उपन्यास पढ़कर जब हम रीतते हैं तो चारुशीला की करुणा युक्त खुली आँखे हृदय में बस जाती है।
‘बिनती राय प्रवीन की, सुनिए शाह सुजान
जूठी पातर भखत है, बारी, बायस, श्वान।’
यह वो कवित्त है जिसके बारे में यह माना जाता है कि ओरछा की राजनर्तकी राय प्रवीण ने इसे अकबर के दरबार में सुनाया था। बुंदेलखंड क्षेत्र में ओरछा के महाराज इन्द्रजीतसिंह और राज नर्तकी राय प्रवीण की प्रेम कथा ख्यात है। इसी कथा को आधार बनाकर गुणसागर सत्यार्थी ने काफी शोध करके एक उपन्यास लिखा ‘एक थी रायप्रवीण’ जिसमें उन्होंने राय प्रवीण के राजनर्तकी होने की बात को न मानकर ये बताया है कि वे महाराज की पत्नी थी और उनका गन्धर्व विवाह हुआ था।
इतिहास के पन्नों और लोक के बतकुच्चन में कल्पना का मिश्रण करके निधि अग्रवाल ने ‘अप्रवीणा’ उपन्यास का सर्जन किया है। इस उपन्यास की कथा का आधार भी राय प्रवीण और महाराज इन्द्रजीत का प्रेम ही है, किन्तु लेखिका ने महाराज की तीन पत्नियों का काल्पनिक चरित्र गढ़कर कथा को एक नया आयाम दिया है। यह उपन्यास पत्नी बनाम प्रेमिका का द्वंद्व तो प्रस्तुत करता ही है स्त्री जीवन की विवशताओं को भी सामने लाता है।
गार्हस्थ्य जीवन में प्रेम के मानक उदाहरण सामाजिक- सांस्कृतिक रूप से उस प्रकार प्रचलित नहीं है, जिस प्रकार विवाह पूर्व या परकीया प्रेम के। लेखिका की शिकायत है कि प्रेयसी के समर्पण व प्रेम को दिखाने के लिए पत्नियों की अनवरत सेवा भावना को दरकिनार कर दिया जाता है। लेखिका ने महाराज की दूसरी पत्नी चारुलता को केन्द्र में रखा है। तीन पत्नियों में सर्वाधिक प्रिय होने के कारण राजा के ह्रदय की स्वामिनी होने का दंभ उसके चरित्र में घुला हुआ है| राजा का प्रेम जिसके वर्चस्व के दंभ को पोषित करता है। किन्तु इस दंभ को एक कम उम्र, छोटी जाति की नामालूम सी लड़की छिन्न-भिन्न कर देती है, उसके अहम को चकनाचूर कर देती है और वो अपने पति के लिए एक डाहयुक्त, ईर्ष्यालु व अहंकारी स्त्री मात्र के रूप में परिवर्तित हो जाती है। उसके प्रेम का यह विडंबनापूर्ण पक्ष अन्ततः उसके प्राण हर लेता है।
लेखिका ने स्पष्ट किया है कि इंद्रजीत सिंह की इन तीन पत्नियों को कल्पना के आधार पर सृजित किया गया है। कल्पना होने पर भी सत्य के नजदीक हैं ये परिस्थितियां। यहाँ ऐतिहासिक तथ्य और कल्पना के बीच भेद या परख की कोई आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती क्योंकि स्त्री मन की परतों-अन्तर्परतों को अभिव्यक्त करने का जो लक्ष्य लेकर लेखिका चली हैं, उसमें इतिहास या कल्पना की बहस बेमानी है।
एक पुरुष की तीन स्त्रियाँ, तीनों के अपने मंतव्य और विचार। राय प्रवीण के महाराज के जीवन के आने के पश्चात तीनों रानियाँ अलग तरह की प्रतिक्रिया देती हैं। बड़ी महारानी का कथन है –‘ जो बदल न सको उसे स्वीकार लेना कायरता नहीं संताप से मुक्ति का मार्ग है।’ छोटी रानी राधिका कहती है-‘पाकर खोना बहुत दु:ख देता है जीजी, मैने कभी पाया ही नहीं यह अभिशाप वरदान सिद्ध हुआ।' पर मंझली रानी चारुलता इस नए समीकरण से बहुत व्यथित होती है, उसे प्रेम का यह विभाजन कदापि मंजूर नहीं -'प्रेम है महाराज...मंदिर का प्रसाद तो नहीं, जिसे सबसे बाँटा जा सके कल भी आप पर एकाधिकार चाहिए था आज भी चाहिए। छोड़ सकते हैं पर बाँट नहीं सकते आपको।'
पत्नी होने का अधिकार और वर्चस्व चारुलता को यह स्वीकार नहीं करने देता। प्रेम की म्यान में एक की ही जगह होती है एक से दूसरा होते ही मधुरता कटुता में तब्दील हो जाती है। यह एकाधिकार की भावना और प्रिय से अपेक्षाएँ, प्रेम के बदले प्रेम की चाहत वह भी एकनिष्ठ प्रेम, दु:ख को जन्म देता है। वास्तव में बंधन प्रेम का शत्रु है, किसी को बांधने के क्रम में वह अनायास ही छूटता चला जाता है और कटुता सम्बन्धों में पसरने लगती है। यही कटुता महाराज और चारुलता के बीच आ पसरती है और चारुलता और महाराज के बीच कभी यह बहस के रूप में सामने आती है यथा- ‘स्मरण रहे हम अपने अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होने देंगें। जहाँ से चारुलता के वर्चस्व का प्रारम्भ होता है वहीं उसी बिंदु विशेष पर प्रवीण की सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं। " और कभी प्रेम के हार जाने के बाद की निराशा के रूप में। कितना तो आसान है पुरुष का यह कह देना कि 'तुम्हारे प्रति प्रेम में तो कोई कमी नहीं’ और उतना ही कष्टप्रद है स्त्री का यह कथन ‘लेकिन प्रेम अब केवल हमसे ही हो ऐसा भी तो नहीं रहा।’
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बड़ी रानी की प्रतिक्रिया समयानुकूल है और स्त्री जीवन का सच भी है उनके शब्दों में - " पूरा पाने की जिद में कहीं तुम पूरा ही न खो बैठी। राजमहल की स्त्रियाँ सदियों से इस बँटवारे का त्रास सहने को अभिशप्त रही है। तुम और हम इसे बदल नहीं सकते।" वास्तव में कितना कठिन है एक सत्ता की शक्ति से युक्त पुरुष की पत्नी हो पाना क्योंकि कितना आसान है ऐसे पुरुष का विचलन, जिसकी कोई जवाबदेही अपनी समर्पिता पत्नी के प्रति नहीं।
उपन्यास के पात्रों की विशेषता यह है कि एक दूसरे से हितों की टकराहट के बावजूद लेखिका ने किसी का पक्ष नहीं लिया है। चारुलता से सहानुभूति अवश्य रखी गई है किन्तु उसके, कमजोर पक्ष को दिखाने में कोई पक्षपात नहीं किया गया है। इंद्रजीत को केवल अपना बनाने की हठधर्मिता के चलते रायप्रवीण पर होने वाले हमले की नियोजिता वही है ऐसा संकेत किया गया है। राजसी स्त्री होकर एक लोहार की नाचने गाने वाली बेटी से हार जाना कदाचित उसे और संतापित करता है। हालांकि आत्म स्वीकार्य का भाव उसके अन्दर भी है ‘मैं जानती हूँ तुम्हारा कोई दोष नहीं।’ उपन्यास में कोई खलनायक नहीं है। हर व्यक्ति के पास अपने वाजिब कारण हैं जिनसे उनका व्यवहार संचालित हो रहा है। लेखिका ने उपन्यास प्रारंभ करते हुए ‘मनकही’ में लिखा है कि ‘प्रेयसी को स्थापित करने में लोग पत्नी को इर्ष्यालु और डाहयुक्त प्रस्तुत करते हैं।’ कथा में लेखिका का झुकाव पत्नी की ओर है लेकिन ‘प्रेयसी’ को नीचा दिखाने की कवायद उन्होंने नहीं की है। रापप्रवीण को दूसरी औरत की कालिमा से कलंकित करने का प्रयास भी लेखिका ने नहीं किया है। बल्कि उसके सौन्दर्य का अलौकिक वर्णन इंद्रजीत के विचलन के अपराध को कदाचित कम ही कर देता है। 'बेतवा की पावनता’ और ‘भोर का उजास’ लिए सौन्दर्य से अभिभूत न हो पाए ऐसी सामर्थ्य राजा में कहा।
महाराज उसके रूप सौंदर्य को एक अलौकिक गरिमा प्रदान करते कहते हैं- ‘यह वह रूप नहीं जो प्यास बढ़ाए बल्कि यह हर प्यास से मुक्त किए देता है। यह गुलाब का वह पुष्प नहीं जिसे देखते ही वृंतच्युत करने को कोई हाथ आगे बढ़े, यह सरोवर में खिला वह कमल है जिसे किनारे बैठ उम्रभर निहारकर मोक्ष पाया जा सकता है।’ महारानी का कथन भी इसकी पुष्टि करता है - 'वह रिझाती नहीं, उसकी पवित्रता ही उसका सौन्दर्य है जो सबको प्रेमपाश में बाँध लेता है। रूप भी, स्वर भी, नृत्य भी, कविता भी, चित्रकारी भी। यह लड़की है क्या ! मानो मूर्तिकला ने जन्म ले लिया है। एक दैवीय दीप्ति उसके मुख पर सदा आलोकित रहती है।
इन्द्रजीत को लेखिका आसानी से घृणा का पात्र बना सकती थीं किन्तु उनके चरित्र की बुनावट में भी मानवीय पक्ष का पर्याप्त ध्यान रखा गया है।
महाराज इंद्रजीत चारुशीला की अवस्था देखकर आत्मग्लानि का अनुभव तो करते हैं, किन्तु एक राजसी पुरुष का अहंकार और परंपरा से चले आई बहुविवाह प्रथा की जनस्वीकार्यता के चलते वे प्रवीण के प्रति अपने आकर्षण को गलत भी नहीं मानते। प्रवीण की उपस्थिति उनके लिए दीन-दुनिया के प्रपंचों से इतर एक विश्रांति पूर्ण स्थिति का आस्वादन है। उनके पास अपने कार्य का औचित्य सिद्ध करने के अनगिन उदाहरण हैं। चारुशीला के उद्वेग, व्यग्रता व उसके हठ को वे बेवजह का मानते हैं। लेखिका ने बड़ी रानी के माध्यम से पुरुष वृत्ति की ओर प्रहार किया है- ‘अनैतिकता का पुरुषों को बड़ा आकर्षण है। सारे संस्कार, लोकलाज, मर्यादाओं का बोझ सिंदूर में घोल हमारे मस्तक चढ़ा दिया जाता है। प्रेयसी हो या ब्याहता, पुरुष उनसे किसी अनुचर सा व्यवहार चाहता है।’
पुरुष की इस वृत्ति और स्त्रियों की स्थिति के पीछे आर्थिक-सामाजिक कारक हैं जो स्त्री को तो जीवन भर का बंधन देते हैं वहीं पुरुष बंधकर भी स्वतंत्र रहने का अधिकारी है। स्त्री अपनी स्थिति को स्वीकारे नहीं तो जाएगी कहाँ सत्ता, शक्ति, धन सम्पत्ति सब कुछ तो पुरुष पास है। वह पूरी तरह से पुरुष की सदाशयता पर आश्रित हैं उसकी किस्मत की बात है कि उसकी राह में कोई प्रवीण आती है या नहीं।
पत्नी हो या प्रेयसी दोनों ही पितृसत्ता की नियामक शक्तियों द्वारा छली गयीं हैं। पत्नी को दुःख है कि ‘अपने समूचे स्त्रीत्व ,प्रेम, समर्पण और सौन्दर्य के बावजूद एक नाचने वाली से हार गयी।’ जबकि प्रेयसी की कचोटन यह है कि ‘चाहे जितने भी त्यौहार पूज ले, बिछुए सिन्दूर लगा ले, उसके लिए संबोधन पतुरिया का ही रहेगा |’
महाकवि केशवदास के संरक्षण में रहकर ही राय प्रवीण कवित्व और गायन में निपुण होती है। इतनी संख्या में सुंदर व गुणवान शिष्याओं के बीच श्रृंगार के महाकवि अपने पति की उपस्थिति के खतरे को समझकर भी बुद्धिमत्ता से उसे स्वीकार करने वाली गुरूमाँ स्त्रियों के इस चिर भय से अछूती नहीं, जिसमें पति का विचलन उनके बने-बनाए घरौंदे को क्षण में ढहा सकता है। प्रवीण के प्रति महाराज का आकर्षण उनकी तसल्ली बनकर आता है तो वह इसीलिए कि यदि ऐसा न होता तो चारुलता के स्थान पर वो स्वयं भी हो सकती थीं। केशवदास यहां अवश्य संवेदना से अधिक चातुर्य से काम लेने वाले महाप्रवीण हैं जिन्हें पता है कि ‘आश्रयदाता का कहा हर वचन सत्य होता है।'
लेखिका ने इसे उपन्यासिका का नाम दिया है तो जाहिर है इसमें विस्तार की गुंजाइशों को उन्होंने सीमित कर दिया है। तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य को उन्होंने संक्षिप्त में बताने का प्रयास किया है, वो भी इसलिए कि रायप्रवीण को अकबर के दरबार तक जाना है तो जितना बताया गया, वह कहना जरूरी था। राजनीतिक समीकरणों को सुलझाना या सत्ताधीशों की महत्वाकांक्षाओं को दिखाना इस उपन्यासिका का उद्देश्य भी नहीं है।
इसकी भाषा की विशेषता यह है कि वह बेतवा सी बहती है. प्रांजलता को सही अर्थ प्रदान करती भाषा। भाषा का प्रवाह ऐसा है कि अनायास ही पाठक को अपने साथ बहा ले जाती है और उसकी ताकत ये कि सीधे उस युग और परिवेश में खड़ा कर देती है। किसी भी स्थान पर यह नही लगता कि यहाँ पर किसी और तरीके से लिखे जाने की आवश्यकता थी। पढ़ने के बाद भाषा की संतृप्ति का भाव रह जाता है। ‘प्रेम आत्माओं का उबटन कर उन्हें निखार देता है’ जैसे वाक्य सुचिंतित व प्रभावी बन पड़े हैं। चूँकि इस उपन्यास के एक मुख्य पात्र महाकवि व आचार्य केशवदास भी हैं, तो उनकी काव्य पंक्तियाँ बीच में आकर माहौल को रसयुक्त बनाती हैं। प्रवीण द्वारा मीरा और रसखान के पदों का गायन दर्शाने के लिए पदों का प्रयोग स्वाभाविक ही है।
उपन्यास पढ़कर जब हम रीतते हैं तो चारुशीला की करुणा युक्त खुली आँखे हृदय में बस जाती है। किंतु लेखिका की भावप्रवणता या कहें कि संवेदनशीलता की ताकत यह है कि उन आँखों को झट मूँदने को बढ़ती प्रवीण, उसे बरजकर महाराज को आगे बढ़ाती महारानी या उन बड़ी- बड़ी कामनाओं से भरी आंखों को अंगुलियों के पोरों से ढकते महाराज किसी के प्रति कटुता या घृणा का भाव शेष नहीं रहता। कुछ बचा रह जाता है तो वो है मन के अनसुलझे समीकरण। परिस्थितियों के सामने मनुष्य का बौनापन और एक सही गलत, नैतिक अनैतिक का व्यर्थताबोध।
पुस्तक – अप्रवीणा
लेखक – डॉ. निधि अग्रवाल
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन,जयपुर
मूल्य – 150
समीक्षक – डॉ. अंकिता तिवारी , सहायक प्राध्यापक – हिंदी , राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय , बाँदा (उ.प्र.)
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