कब, कहाँ और किसलिए: वही इलाहाबाद जहाँ पर सिमोन द बोउआर से पहले चाँद पत्रिका के अंकों में ‘शृंखला की कड़ियाँ ’ महादेवी वर्मा रच रही थीं। वही इलाहाबाद जहाँ रामेश्वरी नेहरू, उमा नेहरू, हरदेवी , यशोदा देवी आदि स्त्रियाँ औपनिवेशिक भारत में नारीवादी क्रांति कर रहीं थीं। उन सभी की अनुगूँजें जिन्हें बरसों-बरस भारत के हिंदू समाज ने अज्ञात अनाम स्त्रियों की मामूली चीखें समझीं; वे आवाजें दो दिवसीय सेमिनार में अपनी वृहत्तर ऐतिहासिक विकासक्रम का गौरवगान सुन रही थीं। यह स्त्रीवादी स्त्रियों और स्त्रीवादी पुरुषों का साझा उत्सव था जिसे सब मिल-बाँटकर सेलिब्रेट कर रहे थे।
बीते दिनों इलाहाबाद विश्विद्यालय के हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग और आंतरिक गुणवत्ता आश्वासन प्रकोष्ठ के संयुक्त तत्वावधान में शताब्दी वर्ष आयोजन क्रम के उपलक्ष्य में 'स्त्री साहित्य : विविध आयाम' विषय पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तिलक भवन में दो दिवसीय (5 - 6 मार्च, 2025) राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था।
कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र के स्वागत वक्तव्य में संगोष्ठी की संयोजिका और विभागाध्यक्षा प्रो. लालसा यादव ने कहा कि संयोग से मौसम भी प्रतिकूल हो रहा, आज स्त्री के रास्ते ऐसे ही हैं। संगोष्ठी के लिए आप जैसे ही विश्वविद्यालय के तिलक भवन में प्रवेश करते, आपको कार्यक्रम की तमाम होर्डिंग पोस्टर के बीच एक पोस्टर जरूर ध्यान आकर्षित कर रहा था, जो संगोष्ठी लोगो था और जिसे फाइन आर्ट्स के प्रो. अजय जेटली ने बनाया था। इसमें तीन पीढ़ियों की स्त्रियां थीं।
इस चित्र के माध्यम से स्त्री के बदलते आयाम, बदलता सामाजिक नज़रिया है। पहले जहां स्त्री की आज़ादी घूंघट से थी फिर यह यात्रा बढ़ती हुई चश्मे से हेडफोन तक आई है। यह यात्रा परंपरागत आजादी से आधुनिक समय और अब उत्तर आधुनिक समय की भी यात्रा है। दो दिन पहले से ही तमाम तैयारियों के बीच विश्वविद्यालय की बी.ए , एम.ए . और शोध की सुंदर गुणवान लड़कियों ने अपने हाथों से इस लोगो की रंगोली मंच के सामने सजाई थी। जो इस नारी उत्सव को और भव्यता और गरिमा प्रदान कर रहा था।
उद्घाटन सत्र : जलती शमा की रौशनी में जगमगाते नारीवादी परवाने
इस अदबी बहस की महफ़िल की शुरुआत दीपक जलाकर हुई। इस रस्म अदायगी में प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी, जया जादवानी, प्रो. सुधा सिंह, कुल सचिव आशीष खरे, प्रो. चंदा देवी एवं विभागाध्यक्षा प्रो. लालसा यादव शामिल रहे। स्वागत-अभिनंदन के बाद स्वागत वक्तव्य में प्रो लालसा यादव ने कहा कि हिंदी के अकादमिक और साहित्य जगत में एक सत्र के रूप में स्त्री विमर्श शामिल होता था आज यह एक मुकम्मल दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का विषय है — ‘स्त्री साहित्य: विविध आयाम।’
उन्होंने कहा , “पितृसत्तात्मक समाज में सदा ही स्त्री को सदा ही कमतर आँका गया है और उसके सौंदर्य और बुद्धि को विपरीत करके देखा गया है लेकिन यह सदी स्त्री को ब्यूटी विथ ब्रेन के साथ देखती। इतिहास लेखन में हमेशा ही स्त्रियाँ छूट गईं, हम तुलसी को तो जानते पर २०२ दोहे लिखने वाली रत्नावली को नहीं। मुहावरों चुटकुलों के आगे अब वह समता समानता की बहस है। स्त्री विमर्श स्त्री की अपनी पक्षधरता है और अपने पक्ष में खड़े होने का अर्थ किसी को विपक्ष या विरोधी के रूप में खड़ा करना नहीं होता।”
बीज वक्तव्य वरिष्ठ कथाकार जया जादवानी ने दिया। उन्होंने कहा ,“स्त्री खुद के देवीकरण के विरुद्ध वस्तुकरण को भ्रम पूर्वक चुन लेती हैं। उन्होंने कहा आज औरत के नये रूप सामने हैं जैसे बॉडी बिल्डर औरतें, बाज़ार पर कब्ज़ा जमा रही औरतें, अपनी देह अपनी इच्छा की मालकिन औरतें आदि आज भी जब अपना दर्द बयां करती हैं तो रूह काँप जाती है। हमारी माँ बुर्का पहनती थी और हमारी बेटी बिकनी हम बीच वाली पीढ़ी की स्त्रियां इन परिवर्तनों की साक्षी बन रहीं। ”
जया जादवानी जी ने कई सवाल उठाए जैसे कि क्या आज भी स्त्रियां पितृसत्ता को पाल रहीं, क्या आज भी स्त्री पुरुष की निगाह से खुद को देख रही, जिम्मेदारी और स्त्री, आने वाले समय में परिवार संस्था की स्थिति। उन्होंने कहा कि यूरोप की फलती फूलती पॉर्न इंडस्ट्री क्या महिला के गुणात्मक संवृद्धि के पक्ष में है? वक्तव्य के आखिरी में जया जी ने कहा पुरुष स्त्री को देह और गर्भ में रीड्यूज न करे बल्कि सहयोगी हो। स्त्री पुरुष की मुक्ति साझा है। बिना स्त्री मुक्ति के मानव मुक्ति संभव नहीं।
कुल सचिव आशीष खरे ने कहा कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार महिला कुलपति के आने से विश्वविद्यालय तमाम परिवर्तनों का साक्षी बन रहा। आभार ज्ञापन करते हुए प्रो. चंदा देवी ने दलित फेमिनिज्म, नारीवादी आंदोलन में जाति का प्रश्न , पितृसत्ता व मनुवाद के संबंध का सवाल छोड़ दिया था जिसपर आने वाले सत्रों में छिटपुट बातें हुई थीं।
पहला सत्र: हिंदी नवजागरण और स्त्री प्रश्न
इस सत्र में वक्ताओं में प्रो. चारु गुप्ता, प्रो. सुधा सिंह और प्रो. प्रज्ञा पाठक शामिल थीं। सत्र का संचालन डॉ शशि ने किया। पहली वक्ता के प्रो. प्रज्ञा पाठक ने इलाहाबाद से निकलने वाली दो पत्रिकाओं ‘ स्त्री दर्पण ’ और ‘ गृह लक्ष्मी ’ का जिक्र किया। ये पत्रिकाएँ स्त्री को मनुष्योचित अधिकार दिलाने की बात कर रही थीं। उन्होंने कहा कि बड़े-बड़े साहित्येतिहासकार भी स्त्री प्रश्नों पर चुप रहते थे।
उमा नेहरू, रामेश्वरी नेहरू का जिक्र हुआ। उमा नेहरू लिखती हैं कि गांधी जी ने कहा था स्त्रियों के लिखने से कोई फायदा हो तो लिखें वरना नहीं। प्रज्ञा जी ने उस समय हो रहे पूरब की महिला और पाश्चात्य महिला पर बहस को रेखांकित किया। पाश्चात्य स्त्रियाँ शीर्षक से दो लेख उमा नेहरू ने 1916-18 में स्त्री दर्पण में लिखा। उन्होंने कहा स्त्री पाश्चात्य हो या पूर्वी उसकी स्वतंत्रता पर चर्चा आवश्यक है। मेरठ में सक्रिय कमला चौधरी , हेमवती देवी का जिक्र हुआ। उमा नेहरू स्त्री सौंदर्य मुद्दे के संबंध में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था — ‘ स्त्री सौंदर्य का दुरादर्श । ’
जाते जाते प्रज्ञा पाठक जी ने कई सवाल उठाए जैसे क्या स्त्री आंदोलन की धारा पिछड़ रही है। आज कुछ स्त्रियाँ बुर्के की वकालत कर रहीं। इलाहाबाद में परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्रों की कंपटीशन की किताबों के प्रकाशन में कितनी स्त्रियाँ दिखाई देती हैं। अहमदाबाद विश्वविद्यालय से आई डॉ चारु सिंह ने ‘ हरदेवी और हिंदी नवजागरण ’ विषय पर बात रखी। हरदेवी का जिक्र रामविलास शर्मा ने भी किया है और डॉ धर्मवीर ने अज्ञात हिंदू औरत के नाम से उल्लेख किया।
चारु जी ने कहा कि हरदेवी का संवाद अपने सयय के वैश्विक लेखकों से था और बांग्ला के लेखक लगातार कोट करते हैं। सहवास कानून बनाने में हरदेवी का योगदान रहा। इस कानून में 0-1 वर्ष तक की विधवाओं का जिक्र था । स्त्री अधिकार के इस कानून का विरोध तिलक ने किया था। अगली वक्ता प्रो सुधा सिंह थीं । उन्होंने कहा कि नवजागरण में स्त्री मुद्दे ज़रूर थे पर स्त्री कभी केंद्र में नहीं रही। नवजागरण की शक्तियां सत्ता की तरफ देख रही थीं। स्त्रियों ने नवजागरण टर्म कभी इस्तेमाल नहीं किया। स्त्रियों ने भक्ति काल को वैराग्य काल कहा। उनकी यौनाभिव्यक्ति समाज को हमेशा खतरनाक लगी।
सुधा जी ने कहा कि वास्तव में नवजागरण पर बात रखते हुए वैकल्पिक समाज व चिंतन वही रख रहीं। व्यक्ति और चेतना का द्वंद्व स्त्रियों ने प्रयोगवाद में नहीं बल्कि जागरण में ही रख दिया था। अपने वक्तव्य के समाप्ति में प्रो सुधा सिंह भावुक होकर कहती हैं कि बहुत लंबा चलकर आए हैं हम बहुत समय लगा 21वीं सदी तक हमें आने में...।
इस सत्र की आखिरी वक्ता प्रो. चारु गुप्ता थीं। उन्होंने कहा कि स्त्रियों की आदर्शीकरण की अवधारणा में शोषण की जड़ें धंसी हैं। स्त्रियों की पत्रिकाओं में कार्टून यौन शिक्षा और घरेलू शिक्षा के लिए होते थे। उन्होंने आगे कहा कि पर्दा प्रथा को कई बार संस्कृति और सम्मान का प्रतीक माना जाता है तो कई बार इसे स्वतंत्रता का पर्याय। पुरुष समाज को तीर्थ यात्रा पर स्त्रियों के पर्दे की चिंता होती थी। उनकी पत्रिकाओं में यह चित्र आते थे कि औरतें पढ़ लिखकर गाड़ी चलातीं, फैशन करतीं और घर का काम भूल जातीं।
दूसरा सत्र : स्त्री वैचारिकी और स्त्रीवादी आलोचना
इस सत्र के वक्ताओं में डॉ. सुप्रिया पाठक , डॉ. अर्चना सिंह और प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी थे। पहली दोनों वक्ता समाज विज्ञान की शाखा से थीं।
इस सत्र का संचालन डॉ. अमृता कर रही थीं। डॉ. सुप्रिया पाठक ने कहा कि कृति का मूल्यांकन लिंग के आधार पर न हो बल्कि एक मनुष्य के आधार पर हो पाए। उन्होंने आगे कहा कि पुरुषवादी सत्ता को हमेशा से लगता रहा है कि विमर्श खंडित करते हैं। उन्होंने आगे दो साहित्यकारों के उद्धरण दिए। नामवर सिंह इंटरव्यू में कहते हैं- 'स्त्रीवाद कुछ नहीं है थोड़ा दिखाना थोड़ा झुकाना है बस।' निर्मला जैन ने भी स्त्री विमर्श को 'धनाड्य महिलाओं का प्रलाप' कहा। उन्होंने कहा कि स्त्री विमर्श केवल पब्लिक स्फीयर में होने वाला मुद्दा नहीं है, बल्कि वह घर-गृहस्थी में भी होता है।
डॉ. सुप्रिया पाठक ने एक सवाल उठाया कि कितने लोकगीत पुरुषों ने गाए? आगे उन्होंने सीमा आज़ाद की किताब 'जेल में रह रही स्त्रियों की आत्मकथा' और पवन करण की किताब 'मुगल स्त्री' को स्त्रीवाद की दृष्टि से महत्वपूर्ण कहा। आखिरी में उन्होंने कहा कि आलोचना को हिंदी के लोक साहित्य को भी देखने की जरूरत है।
अगली वक्ता डॉ. अर्चना सिंह थीं। उन्होंने कहा कि अल्बरूनी ने अपने विवरण में लिखा है कि भारतीय समाज बहुत बात करने वाला समाज है। उन्होंने कहा कि स्त्रियाँ ज्ञान का उत्पादन तो कर रही थीं पर वह दर्ज कितना हो रहा यह प्रश्न है। दरअसल अर्चना जी का वक्तव्य बहुत विरोधाभासी था जिसमें उनके अपने ही बात में स्पष्टता नहीं दिखाई दे रही थी।
पूर्व वक्ता सुप्रिया जी के नामवर सिंह वाले कोटेशन के विषय में उन्होंने कहा कि इंट्यूशन और थियरी अलग-अलग हो सकती है। अब यह सवाल उठता है कि क्या किसी व्यक्ति की थियरी बिना इंट्यूशन के बनती है। अर्चना जी की बहुत सारी बातें विमर्शों के विरुद्ध जा रही थीं। जिसमें यह कहा गया कि उन विमर्शों के टेक्स्ट के प्रमाण पर संदेह है। उन्होंने कहा कि होता कुछ है और वह कई अनुभवों से होते हुए कई कानों तक गुजर कर बदल जाता है। इनकी इस बात का खंडन आगे की सत्र के एक स्त्री वक्ता ने किया यह कहते हुए कि वास्तव में हाशिए के समाज की आत्मकथा सबसे अधिक प्रामाणिक है क्योंकि उसमें अनुभूति की प्रामाणिकता है।
इस सत्र के आख़िरी वक्ता प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी थे। उन्होंने कई तरह के सवाल रखे। जगदीश्वर जी ने कहा कि हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य शुक्ल से स्त्रियों के बारे में ठीक से दो शब्द भी नहीं लिखने का धैर्य नहीं था। उन्होंने भारतेन्दु से नाटकों की परंपरा की शुरुआत की मान्यता पर सवाल उठाते हुए कहा कि 19 वीं शताब्दी तक राजस्थान की रानियाँ नाटक लिखा करती थीं, अभिनय करती थीं और उसकी पूरी स्क्रिप्ट होती थी। ज्योतिर्मयी देवी ( बांग्ला) ने इसे सबसे पहली बार देखा और लिखा था । वह समय भारतेन्दु के उद्भव से पहले का था। उन्होंने सवाल किया कि बौद्धों जैनों सबके यहाँ स्त्रियों का लेखन सुरक्षित है केवल हिन्दी में नहीं। उन्होंने जोर देते हुए यह कहा कि स्त्रियों का लिखा हुआ जो कुछ भी है मानकीकृत अपमानकीय सब दर्ज़ होना चाहिए।
दूसरा दिन ( 6 मार्च )
संगोष्ठी के दूसरे दिन समानांतर तकनीकी सत्र भी चल रहे थे। जिसमें देशभर से आए हुए शोधार्थियों ने पत्र वाचन किया। कुल 68 शोध-पत्र पढ़े गये और 350 शोधार्थियों ने रजिस्ट्रेशन कराया था। इसके बाद तीसरा सत्र शुरू हुआ।
तीसरा सत्र : स्त्री कविता और कविता में स्त्री
इस सत्र के वक्ताओं में डॉ. कविता कादंबरी, डॉ. ज्योति चावला, डॉ. सुजीत कुमार सिंह और प्रो. प्रणय कृष्ण थे जिन्हें अध्यक्षता भी सौंपी गई थी। सत्र का संचालन डॉ. संतोष कुमार सिंह ने किया। पहले वक्ता डॉ. सुजीत कुमार सिंह थे। उन्होंने पार्वती देवी नामक कवि का जिक्र किया जो कि लंबे समय तक अज्ञात रहीं। उन्होंने बताया कि उस समय अमूमन संपादक स्त्री लेखकों के नाम का जिक्र नहीं करते थे पर पार्वती देवी कविता के बीच में अपना नाम छोड़ देती थीं।
बीते दिनों हिंदवी के उपक्रम बेला पर संपादक द्वारा अपने रविवारीय कमेंटनुमा लेख में कृष्णा सोबती के समग्र साहित्य को मलबा कहा गया था। सुजीत जी ने उसकी तार्किक सोदाहरण प्रतिक्रिया दी। उन संपादक के इस बात की निंदा सत्र के अध्यक्ष प्रो. प्रणय कृष्ण ने भी की।
अगली वक्ता डॉ. कविता कादंबरी थीं। उन्होंने आयर लैंड के लेखकों के एक सर्वे का उदाहरण दिया जिसमें 60% पुरुष कवि थे और 40% स्त्री कवि। दरअसल इस उदाहरण से वे यह बताना चाह रही थीं कि भारत में तो ऐसा कोई सर्वे नहीं हुआ फिर हम यह कैसे कह देते हैं कि स्त्रियाँ आज पुरुषों से अधिक लिख रहीं या दर्ज हो रहीं। उन्होंने पितृसत्ता के उस नैरेटिव का जिक्र किया जिसमें यह स्थापित किया जाता है कि मात्रात्मक रूप से वे अधिक दर्ज़ हो रहीं। उन्होंने स्त्रियों के सोचने — लिखने — दिखने — दर्ज़ होने की पॉलिटिक्स को समझाया। पर्सनल और यूनिवर्सल की पॉलिटिक्स पर बात की।
अगली वक्ता ज्योति चावला थीं। जिन्होंने कविता कादंबरी के वक्तव्य से संवाद किया और प्रतिवाद में कुछ उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट करने की कोशिश कीं कि पहले के अपेक्षाकृत सचमुच आज स्त्रियां अधिक लिख रही हैं। बस उन्हें दर्ज़ करने की राजनीति आज भी है। उन्होंने तमाम लेखकों के उदाहरण से यह सवाल उठाया कि क्या लिखने से पहले वितृष्णा अर्जित करने के लिए सचमुच कुछ कुकृत्य या पाप करने की आवश्यकता है। यह बहुत ज्वलंत प्रश्न था।
आखिरी में अपना वक्तव्य प्रो. प्रणय कृष्ण रखने के लिए आए। उन्होंने कहा कि 20 वीं सदी तक पद्य अधिक था परंतु भारतेन्दु युग की शुरुआत के साथ पद्य की अपेक्षाकृत गद्य अधिक लिखा जाना शुरू हुआ । आज पुनः 21 वीं सदी में गद्य के अपेक्षाकृत कविताएँ अधिक लिखी जा रही हैं यह शोध का विषय है। उन्होंने कहा कि भक्तिकाल में प्रेमाख्यानों में स्त्री की उपस्थिति अपेक्षाकृत बेहतर थी। कबीर स्त्री बनकर लिखते थे। प्रो प्रणय कृष्ण के वक्तव्य के दौरान उनके गले में कुछ फँस जाता है करीब 2-3 मिनट के ब्रेक के बाद भी वे बात शुरू नहीं कर पाते और अस्वस्थता में वक्तव्य छोड़ देते हैं। यह सत्र यहीं समाप्त हो जाता है।
चौथा सत्र: स्त्री कथा और कथा में स्त्री
यह सत्र काफी गरमा-गरम रहा। वक्ताओं में प्रो. प्रीती चौधरी, कविता, डॉ. श्रुति कुमुद और अध्यक्षता कर रहे वीरेंद्र यादव मौजूद थे। सत्र का संचालन डॉ. गाजुला राजू ने किया। श्रुति कुमुद ने कहा कि साहित्य का उद्देश्य रूढ़ियों को तोड़ना होना चाहिए। उन्होंने तमाम कहानियों के माध्यम से स्त्री द्वेष, उदारीकरण में रोजगार और जातीय वर्गीय विभाजन पर बात रखी। प्रीती चौधरी ने स्त्री आत्मकथाओं के माध्यम से हाशिए के लोगों की आत्मकथाओं को अनुभूति के प्रमाणिकता से जोड़ते हुए सवर्ण लेखक की आत्मकथा और दलित लेखक की आत्म कथा में अंतर स्थापित किया।
अगली वक्ता कविता जी थीं। उन्होंने कहा कि स्त्री का जीवन कामना और चाहना के भीतर भटकता रहता है। उन्होंने तमाम उदाहरणों के माध्यम से स्त्री साहित्य के साथ हुए असमानताओं को सशक्त ढंग से दर्ज किया। उन्होंने आगे कहा कि नई कहानी तक स्त्री जीवन तटस्थता के साथ दर्ज़ होता था। बाद स्त्री लेखिकाओं के आगमन के साथ स्त्री खुलकर अपनी आवाज पाने लगी।
सत्र के अंतिम वक्ता वीरेंद्र यादव थे। उन्होंने कथा साहित्य में अंबेडकर के आंदोलनों के प्रभाव को रेखांकित करते हुए कहा कि बड़े घर की बेटी में प्रेमचंद मनुवादी पितृसत्ता के पक्ष में खड़े हैं किन्तु बाद में परिवर्तन दिखाई देता है। बाबा साहेब के मनु स्मृति दहन ( 25 दिसंबर 1927 ) किया और 1932 बेटों वाली विधवा लिखा जिसमें पंक्ति आती है — “ आग लगे इस कानून में। ” आगे वे अज्ञेय जैनेन्द्र से होते हुए कथा साहित्य में स्त्री मुक्ति का विकास क्रम समझा रहे थे। उन्होंने यह इशारा किया कि बहुत सुनियोजित ढंग से स्त्री की मादा छवि गढ़ने का प्रपंच किया जा रहा था।
पाँचवा सत्र : कथेतर लेखन में स्त्री की जगह
इस सत्र का संचालन डॉ. जनार्दन ने किया और वक्ता के रूप में डॉ. अवधेश मिश्र और डॉ. अमितेश कुमार थे। डॉ अमितेश कुमार ने रंगमंच में स्त्रियों की उपस्थिति का विवरण दिया और यह बताया कि नाटककार किस तरह स्त्री को देख रहे थे। उन्होंने कहा कि 90 में विमर्शों के आगमन के बाद स्त्रीवादी रंगमंच की परिकल्पना बनती है। उन्होंने कहा उपभोक्तावादी दौर में पात्रों की बॉडी शेमिंग बढ़ी है। जिसमें उनका पतला-मोटा, गोरा-काला होना मायने रख रहा।
डॉ अवधेश मिश्र ने ‘लोक साहित्य में स्त्री ’ विषय पर वक्तव्य दिया। जिसकी शुरुआत उन्होंने बहुत रोचक ढंग से कहानी सुनाकर किया। उन्होंने कहा कि एक ही लोक कथा तमाम जगहों पर अलग-अलग रूप में मिलती है। दाम्पत्य जीवन को पुरानी लोकजीवन की स्त्रियाँ अपनी तरह से प्रश्नांकित कर रही हैं। जैसे घोस्ट लवर, जोगी, देवता आदि कहकर।
समापन सत्र : एक सुखद संतोषजनक वैचारिक समापन
सबसे पहले डॉ. दीनानाथ ने प्रतिवेदन पढ़ा। इस सत्र का संचालन डॉ. सूर्य नारायण कर रहे थे । मंच पर विभागाध्यक्षा प्रो लालसा यादव के अतिरिक्त वक्ताओं में प्रो. चारु गुप्ता और प्रो. सुधा सिंह थीं। प्रो चारु गुप्ता ने ‘ यशोदा देवी और संतराम बीए : लोकप्रिय हिंदी विमर्श में स्त्री ’ विषय पर बात रखा।
यशोदा देवी स्त्री स्वास्थ्य और पुरुष - स्त्री संबंधों पर खूब लिखा रही थीं। संतराम बीए दलित जाति के लेखक थे जिन्होंने अंतर्जातीय विवाह के महत्व पर खूब लिखा। उनके लेखन में मैरिटल रेप , यौन स्वास्थ्य, चिकित्सा आदि मुद्दे भी शामिल रहते जेल 1923 में उन्होंने 'जाति पाणि तोड़ो मंडल' की स्थापना की जिसमें अंबेडकर को भी आमंत्रित किया था। कुल 100 से अधिक किताबें लिखीं।
प्रो चारु गुप्ता ने बताया कि 1927 में संतराम बी.ए. के विरुद्ध व अंतर्जातीय विवाह के विरुद्ध निराला ने एक लेख लिखा था। आखिरी वक्ता प्रो. सुधा सिंह थीं, जिन्होंने नवजागरण और स्त्री पर बात रखा। उन्होंने ज्योतिर्मयी देवी के माध्यम से बंगाल के नवजागरण और उसका हिंदी नवजागरण पर प्रभाव के विषय में बताया।
आखिरी में आभार ज्ञापन कार्यक्रम सचिव प्रो. आशुतोष पार्थेश्वर ने किया। तिलक भवन का हॉल छात्रों से खचाखच भरा हुआ था। समापन एक्स्ट्रा आर्गनाइजेशन, इलाहाबाद द्वारा सफ़दर हाशमी के लघु नाटक ‘ औरत ’ के नाट्य मंचन के साथ हुआ।