petrol dollar
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वाशिंगटन/रियादः अमेरिका-सऊदी अरब पेट्रोडॉलर समझौता पांच दशक बाद खत्म हो गई है। कई मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया है कि सऊदी अरब ने अमेरिका के साथ 50 साल से जारी पेट्रोडॉलर प्रणाली समझौते को रद्द करने का फैसला किया है। 8 जून, 1974 को हस्ताक्षरित इस समझौते के तहत कच्चे तेल के निर्यात के लिए अमेरिकी डॉलर का आदान-प्रदान किया जा सकता था। 8 जून 2024 को इसकी मियाद खत्म हो गई और 9 जून को सऊदी अरब और अमेरिका ने इसेइसे फिर से रिन्यू नहीं किया। लेकिन सवाल यही है कि 50 सालों से जारी इस समझौते को अमेरिका ने क्यों खत्म होने दिया?
पेट्रोडॉलर समझौता एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी जिसने वैश्विक वित्तीय और राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। इस समझौते ने अमेरिकी डॉलर की स्थिरता को बनाए रखा और सऊदी अरब को एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्ति बना दिया। यह समझौता आज भी अंतर्राष्ट्रीय वित्त और व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
पेट्रोडॉलर क्या है?
पेट्रोडॉलर कोई मुद्रा नहीं है। बल्कि वे कच्चे तेल के निर्यात के लिए बदले जाने वाले अमेरिकी डॉलर हैं। इन्वेस्टोपीडिया के अनुसार, पेट्रोडॉलर प्रणाली अमेरिका द्वारा सोने के मानक से हटने के बाद अस्तित्व में आई। तब तक, अमेरिका ने ब्रेटन वुड्स समझौते के तहत अपनी मुद्रा को सोने की कीमत $35 प्रति औंस से जोड़ा हुआ था। दुनिया सोने के हिसाब से चलती थी, यानी एक डॉलर की कीमत सोने के एक निश्चित टुकड़े के बराबर होती थी। लेकिन 1971 में अमेरिका ने इस सिस्टम को खत्म कर दिया। इसके बाद 1972 में एक नया सिस्टम बनाया गया। इस नए सिस्टम में तेल बेचने वाले देशों को सिर्फ अमेरिकी डॉलर में ही पेमेंट लिया जाता था। इसे ही पेट्रोडॉलर सिस्टम कहते हैं।
इस समझौते के बाद तेल बेचने वाले देशों को ज्यादा से ज्यादा डॉलर मिलने लगे। दो कारण थे - पहला, तेल की कीमतें बढ़ रही थीं। दूसरा, उनके पास कोई विकल्प नहीं था, तेल सिर्फ डॉलर में ही बिकता था। इसका अमेरिका को जबरदस्त फायदा हुआ। क्योंकि, डॉलर मजबूत बना रहा - यानी अमेरिका को कम दाम में चीजें बाहर से मंगवाने को मिलीं। साथ ही अमेरिकी सरकारी बॉन्ड (ऋणपत्र) में पैसा आने से ब्याज दरें कम रहीं, जिससे लोगों को कम ब्याज में लोन मिल सका।
अमेरिका और सऊदी अरब के बीच पेट्रोडॉलर समझौता क्या था?
सऊदी अरब और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच यह सौदा 1974 में हुआ था। ब्लूमबर्ग के अनुसार, उस वक्त अमेरिका में तेल संकट चल रहा था। और योम किप्पुर युद्ध के दौरान अरब देशों ने इजरायल की मदद करने पर अमेरिका को सजा के तौर पर तेल सप्लाई कम कर दी थी, जिससे तेल के दाम आसमान छू रहे थे। इस समझौते से दो चीजें तय हुईं। अमेरिका सऊदी अरब से तेल खरीदेगा और उन्हें हथियार और सैनिक मदद देगा। वहीं, सऊदी अरब तेल से कमाए हुए डॉलर अमेरिका में वापस भेजेगा, जिससे अमेरिका अपने खर्च पूरे कर सके। इससे दोनों देशों को फायदा हुआ।
पेट्रोडॉलर समझौते को सऊदी अरब ने क्यों रद्द किया?
अमेरिका अकेला देश नहीं था जो सऊदी अरब को अपने पाले में करना चाहता था। विशेषज्ञ बताते हैं उस वक्त फ्रांस, ब्रिटेन, जापान सभी देश सऊदी अरब से फायदा उठाना चाहते थे। लेकिन अब चीजें बदल रही हैं। इंडिया टुडे के मुताबिक, सऊदी अरब अब तेल बेचने के लिए सिर्फ डॉलर नहीं लेगा बल्कि युआन, यूरो, रूबल और येन जैसी दूसरी करेंसी भी लेगा। यहां तक कि वो बिटकॉइन जैसी डिजिटल करेंसी में भी कारोबार करने पर विचार कर रहा है। इसका मतलब है कि भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय कारोबार के लिए डॉलर के अलावा दूसरी करेंसी भी इस्तेमाल होने लगेंगी। इससे पूरी दुनिया के आर्थिक ढांचे में बड़ा बदलाव आ सकता है।
पेट्रोडॉलर समझौते के खत्म होने से अमेरिका पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
MSN के मुताबिक, विशेषज्ञों का कहना है कि पेट्रोडॉलर खत्म होने से अमेरिकी डॉलर कमजोर हो सकता है। नतीजा ये होगा कि अमेरिका के शेयर बाजार और बाकी आर्थिक व्यवस्था को भी नुकसान हो सकता है। अभी तक तेल सिर्फ डॉलर में बिकता था। अब अगर तेल किसी दूसरी करेंसी में बिकने लगे, तो डॉलर की डिमांड कम हो सकती है। इससे अमेरिका में महंगाई बढ़ सकती है, ब्याज दरें बढ़ सकती हैं और शेयर बाजार कमजोर हो सकता है।
अमेरिका के समझौते को रिन्यू नहीं करने के पीछे कारण क्या हो सकते हैं?
ये घटना दुनिया में ताकत का बदलता हुआ खेल भी दिखाती है। हो सकता है कि अब अमेरिकी डॉलर दुनिया की सबसे मजबूत करेंसी न रहे। लेकिन वेलिंगटन-अल्टस फाइनेंशियल इंक के जेम्स ई थोर्न ने एक्स पर लिखा कि अमेरिका ने ये कदम सोच-समझकर उठाया है। उनकी राय में अमेरिका डॉलर को धीरे-धीरे कमजोर करना चाहता है ताकि वो अपने राष्ट्रीय कर्ज को कम ब्याज दर पर चुका सके। थोर्न ने लिखा, पेट्रोडॉलर व्यवस्था खत्म होने से दुनिया के देशों के बीच आर्थिक और राजनीतिक रिश्ते बदल सकते हैं। अमेरिका का प्रभाव कम हो सकता है और चीन और ब्रिक्स देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) का प्रभाव बढ़ सकता है।