Friday, November 14, 2025
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खेती बाड़ी-कलम स्याही: रेणु की चुनावी लीला!

31 जनवरी 1972 को फणीश्वर नाथ रेणु ने पटना में प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि वे निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा था कि पार्टी बुरी नहीं होती है लेकिन पार्टी के भीतर पार्टी बुरी चीज है। उनका मानना था कि बुद्धिजीवी आदमी को पार्टीबाजी में नहीं पड़ना चाहिए।

बिहार में आज विधानसभा चुनाव के परिणाम का दिन है! आज विजेताओं का दिन है! फूल- माला और लड्डू की बिक्री का दिन है! पूरे बिहार में बहार है! जो जीत गये वे खुश हैं और जिन्हें जीत नही मिली, वे आगे की रणनीति में जुटे हैं। राजनीति तो यही है, आज से नहीं हजारों बरसों से।

खैर, बिहार में मौसम ने भी करवट ले ली है! लोगों ने स्वेटर निकाल लिया है। गुलाबी ठण्ड ने दस्तक दे दी है। मौसम बदलते ही आपके किसान को साहित्यिक-चुनावी बातचीत करने का मन करने लगा। आप सोचिएगा कहां राजनीति और कहां साहित्य। उस पर से आज चुनाव का परिणाम आया है और यह व्यक्ति साहित्यिक-चुनावी बातचीत कर रहा है!

दरअसल हम साहित्य और राजनीति, इन दोनों विधाओं में सामान हस्तक्षेप रखने वाले कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की बात कर रहे हैं।

रेणु ने 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा था। उनका चुनाव चिन्ह नाव था, हालांकि चुनावी वैतरणी में रेणु की चुनावी नाव डूब गयी थी लेकिन चुनाव के जरिए उन्होंने राजनीति को समझने-बूझने वालों को काफी कुछ दिया। मसलन चुनाव प्रचार का तरीका या फिर चुनावी नारे।

रेणु ने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र को चुना था क्योंकि वह उनका ग्रामीण क्षेत्र भी था।

इसे संजोग ही कह सकते हैं कि इस विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधत्व एक बार उनके पुत्र पद्मपराग वेणु कर चुके हैं, भाजपा के सिम्बल से। हालांकि उसके बाद उन्हें भाजपा ने फिर कभी टिकट नहीं दिया। भारतीय जनता पार्टी ने उनका टिकट काटकर मंचन केशरी को टिकट दिया था। 2025 में भी भाजपा ने मंचन केशरी को ही टिकट दिया था।

अब चलिए हम 2025 से 1972 में लौटते हैं। उस वक्त फणीश्वर नाथ रेणु ने किसी पार्टी का टिकट स्वीकार नहीं किया था। हालांकि वे चाहते तो किसी भी दल का टिकट उन्हें मिल सकता था!

31 जनवरी 1972 को रेणु ने पटना में प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि वे निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा था कि पार्टी बुरी नहीं होती है लेकिन पार्टी के भीतर पार्टी बुरी चीज है। उनका मानना था कि बुद्धिजीवी आदमी को पार्टीबाजी में नहीं पड़ना चाहिए।

एक बातचीत में फणीश्वरनाथ रेणु ने कहा था-

चुनाव दंगल में उतरने के पूर्व मेरे सामने कई अन्य सवालों के साथ -साथ बुलेट या बैलेट (?) का भी सवाल था। क्योंकि पिछले बीस वर्षों में चुनाव के तरीके तो बदले हैं, पर उनमें बुराइयां बढ़ती ही गई हैं। यानी पैसा, लाठी और जाति तंत्रों का बोल बाला।

अतः मैंने तय किया था कि मैं खुद पहन कर देखूं कि जूता कहां काटता है। कुछ पैसे अवश्य खर्च हुए, पर बहुत सारे कटु-मधुर और सही अनुभव हुए। वैसे भविष्य में मैं कोई चुनाव लड़ने नहीं जा रहा हूं। लोगों ने भी मुझे किसी सांसद या विधायक से कम स्नेह और सम्मान नहीं दिया है। आज भी पंजाब और आंध्र के सुदूर गांवों से जब मुझे चिट्ठियां मिलती हैं तो बेहद संतोष होता है। एक बात और बता दूं, 1972 का चुनाव मैंने सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ लड़ा था।

गौरतलब है कि फारबिसगंज विधानसभा चुनाव क्षेत्र में निर्दलीय उम्मीदवार रेणु को 6,498 मत मिले थे। कांग्रेस के विजयी उम्मीदवार सरयुग मिश्र को 29,750 और समाजवादी पार्टी के लखनलाल कपूर को 16, 666 वोट मिले थे।

रेणु का चुनावी भाषण अद्भूत था।

उन्होंने खुद लिखा है- “मैंने मतदाताओं से अपील की है कि वे मुझे पाव भर चावल और एक वोट दें। मैं अपने चुनावी भाषण में रामचरित मानस की चौपाइयां,दोहों का उद्धरण दूंगा। कबीर को उद्धरित करुंगां, अमीर खुसरो की भाषा में बोलूंगा, गालिब और मीर को गांव की बोली में प्रस्तुत करुंगा और लोगों को समझाउंगा। यों अभी कई जनसभाओं में मैंने दिनकर, शमशेर, अज्ञेय, पनंत और रघुवीर सहाय तक को उद्धृत किया है-

दूध, दूध ओ वत्स, तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं- दिनकर
यह दीप अकेला स्नेह भरा-अज्ञेय
बात बोलेगी, मैं नहीं- शमशेर
भारत माता ग्रामवासिनी-पन्त
न टूटे सत्ता का तिलिस्म, न टूटे- रघुवीर सहाय

72 के चुनाव के जरिए रेणु अपने उपन्यासों के पात्रों को भी सामने ला रहे थे। उन्होंने कहा था- “मुझे उम्मीद है कि इस चुनाव अभियान के दौरान कहीं न कहीं मरे हुए बावनदास से भी मेरी मुलाकात हो जाएगी, अर्थात वह विचारधारा जो बावनदास पालता था, अभी भी सूखी नहीं है।”

चुनाव में धन-बल के जोर पर रेणु की बातों पर ध्यान देना जरुरी है। उन्होंने कहा था- “लाठी-पैसे और जाति के ताकत के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। मैं इन तीनों के बगैर चुनाव लड़कर देखना चाहता हूं। समाज और तंत्र में आई इन विकृतियों से लड़ना चाहिए।”

रेणु का चुनाव चिन्ह नाव था। अपने चुनाव चिन्ह के लिए उन्होंने नारा भी खुद गढ़ा..उनका नारा था-

“कह दो गांव-गांव में, अब के इस चुनाव में/ वोट देंगे नाव में, नाव मे, नाव में।।

कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर….
कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर….
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर….

राजनीति में किसानों की बात हो, मजदूरों की बात हो, ऐसा रेणु चाहते थे। राजनीति में किसानों की बात हवा-हवाई तरीके से किए जाने पर वे चिन्तित थे। वे कहते थे- ‘ धान का पेड़ होता है या पौधा -ये नहीं जानते , मगर ये समस्याएं उठाएंगे किसानों की ! समस्या उठाएंगे मजदूरों की ! “

गौरतलब है कि राजनीति में रेणु की सक्रियता काफी पहले से थी। साहित्य में आने से पहले वह समजावादी पार्टी और नेपाल कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे।

गिरीन्द्र नाथ झा
गिरीन्द्र नाथ झा
गिरीन्द्र नाथ झा ने पत्रकारिता की पढ़ाई वाईएमसीए, दिल्ली से की. उसके पहले वे दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्नातक कर चुके थे. आप CSDS के फेलोशिप प्रोग्राम के हिस्सा रह चुके हैं. पत्रकारिता के बाद करीब एक दशक तक विभिन्न टेलीविजन चैनलों और अखबारों में काम किया. पूर्णकालिक लेखन और जड़ों की ओर लौटने की जिद उनको वापस उनके गांव चनका ले आयी. वहां रह कर खेतीबाड़ी के साथ लेखन भी करते हैं. राजकमल प्रकाशन से उनकी लघु प्रेम कथाओं की किताब भी आ चुकी है.
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