कहानियाँ पढ़ते समय मेरे ज़ेहन में कुछ बातें होती हैं, जो यह तय करती हैं कि मेरे लिए कहानी कितनी महत्वपूर्ण है। सोचता हूँ, क्या पढ़ी जा रही कहानी, मेरे भीतर की बर्फ को पिघला पा रही है, क्या वह मेरे मन की गाँठों को खोल पा रही है, क्या मुझे वह दुनिया दिखा पा रही है, जो मेरे अवचेतन-चेतन या स्वप्नों के माध्यम से मेरे भीतर बन गई है – बन रही है, कहानी पढ़ने के बाद मुझे नींद तो नहीं आ रही, कहानी कितनी तार्किक और संगत है और कितना ‘कनेक्ट’ कर रही है और कहानी की यात्रा मुकम्मल रूट पर चली है या नहीं या लेखक ज़रूरत (यह ज़रूरत बाज़ार की भी हो सकती है और अन्य ‘प्रेशर ग्रुप्स’ की भी) के हिसाब से कहानी को कहीं भी मोड़ दे रहा है। तार्किकता और संगतता, स्वप्न और फंतासी के बावज़ूद ‘कहानी’ कहानी बनी रहनी चाहिए। इसके बाद ही कहानी की भाषा, परिवेश और प्रवाह देखा जा सकता है। यदि कहानी शुरुआती स्तरों पर मुझे छू रही हो तो भाषा, परिवेश और प्रवाह प्राकृतिक रूप से ही प्रभावशाली होंगे। कहानी में एक और बात अहम है कि पढ़ते समय और पढ़ने के बाद इसका क्या प्रभाव पड़ा?
पिछले दिनों युवा कहानीकार दिनेश श्रीनेत का संग्रह ‘विज्ञापन वाली लड़की’ पढ़ने का मौका मिला। दिनेश को युवा कहानीकार कहा इसलिए भी कहा जा सकता है कि यह उनका पहला संग्रह है। अन्यथा वह लंबे समय से पत्रकारिता और साहित्य-सिनेमा के अध्येता हैं। उनकी पुस्तक ‘पश्चिम और सिनेमा’ कई विश्वविद्यालों में सहायक अध्ययन सामग्री के रूप में अनुमोदित है। कथेत्तर गद्य की उनकी किताब ‘शेल्फ़ में फरिश्ते’ प्रकाशित और चर्चित हो चुकी है। इस किताब से पता चलता है कि वह वर्षों से साहित्य पढ़ रहे हैं और देसी-विदेशी सिनेमा में उनकी गहरी रुचि है। अब बात दिनेश की कहानियों की। संग्रह की पहली कहानी है ‘उड़न खटोला’। दरअसल उड़न खटोला, उत्तर भारत व पाकिस्तान की लोककथाओं में देखने और पढ़ने को मिलता है। आप इसे एक काल्पनिक उड़ने वाला वाहन भी मान सकते हैं। तो उड़न खटोला ‘टेक ऑफ’ करता है। कहानी शुरू होती है। नायक अपने बचपन को याद कर रहा है। उसके पास बचपन की बहुत-सी स्मृतियाँ हैं, स्वप्न हैं, अवचेतन में ठहरी छवियाँ हैं, नींद है, माँ है, पिता हैं, रूस के चिकने पन्नों वाली पत्रिका है, जिसपर खरगोश और भेड़िया की तस्वीरें हैं, स्वप्न जैसे बचपन के दिन हैं। एक परिंदा है जो घोंसले से नीचे गिरकर मर गया है। उसे ना बचा पाने का कहीं अपराध-बोध भी है। संगीत की कुछ धुनें हैं। पिता हैं, पिता की मृत्यु है। माँ है जो निरंतर बूढ़ी हो रही है-मृत्यु की ओर बढ़ रही है। बचपन की स्मृतियों का कोलाज-सा है, जो उसे ना सोने देता है, ना स्वप्न में जाने देता है। छत पर एक लड़की से रूमानी-सी मुलाकात है। जो स्वप्न भी हो सकती है और फंतासी भी। इसी अवसाद के बीच वह अपना घर छोड़कर महानगर में नौकरी की तलाश में आ जाता है। दवाओं और सर्जिकल सामानों के डिस्ट्रीब्यूटर्स के यहाँ उसे नौकरी मिल जाती है। स्वप्न यहाँ भी उसका पीछा नहीं छोड़ते। ऐसा कतई नहीं है कि स्वप्न और अवचेतन के बीच हिचकोले खाती कहानी आगे नहीं बढ़ती। बाकायदा बढ़ती है। नायक को निरंतर लगता है कि धुँधलापन जीवन के बड़े अर्थ की तरफ़ संकेत करता है। नायक इस बात को लेकर भी दुविधा में रहता है कि वास्तविकता और स्वप्न क्या है, क्या है जिसका वह स्वप्न देख रहा है और वह क्या है जो वास्तविकता है। पूरी कहानी स्वप्न, चेतन और अवचेतन के बीच रास्ता तलाशती रहती है। उसे बीमार माँ भी दिखाई देती है और उसके ठीक हो जाने का स्वप्न भी उसके भीतर तैरता रहता है। कहानी ऐसे युवक की है जो स्वप्न और वास्तविकता के बीच का फर्क भूल गया है। दरअसल पूरी कहानी में नायक अपनी पहचान और अस्तित्व की खोज कर रहा है।
इसी मिज़ाज की एक अन्य कहानी है-‘उजाले के द्वीप’। यह कहानी भी इकहरी और प्लेन नहीं है। कहानी में एक लकवाग्रस्त पिता है, उसकी देखभाल करती बेटी है, जो एक अस्पताल में नर्स है। और सैमुअल टेल कॉलरिज की बहुचर्चित कविता है- द राइम ऑफ द एन्शिएंट मेरिनर। पिता ऑक्सफोर्ड या कैंब्रिज जाना चाहते थे। लेकिन जल्दी नौकरी लग जाने से उनका जीवन अलग रास्ते पर चल निकला। लेकिन वह रोमांटिक दौर के बहुत से कवियों की कविताएँ याद करते थे और सुनाया करते थे। कॉलरिज की कविता उन्हें बहुत पसन्द थी। वह उसका अर्थ बताते थे। इस कविता को पढ़कर बेटी को सुनाया करते थे। कविता में एक बूढ़े नाविक से अनजाने ही अल्बाट्रॉस नामक एक पक्षी की मौत हो जाती है। इसके बाद बूढ़ा नाविक उसकी मृत्यु का अपराध-बोध जीवन भर झेलता रहता है। पिता अक्सर इस कविता को पढ़कर बेटी को सुनाते हैं। ऐसा लगता है कि पूरा परिवार ही बूढ़े नाविक के अपराध-बोध को झेल रहा है। माँ की मृत्यु हो जाती, पेंटिंग बनाने वाला छोटा बेटा भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। बेटी अस्पताल में नाइट शिफ्ट में नौकरी करती है और पिता घर पर लकवे की हालत में अकेलेपन को झेलता है। बेटी को अनेक बार नौ फीट लंबे पंखों का फैलाव लिए हवा में तैरता, नीचे गिरता अल्बाट्रॉस दिखाई पड़ता है। बेटी के पास इस अकेलेपन से भागने का कोई रास्ता नहीं है, उसके पास सिर्फ एक ही रास्ता है कि मृत्यु का चुनाव कर ले। लेकिन दिनेश उसे मझधार में छोड़ देते हैं। यह पाठक को तय करना है कि वह मृत्यु को चुन पाई या नहीं। पिता बूढ़े नाविक और ईसाई धर्म के मुताबिक अपने पाप (जो उसने कभी किया ही नहीं) की मुक्ति का कोई प्रयास नहीं करते। पिता और बेटी दोनों ही इसे बर्दाश्त करते रहते हैं और मानते हैं कि यीशु मसीह उनका उद्धार करेगा। यह एक ऐसी कहानी है जिसमें दिनेश ने कॉलरिज की कविता को भी कहानी का इंटेंस किरदार बना दिया है और यही बात इस कहानी को सशक्त बनाता है।

दिनेश की कहानियाँ बाहर से भीतर नहीं जाती बल्कि भीतर से बाहर जाती है। यही वजह है कि उनकी कहानियों में स्वप्न, फंतासी, माजी और अवचेतन सक्रिय रहते हैं। वह आमतौर पर घटनाओं में कहानियाँ नहीं तलाश करते बल्कि अपने मन की कन्दराओं में ठहरी हुई कहानियों को आकार देते हैं। प्रेम भी उनकी कहानियों में बहुत ठोस न होकर धुंध की तरह दिखाई देता है- किसी स्वप्न की तरह। ‘नीलोफ़र’ भी ऐसी ही कहानी है। नायक उनके भीतर से सेल्फ़ के रूप में बाहर आता है। मूल नायक ‘अपने सेल्फ़’ से मिलता-जुलता है। ‘इनर सेल्फ़’ किताबें पढ़ता है, चाय पीता है और आवारगी करता है। इसी तरह जीवन बीत रहा है। एक दिन इनर सेल्फ़ नायक को ‘द व्हिस्परिंग सोल्स’ नामक एक किताब पढ़ने के लिए देता है। साढ़े चार सौ पन्नों की यह किताब रेलवे वर्कशॉप में काम करनेवाले मज़दूरों की कहानियों और उनकी आँखों से देखे गए अनकहे हादसों की दास्तान है। इस किताब के मिलने से ही पाठक को यह आशंका होने लगती है कि कोई हादसा होने वाला है। स्मृतियों में ही एक लड़की उभरती है। स्वाभाविक है कि इससे दोनों प्रेम करते हैं-वायवीय प्रेम। पता नहीं सपने में या वास्तव में एक रोज़ नायक को नीलोफ़र के साथ रेल में जाने का अवसर मिलता है। वह अपने इनर सेल्फ़ की चिट्ठी और अपनी तरफ़ से एक अंगूठी नीलोफ़र को देता है। नीलोफ़र ख़ुश होती है पता नहीं चिट्ठी से या अंगूठी से। पता चलता है कि ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई है। इसके बाद नायक और इनर सेल्फ़ लोकोशेड में मिलते हैं-चिट्ठी और अंगूठी की तलाश में। यह कहानी भी अवचेतन और माजी के बीच चलती है। दिनेश सही अर्थों में कहानी के परम्परागत शिल्प को तोड़ते दिखाई देते हैं। यही बात उन्हें भीड़ से अलग करती हैं।
यह साफ़ दिखाई देता है कि दिनेश के अवचेतन में दृश्य बहुत मज़बूती से बैठे हुए हैं-बारिश के, गुजरती ट्रेन के, बचपन में देखे विज्ञापनों के। ये दृश्य किसी फिल्मी फ्रेम की तरह उनके भीतर बैठे रहते हैं। इनकी किशोरावस्था की स्मृतियाँ भी उनके भीतर बजबजाती रहती हैं। शीर्षक कहानी ‘विज्ञापन वाली लड़की’ में ये सारे दृश्य मानो यकबक बाहर आ जाते हैं। नायक अपनी माँ से एक हजार किलोमीटर दूर महानगर में आ चुका है। लेकिन ये दृश्य अपने समय के बदलावों के साथ उसे बार-बार दिखाई देते हैं। उसका ऑफिस शहर के बाहरी हिस्से में बसे इण्ड्रस्ट्रियल एरिया में बना है। यहीं एक दिन उसे एक विशालकाय होर्डिंग दिखाई देता है। होर्डिंग में एक मुस्कराती हुई लड़की है। नायक को लगता है कि वह लड़की नायक को देख रही है-सिर्फ नायक को। नायक 1958 से 1974 तक की पत्रिकाओं को याद करता है। साथ ही उन विज्ञापनों को भी याद करता है जो उसने किशोरावस्था में देखे थे। वह पाता है कि विज्ञापनों में आ रहे बदलावों के साथ हमारे सपने भी बदल रहे हैं। इसी बदलाव के चलते एक दिन वह पाता है कि वह विज्ञापन वाली लड़की उसके घर आ गई है। वह लड़की बताती है कि वह एक महत्वाकांक्षी डिजाइनर की कल्पना है। विज्ञापनों से नायक के अवचेतन में बैठा स्वप्न साकार हो जाता है। लेकिन इस महानगर में नायक की अपनी कोई पहचान नहीं बन पाती। विज्ञापन वाली लड़की होर्डिंग से गायब हो जाती है और नायक का अंत उसी होर्डिंग के नीच मृत्यु के रूप में होता है। यानी इस महानगर में उसे कोई पहचान नहीं मिलती। यह कहानी छोटे शहर से आए उन युवकों की कहानी है जो विज्ञापनों द्वारा दिखाए गए सपनों में खो जाते हैं!
संग्रह की अन्तिम, पाँचवीं और सबसे महत्वपूर्ण कहानी ‘मत्र्योश्का’ भी सपने से या मन की अँधेरी सुरंग से शुरू होती है। नायक की मुलाक़ात सुरंग में एक लड़की से होती है। दोनों के बीच आत्मीयता बढ़ने लगती है। नायिका एक दिन नायक के घर भी पहुँच जाती है। वहाँ किताबों के बीच से वह रूसी कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा की कविताओं की एक किताब उठा लेती है। नायक उसके साथ होते हुए पाता है कि नायिका अपनी पहचान बदलना चाहती है, क्यों यह पाठक को अंत में पता चलता है। नायक उसके जन्मदिन पर उसे मत्र्योश्का गुड़िया भेंट करना चाहता है। इस गुड़िया की ख़ास बात यह होती है कि इसके भीतर से गुड़ियाएं निकलती हैं। एक दिन अचानक वह उसी तरह गायब हो जाती है, जैसे मिली थी-सपने की तरह। लेकिन कहानी धीरे-धीरे खुलती है। पता चलता है कि नायिका के साथ बालपन में रेप हुआ था। इसी वजह से वह अपनी पुरानी पहचान भूलकर नई पहचान तलाश रही थी। यह कहानी बेहद इँटेंस कहानी है, जिसमें परिवेश, कविताएं, प्रेम की खोज दिनेश करते हैं। लेकिन दरअसल कहानी रेप विक्टिम के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए, यह बताती है। नायिका शिजोफ्रेनिया की मरीज़ भी है। वह कविताएँ लिखती है, डायरी लिखती है। लेकिन अपने अतीत से मुक्त होना चाहती है। सपनों की ट्रेन कभी नहीं ठहरती और गुज़र जाती है। यह ऐसी कहानी है जिसमें कुछ भी अप्रासंगिक, अतार्किक और डिसक्नेक्टेड नहीं है।
दिनेश श्रीनेत के इस संग्रह को पढ़ना सपनों, स्मृतियों और अवचेतन की उस भाषा को पढ़ना है, जो कभी झूठ नहीं बोलती। काफ़्का कहते थे सपने कभी झूठ नहीं बोलते। संभवतः इसीलिए काफ़्का ने अपने लेखन के लिए अपना स्वप्नतंत्र विकसित किया। बावज़ूद इसके उनकी कहानियाँ बेहद सहज भी हैं, क्योंकि उनका मानना था कि स्वाभाविकता भयानक है। दिनेश की कहानियों में बेशक वह भयानकता नहीं है, लेकिन अस्तित्व और पहचान का संकट है, जो छूट गया है या छूट रहा है, उसके प्रति भय है, बचपन है, किशोरावस्था है, माँ है, पिता है, उसके स्वप्न हैं। कई कहानियों का नायक सो नहीं पाता। दिनेश अपनी नींद और स्वप्न के प्रति बहुत ज्यादा सचेत हैं। तो कई बार यह भी लगता है कि वह जो और जैसा स्वप्न देखना चाहते हैं (कहानी की ज़रूरत के हिसाब) वह देख लेते हैं। वास्तव में ऐसा संभव नहीं है। दिनेश को अपनी कहानियों में लेखक की निरंतर उपस्थिति से भी बचना चाहिए। ऐसा लगता है कि वह कहानी ‘डायरेक्ट’ कर रहे हैं। कहानी को ग्रो स्वयं होने देना चाहिए। इस अकेली बात को छोड़ दें तो यह कहानी संग्रह अपने समय को, माजी को, सपनों और अवचेतन की दुनिया को बेहतरीन ढंग से चित्रित करता है। दिनेश के पास कोई जादुई भाषा नहीं है, लेकिन उनके पास ‘कहानी’ है, परिवेश है और वह कहानी को ‘ट्रीट’ करना जानते हैं। युवा दिनेश श्रीनेत से भाषा को बरतना सीख सकते हैं। और चाहें तो यह भी सीख सकते हैं कि कहानी कहाँ से और कैसे पकड़ी जाए! अंत में अपनी बात साफ़ कर दूँ कि मेरे ज़ेहन में महत्वपूर्ण कहानियों की जो तस्वीर बनती है, उसपर यह संग्रह खरा उतरता है।
किताबः विज्ञापन वाली लड़की
लेखकः दिनेश श्रीनेत
प्रकाशकः भावना प्रकाशन
मूल्यः 200 रुपए
पृष्ठः 119

