब अपनी प्रतिभा के बल पर आए हैं। उन्हें किसी कोटा विशेष में स्थान नहीं मिला है, बल्कि मेरिट से उनके नाटकों का चयन हुआ है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसके अलावे एनएसडी ने इस बार सेक्स वर्करों और ट्रांसजेंडर कलाकारों को भी भारंगम से जोड़ने की पहल की।
क्या जिस तरह अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में ग्रेट लेजेंड्स की रेट्रोस्पेक्टिव होती है क्या भारंगम में थिएटर की जानी मानी हस्तियों के नाटकों कार्यों आदि का पुनरावलोकन नहीं होना चाहिए, कोई चित्र प्रदशनी नहीं होनी चाहिए ताकि नए दर्शक और छात्र उनके बारे में जान सके। आधुनिक हिंदी नाटक के स्तम्भ एवम संस्कृतिकर्मी जगदीश चन्द्र माथुर, जिनका योगदान एनएसडी को बनाने में भी रहा, की जन्मशती के मौके पर एनएसडी ने कुछ नहीं किया। क्या हम अपने पुरखों को इस तरह नजरअंदाज कर सकते हैं?क्या नई पीढ़ी को एक आधुनिक प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष मूल्यों वाले लोगों के कार्यों के इतिहास से वंचित करने का प्रयास नहीं।हालांकि एनएसडी बार बार यह कहती है कि उसके सामने फण्ड की कमी रहती है उसमें सरकार ने कटौती कर दी है लेकिन सरकार को भी कुछ नीतिगत निर्णय लेने चाहिए।
वैसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने कल भारंगम के कार्यक्रमों की घोषणा करते हुए बताया कि इस वर्ष भारतीय रंग महोत्सव के दौरान इब्राहिम अलकाजी, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश और हरिशंकर परसाई पर चर्चा की जायेगी और वह श्रुति कार्यक्रम के अंतर्गत होगी। एनएसडी की इस घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि उसने रंगमंच की चार विभूतियों को याद करने का एक उपक्रम किया है। यूं भी इब्राहिम अल्काजी को याद करना बहुत स्वाभाविक क्योंकि उन्होंने एनएसडी की नींव रखी है, और आज यह संस्था जिन ऊंचाइयों पर पहुंची है उसके पीछे इब्राहिम अलका जी का बहुत बड़ा योगदान है; जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
इस साल प्रख्यात लेखक संपादक धर्मवीर भारती का भी जन्मशती शुरू हो रही है और उनका नाटक 'अंधा युग' मील का एक पत्थर माना जाता है। 'कनुप्रिया' के भी कई मंचन हुए है। गिरीश कर्नाड का तो कहना था कि पिछले ढाई हजार वर्षों में अंधा युग जैसा कोई नाटक लिखा ही नहीं गया। अंधा युग के अब तक सैकड़ो शो हो चुके हैं और भारत में ही नहीं विदेशों में भी यह कई जगह खेला गया है। बावजूद इसके आज भी 'अंधा युग' हर निर्देशक के लिए एक चुनौती बना हुआ है और हर निर्देशक के मन में एक ख्वाहिश रहती है कि वह अपने जीवन काल में अंधा युग का मंचितअवश्य करें। इब्राहम अलकाजी, सत्यदेव दुबे जी से लेकर रामगोपाल बजाज और भानु भारती जैसे लोग करते रहे हैं।
यही हाल मोहन राकेश के नाटकों का भी है। राकेश के तीनों नाटक भी हिंदी रंगमंच के इतिहास में मील के पत्थर माने जाते हैं। आषाढ़ का एक दिन, 'लहरों के राजहंस' और 'आधे अधूरे' का निर्देशन हर रंगकर्मी अपने जीवन में एक बार जरूर करना चाहता है। परसाई जी प्रसिद्ध व्यंग्यकार रहे लेकिन उनकी व्यंग्य रचनाओं पर आधारित नाटक भी काफी लोकप्रिय रहे हैं। इस दृष्टि से अगर उनपर विचार विमर्श होता है तो इसका भी स्वागत होना ही चाहिए। भारंगम में हबीब साहब का आगरा बाजार भी होगा। क्या यह उचित नहीं होता कि इन चारों पांचों में से किसी एक के नाटक से उद्घटान होता जिसका बड़ा संदेश जाता।
यह अच्छी बात है कि एनएसडी अन्य उपक्रमों के जरिये उन्हें याद कर रही है लेकिन सवाल यह उठता है कि गत वर्ष एनएसडी ने हबीब तनवीर और रेखा जैन को क्यों नहीं याद किया जबकि उनकी भी जन्मशती थी। क्या हबीब साहब का योगदान भारतीय रंगमंच में किसी से कम है? क्या रेखा जैन का योगदान बाल रंगमंच के क्षेत्र में किसी से कम है? आखिर इन दो हस्तियों की अनदेखी एनएसजी ने क्यों की जबकि पिछले वर्ष एनएसडी के डायरेक्टर चितरंजन त्रिपाठी से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल पूछा गया तो उन्होंने यह कहा भी कि आज की पीढ़ी हबीब तनवीर को नहीं जानती और हमें उनके जानने के लिए कोई न कोई उपक्रम करना चाहिए। वैसे कहने को इस भारंगम में आगरा बाजार का मंचन नया थिएटर द्वारा किया जा रहा है। इस वर्ष तापस सेन की भी जन्मशती है। गत वर्ष श्री त्रिपाठी ने यह भी कहा कि वह भीष्म साहनी का नाटक 'तमस' भी करेंगे लेकिन एक साल गुजर गया, उन्होंने 'तमस' का दोबारा मंचन नहीं किया गया।
आखिर कुछ हस्तियों को दरकिनार किए जाने के पीछे कारण क्या है ? क्या एनएसडी का ‘रंग' बदल रहा है? भारंगम के प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पत्रकार ने श्री त्रिपाठी से एक सवाल भी किया कि आखिर भारंगम के सूत्र वाक्य 'एक रंग श्रेष्ठ रंग' के पीछे का भाव क्या है, निहितार्थ क्या है? इस नारे का संबंध कहीं उस नारे से तो नहीं जिसमें “एक देश एक चुनाव” की बात कही जा रही है। आखिर इस देश में सब कुछ 'एक' करने की जरूरत क्यों महसूस की जा रही है?
क्या इन दिनों बहुसंख्यक संस्कृति को एक “रंग” नहीं माना जा रहा जबकि यह देश विविध संस्कृतियों का देश है और यहां विविधता और बहुलता काफी है। यह अनेकता में एकता वाला देश है। श्री त्रिपाठी इस सवाल के 'आशय' को ताड़ गए और उन्होंने कहा कि आप उस सवाल को कहीं और ले जा रहे हैं। उन्होंने 'एक रंग' की व्याख्या करते हुए भरत मुनि के नाट्य शास्त्र का सहारा लिया और बताया कि कई तरह के नाटक खेले जाते हैं, लेकिन अंतत वे नाटक ही होते हैं, और यह नाटक का एक रंग है। हमारे इस स्लोगन के पीछे यही आशय है,भाव है। लेकिन इस 'एक रंग' को हबीब तनवीर के 'रंग' से जोड़ा जाए तो शायद यह शंका लोगों के मन में उत्पन्न होगी कि तनवीर साहब को उनके जन्मशती वर्ष में इसलिए एनएसडी ने याद नहीं किया क्योंकि उनका 'रंग' अब एनएसडी के 'रंग' से नहीं मिलता।
इस बार भारंगम और विश्व पुस्तक मेला एक साथ शुरू होने की वजह से शुरुआत में दर्शक दोनों के बीच बंट गए। हालांकि पुस्तक मेला का समय सुबह शुरू होता था और नाटकों का शाम और दोपहर में, पर थकी हारी जनता के लिए यह सोचना गलत और नामुमकिन होगा कि वह सुबह पुस्तक मेले जाये और शाम को नाटक। इसलिए जोर शोर से शुरु हुये भारंगम में वह उत्साह बाद में देखने को नहीं मिला, जो कि अपेक्षित था। बहरहाल भरंगम ने रंगमचं की दुनिया में विश्व मे अपनी पहचान बनाई है।