नई दिल्ली: बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को मौत की सजा सुनाई गई है। वे अगस्त 2024 से भारत में रह रही हैं। ढाका में सोमवार को एक विशेष न्यायाधिकरण इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल (ICT) द्वारा दिया गया यह फैसला पिछले साल हुए छात्र-नेतृत्व वाले विद्रोह के हिंसक दमन से जुड़े मानवता के विरुद्ध अपराधों के आरोपों पर दिया गया है। इस फैसले से ढाका और नई दिल्ली के बीच राजनयिक गतिरोध और बढ़ने की संभावना भी जताई जा रही है।
बांग्लादेश में तीन सदस्यीय न्यायिक पैनल ने शेख हसीना और बांग्लादेश के पूर्व गृह मंत्री असदुज्जमां खान को महीनों से चल रहे विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ घातक प्रतिक्रिया देने योजना बनाने का दोषी ठहराया। हालाँकि, हसीना ने भारत में रहते हुए फैसले को लेकर खंडन जारी किया और मुकदमे की वैधता को खारिज किया। उन्होंने इस फैसले को देने वाले ट्रिब्यूनल को गलत बताते हुए तर्क दिया कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप निराधार हैं।
शेख हसीना ने कहा कि उन्होंने और खान ने ‘अच्छे विचार के साथ काम किया और जानमाल के नुकसान को कम करने की कोशिश की।’ उन्होंने जोर देकर कहा कि ‘हमने स्थिति पर नियंत्रण खो दिया, लेकिन जो कुछ हुआ उसे नागरिकों पर पूर्व-नियोजित हमला बताना तथ्यों को गलत ढंग से समझना है।’ शेख हसीना ने ट्रिब्यूनल फैसले को ‘पक्षपाती और राजनीति से भी प्रेरित’ बताया।
बांग्लादेश का फैसला भारत के लिए भी दुविधा का विषय!
बांग्लादेश की कोर्ट से शेख हसीना के लिए फैसला जाहिर तौर पर भारत के लिए कुछ लिहाज से दुविधा वाला विषय है। दरअसल, फैसला आने के कुछ ही घंटे के भीतर बांग्लादेश ने भारत से शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग रख दी। ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि भारत अब क्या करेगा। क्या वह मौजूदा संधियों और भारतीय कानूनों के तहत बांग्लादेश की मौजूदा सरकार के इस अनुरोध को कानूनी रूप से अस्वीकार कर सकता है।
भारत ने सोमवार को कहा कि यह मामला ‘पूरी तरह से कानूनी और न्यायिक’ है, जिसके लिए दोनों सरकारों के बीच औपचारिक बातचीत की आवश्यकता है।
भारत की ओर से कहा गया, ‘यह एक न्यायिक और कानूनी प्रक्रिया है। इसके लिए दोनों सरकारों के बीच बातचीत और परामर्श की आवश्यकता है। हम इस मुद्दे की जाँच कर रहे हैं और बांग्लादेश के अधिकारियों के साथ मिलकर काम करने के लिए उत्सुक हैं।’
भारतीय प्रत्यर्पण अधिनियम क्या कहता है?
भारत के प्रत्यर्पण अधिनियम, 1962 के तहत केंद्र के पास परिस्थितियों के आधार पर प्रत्यर्पण से इनकार करने, कार्यवाही पर रोक लगाने या वांछित व्यक्ति को बरी करने की स्पष्ट शक्तियाँ हैं। इस अधिनियम की धारा 29 स्पष्ट करती है कि भारत प्रत्यर्पण अनुरोध को कब अस्वीकार कर सकता है।
इसके अनुसार भारत सरकार प्रत्यर्पण से इनकार कर सकती है, अगर-
- यह अनुरोध कम महत्व वाला प्रतीत होता है या सद्भावना/अच्छे विचार के साथ नहीं किया गया है।
- अगर यह अनुरोध राजनीति से प्रेरित है।
- अगर यह प्रत्यर्पण न्याय के हित में नहीं है।
यह कानून केंद्र को किसी भी समय कार्यवाही रोकने, वारंट रद्द करने या वांछित व्यक्ति को बरी करने का अधिकार भी देता है।
भारत-बांग्लादेश प्रत्यर्पण संधि क्या कहती है?
दोनों देशों के बीच 2013 की प्रत्यर्पण संधि के आर्टिकल-6 में कहा गया है कि यदि अपराध राजनीतिक है तो प्रत्यर्पण अस्वीकार किया जा सकता है। साथ ही, संधि स्पष्ट करती है कि हत्या, आतंकवाद, विस्फोट, अपहरण, गंभीर हमलों आदि के अंतर्गत आने वाले अपराधों को राजनीतिक अपराध नहीं माना जा सकता।
इसी में आर्टिकल-7 में कहा गया है कि यदि भारत कथित अपराध के लिए व्यक्ति पर खुग मुकदमा चलाना चाहता है, तो वह प्रत्यर्पण से इनकार कर सकता है। यदि घरेलू स्तर पर मुकदमा नहीं चलाया जाता है, तो प्रत्यर्पण अनुरोध पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
साथ ही आर्टिकल 8 में इसका भी उल्लेख है कि प्रत्यर्पण से इनकार किया जाना चा सकता है, यदि-
- अपराध मामूली हो
- बहुत अधिक समय बीत चुका हो
- आरोप में गूड फेथ का अभाव हो
- अपराध पूरी तरह से सैन्य प्रकृति का हो
- व्यक्ति को पहले ही दोषी ठहराया गया हो लेकिन उसे सजा नहीं सुनाई गई हो
यहां गौर करने वाली बात है कि शेख हसीना को एक राजनीतिक विद्रोह के बाद सत्ता से हटा दिया गया था और उनकी जगह मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार बनी थी। इसका मतलब है कि भारत यह तर्क दे सकता है कि आरोप, मुकदमा और फैसला बांग्लादेश की राजनीतिक स्थिति से प्रेरित हो सकती हैं।
इसके अलावा, आर्टिकल 8(3) भी साफ तौर पर आर्टिकल 6(1) को यह कहकर मजबूत करता है कि यदि अनुरोध सद्भावना से या न्याय के हित में नहीं किया गया है, तो प्रत्यर्पण अस्वीकार किया जा सकता है। चूँकि यूनुस प्रशासन हसीना की राजनीतिक विरोधी है, इसलिए भारत के पास इस धारा का हवाला देकर यह दावा करने का विकल्प है कि आरोप राजनीति से प्रेरित प्रतीत हो सकते हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय या कूटनीतिक स्तर पर बांग्लादेश को अपनी मांग मनवाने के लिए यह साबित करना होगा कि आरोप बदले की भावना से नहीं लगाए गए थे।
क्या UN या कोई अंतर्राष्ट्रीय संस्था हस्तक्षेप कर सकती है?
चूँकि यह दो पक्षों के बीच हस्ताक्षरित एक द्विपक्षीय संधि है, इसलिए कोई भी इसमें हस्तक्षेप या संशोधन नहीं कर सकता। संयुक्त राष्ट्र द्विपक्षीय प्रत्यर्पण समझौते के कार्यान्वयन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, जबकि अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) केवल दोनों सरकारों की सहमति से ही मामलों की सुनवाई कर सकता है। हालाँकि, इस संधि के अनुच्छेद 21(3) में एक खंड शामिल है जो किसी भी देश को छह महीने की नोटिस के साथ संधि को समाप्त करने की अनुमति देता है।

