मीराबाई एक महान भक्ति संत, कवियित्री और भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थीं। उनका जन्म 1498 ईस्वी में राजस्थान के मेड़ता नगर के कुड़की गांव में राठौड़ वंश के राव दूदा के पुत्र रतन सिंह के यहां हुआ था। मीराबाई का जीवन श्रीकृष्ण की भक्ति में समर्पित रहा और उन्होंने कई स्थानों पर रहकर भजन-कीर्तन, पूजा और सेवा की। 

मीराबाई अपने एक भजन में कहती हैं: 

"खर्च ना खूटे, चोर ना लूटे।
दिन दिन बढ़त सवायो॥"

ठीक इसी तरह इतने वर्षों बाद भी मीराबाई की आभा से ओतप्रोत उनसे जुड़े ये स्थान किसी भी कृष्णभक्त या मीरामार्गी के लिए तीर्थ समान ही प्रतीत होते हैं। पूज्य मीराबाई के पदचिह्नों पर चलते हुए हम पहुंचते हैं उनसे जुड़ी ऐसी कई थाहों पर, जहां जहां से उनके आध्यात्मिक विकास की यात्रा गुज़री। उनकी जन्मस्थली में उनका ऐश्वर्यपूर्ण जीवन रहा, गढ़ में बचपन बीता लेकिन सांसारिक माया से किनारा करके एक छोटी आयु में ही उन्होंने अपने आराध्य के प्रति लौ लगा ली। ससुराल के विलास को दरकिनार कर एक फकीर की तरह मीराबाई ने अपनी आंतरिक आध्यात्मिक यात्रा जारी रखी। भटकते भटकते कृष्ण की द्वारका नगरी में मीराबाई ने मोक्ष पाया और वह स्थान भी आज तीर्थ के समान है। 

मेड़ता: मीरा बाई का जन्मस्थान

राजस्थान के मेड़ता में स्थित मीरा मंदिर वह स्थान है जहाँ मीराबाई ने अपने विवाह से पहले भगवान श्रीकृष्ण की आराधना की थी। यह 400 साल पुराना मंदिर "मीरा मंदिर" के नाम से भी प्रसिद्ध है।

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इसकी वास्तुकला अद्वितीय है जिसमें सुंदर नक्काशी, रंगीन दीवारें, और चमकदार शीशों व रत्नों से सजी दीवारें और फर्श हैं। मंदिर में मीराबाई की संगमरमर की आदमकद प्रतिमा और सामने भगवान चारभुजानाथ की प्रतिमा स्थापित है।

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मंदिर परिसर में स्थित मीरा स्मारक, कभी मीरा के परिवार का किला राव दूदागढ़ था, जिसे अब संग्रहालय में बदल दिया गया है। इसका भव्य प्रवेशद्वार लाल बलुआ पत्थर से बना है, जिसमें नक्काशी से उकेरे गए हाथी, मोर, सूरजमुखी, गणेश प्रतिमा, फूल-पत्तियों की कलाकृतियाँ और सुंदर झरोखे व रंगीन काँच की खिड़कियाँ दिखाई देती हैं। राजस्थान सरकार ने 2008 में लगभग 95.36 लाख रुपये की लागत से इसका संरक्षण कर मीरा बाई पेनोरमा का निर्माण करवाया, जिसमें सिलिकॉन फाइबर की मूर्तियाँ, लघुचित्र, शिलालेख आदि के माध्यम से मीराबाई के जीवन प्रसंगों को दिखाया गया है।

चित्तौड़गढ़: मीरा बाई का ससुराल

1516 ईस्वी में मीराबाई का विवाह महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) के पुत्र राजकुमार भोजराज से हुआ। चित्तौड़गढ़ किले के भीतर स्थित कुंभा पैलेस में 'कंवरपदा महल' वह स्थान है जहाँ मीराबाई निवास करती थीं। यह स्थान अब खंडहर बन चुका है, लेकिन इसका ऐतिहासिक महत्त्व बरकरार है।

कुंभा पैलेस से सटे कुंभ श्याम मंदिर का निर्माण महाराणा कुंभा ने 1449 ईस्वी में कराया था। जब मीराबाई चित्तौड़ आईं, तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की आराधना के लिए एक छोटा मंदिर मांगा। उनके ससुर महाराणा संग्राम सिंह ने उनके लिए इस मंदिर से सटा एक छोटा मंदिर बनवाया, जहाँ वे भजन गाया करती थीं। 

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"राणाजी म्हें तो गोविंद का गुण गास्याँ।
चरणामृत को नेम हमारो 
नित उठ दरसण जास्याँ॥
हरि मंदिर में निरत करास्याँ 
घुँघरियाँ घमकास्याँ"।।

मीराबाई कहती हैं कि राणाजी, मैं तो गोविंद का गुण गाऊँगी। चरण-अमृत लेना मेरा दस्तूर है इसीलिए हमेशा सवेरे उठकर दर्शन को जाऊँगी। हरि मंदिर में नाचूँगी और घुँघरू झनकाऊँगी।

यह मंदिर उत्तर भारतीय नागर शैली में बना हुआ है और इसमें मीराबाई और राणा सांगा के गुरु रैदास जी की स्मृति में एक छोटी छतरी भी स्थित है। यह अद्भुत है कि जातिभेद में फंसे हुए मध्यकालीन संसार में मीराबाई और राणा सांगा जैसे किरदारों ने मनुवादी व्यवस्था को तोड़ रैदास (गुरु रविदास) को अपना गुरु माना। 

वृंदावन: मीरा बाई का भक्ति स्थान

मीराबाई लिखती हैं: 
"गहणा गाँठी राना हम सब त्याग्या 
त्याग्यो है बाँधना जूड़ो।
मेवा मिसरी हम सब ही त्याग्या
त्याग्या छै सक्कर बूरो॥"

यानि हे राणा! हमने गहना-पाती सब छोड़ दिया; हमने काजल-टीका-सब छोड़ दिया, जूड़ा बाँधना भी त्याग दिया। मेवा-मिस्री और शक्कर का चूरा, हमने यह सब ही छोड़ दिया है।

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निर्मोही अवस्था में मीराबाई ने वृंदावन कूच किया। वृंदावन में स्थित मीराबाई मंदिर भी एक पवित्र स्थल है। ऐसा माना जाता है कि मीराबाई 1524 से 1539 तक वृंदावन में रहीं और यहाँ श्रीकृष्ण की शालिग्राम शिला की पूजा करती थीं। यह मंदिर 1842 में बीकानेर के राजदिवान ठाकुर राम नारायण भाटी द्वारा बनवाया गया था और आज भी उनके वंशज इसकी देखरेख करते हैं।

द्वारका: अंतिम जीवनकाल

"चालाँ वाही देस प्रीतम पावाँ चलाँ वाही देस।"

मीराबाई अपने इस पद में कह रही हैं कि चलो सखी! उसी देस चलें जहाँ प्रीतम यानि कृष्ण मिलेंगे।

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इसी खोज में मीरा बाई ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष द्वारका में बिताए। यहाँ स्थित जगत मंदिर (द्वारकाधीश मंदिर) में उन्होंने भक्ति के अद्वितीय पद रचे। यह मंदिर मीरा की भक्ति भावना से ओतप्रोत है।

डाकोर (गुजरात): मोक्ष स्थान 

"सब घट दीसै आतमा सबही सूँ न्यारी हो।
दीपग जोऊँ ग्यान का चढूँ अगम अटारी हो।"

मीराबाई कहती हैं कि आत्मा हर देह में दिखाई देती है फिर भी सबसे विलग रहती है। मैं ज्ञान के दीपक से अपनी आत्मा को पहचानना चाहती हूँ, ताकि मैं उस ऊँची अगम अटारी (पहुँच से दूर स्थान) पर चढ़ सकूँ जहाँ आत्मा का वास है।

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अहमदाबाद से लगभग 94 किमी दूर डाकोर में स्थित रणछोड़ रायजी मंदिर वह स्थान है जहाँ मीराबाई ने जीवन के अंतिम क्षण बिताए और अनंत में लीन हो गईं। यह मंदिर एक किले के भीतर स्थित है, जिसमें आठ गुम्बद और 24 मीनारें हैं। मुख्य गुंबद की ऊंचाई 27 मीटर है और इसका स्थापत्य मराठा शैली से प्रभावित है। यहाँ का मुख्य हॉल भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से संबंधित चित्रों से सुसज्जित है।

आमेर (जयपुर): मीरा द्वारा पूजित मूर्ति

मीराबाई की अमिट छाप जयपुर के पास आमेर में स्थित जगत शिरोमणि मंदिर तक दिखाई देती है। इस मन्दिर का निर्माण राजा मानसिंह प्रथम ने अपने पुत्र की स्मृति में करवाया था।

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इस मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की वही मूर्ति स्थापित है जिसे मीराबाई ने पूजा था। मंदिर संगमरमर और बलुआ पत्थर से बना है और इसकी नक्काशी अत्यंत दर्शनीय है। 

नूरपुर (हिमाचल प्रदेश): मीरा की अनोखी उपासना

हिमाचल प्रदेश में नूरपुर किले के भीतर स्थित बृजराज स्वामी मंदिर एकमात्र ऐसा मंदिर है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण के साथ-साथ मीराबाई की मूर्ति की भी पूजा होती है। 

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कहा जाता है कि नूरपुर के पठानीया वंश के राजा जगत सिंह (1619-1623) चित्तौड़ से यह मूर्ति लाए थे जिसे कभी मीराबाई पूजा करती थी और उन्होंने इस मूर्ति को अपने दरबार-ए-खास में स्थापित करवा इसे मंदिर का रूप दे दिया। आज भी इस मंदिर की दीवारों पर श्रीकृष्ण लीलाओं का सुंदर चित्रण किया गया है।

मीराबाई और उनके धरोहरों की प्रासंगिकता 

मुड़कर देखने पर यही भान होता है कि मीराबाई केवल एक संत ही नहीं, बल्कि भारतीय भक्ति परंपरा की अनुपम धरोहर भी रही हैं। उनसे जुड़े स्थान न केवल धार्मिक आस्था के केंद्र हैं, बल्कि स्थापत्य कला, इतिहास और भक्ति के अद्वितीय संगम को दर्शाते हैं। चाहे मेड़ता हो, चित्तौड़, वृंदावन, द्वारका या नूरपुर; हर स्थान मीराबाई की दिव्य भक्ति की छाप से ओतप्रोत है।

इतने वर्षों बाद भी मीराबाई आज प्रासंगिक हैं, इनके भजन गाए, सुनाए और पढ़ाए जा रहे हैं। इनसे जुड़े स्थानों पर जत्थों द्वारा आध्यात्मिक यात्राएं की जा रही हैं, इनके नाम पर उत्सव मनाए जा रहे हैं; यानि मीराबाई की अर्जित की गई निष्काम भक्ति की पूँजी भी आज तक दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।