पहली नज़र में तो ऐसा लगता है कि हिमालय की गोद में बसे हिमाचल प्रदेश और दूर पूरब में स्थित बंगाल के मैदानों के बीच क्या ही ताल्लुक हो सकता है। लेकिन अगर हम इतिहास की परतें खोलें, तो एक दिलचस्प कहानी सामने आती है। एक ऐसी कहानी जो बताती है कि कैसे बंगाल के सेन और पाल राजवंशों के कुछ अंश आज के हिमाचल प्रदेश में कुल्लू और मंडी घाटियों के पुराने पहाड़ी राज्यों तक पहुँचे।
इस कहानी में राजवंशों का प्रवास, मंदिरों की समानता, लोककथाएँ और सांस्कृतिक जुड़ाव सब कुछ शामिल है जो इन दोनों सुदूर इलाकों को एक साझा इतिहास की कड़ी में बाँधते हैं।
बंगाल से हिमाचल तक: सेन वंश की कहानी
सेन राजवंश 11वीं-12वीं सदी में बंगाल में बहुत प्रसिद्ध हुआ। कहा जाता है कि इनकी जड़ें दक्षिण भारत (कर्नाटक क्षेत्र) में थीं, जहाँ से वे आगे बढ़ते हुए बंगाल पहुँचे। सेन राजाओं ने वहाँ कई मंदिर बनवाए, साहित्य को बढ़ावा दिया और धार्मिक परंपराओं का संरक्षण किया।
अगर हम हिमाचल के मंडी और सुकेत रियासतों के इतिहास की परतें टटोलें तो पाते हैं कि मंडी ज़िले की रियासतों के राजा खुद को बंगाल के सेन वंश के वंशज मानते थे और आगे अपनी वंश-रेखा महाभारत के पांडवों तक जोड़ते हैं। लोककथा के अनुसार, एक राजा खेमराज ने राज्य खोने के बाद बंगाल का रुख किया। वहाँ से उनके वंशज पंजाब के रोपड़ पहुँचे और बाद में एक वंशज बीर सेन ने पहाड़ों में आकर सुकेत राज्य की स्थापना की।
बाद में सुकेत की एक शाखा (बाहू सेन के नेतृत्व में) अलग हुई और मंडी राज्य की नींव रखी। मंडी का आधुनिक नगर राजा अजबर सेन (1500-1534 ई.) ने बसाया था। इस तरह यह परंपरा बताती है कि बंगाल से आए सेन और पाल वंश ने हिमालय की पहाड़ियों में आकर नए सिरे से अपने नए राज्यों की जड़ें जमाई।
पाल राजवंश का हिमालयी बसान
कहा जाता है कि बंगाल के पाल राजघराने के वंशज राजा बिहंगमणि पाल को अपने राज्य से (लगभग 8वीं सदी ईस्वी में) हटना पड़ा। वे उत्तर की ओर निकल पड़े और हिमाचल के जगतसुख गाँव पहुँचे। वहीं हिडिंबा देवी के आशीर्वाद से उन्होंने नया राज्य बसाया। यहीं से हिमाचल में गौड़ीय पाल वंश की शुरुआत हुई, जिसने लगभग 1450 ईस्वी तक कुल्लू पर शासन किया। बाद में राजा विशुद्ध पाल ने राजधानी नग्गर में बनाई और फिर 1660 ईस्वी में राजा जगत सिंह ने राजधानी को सुल्तानपुर (कुल्लू) स्थानांतरित किया।
मंदिरों की शैली: बंगाल और हिमाचल का स्थापत्य कला से जुड़ा रिश्ता
अगर हम बंगाल और हिमाचल के पुराने मंदिरों को देखें, तो कई समानताएँ नज़र आती हैं। बंगाल में पाल और सेन काल के मंदिरों में “रेखा देउल” शैली देखने को मिलती है जिसमें वक्राकार शिखर, नक्काशीदार स्तंभ और त्रि या पंच-रथ (तीन या पाँच भागों वाली) योजना होती थी।
हिमाचल के मंडी ज़िले का त्रिलोकीनाथ मंदिर (लगभग 1520 ई.) इसी शैली से मिलता-जुलता है। इसे राजा अजबर सेन की रानी ने बनवाया था। मंदिर की बनावट नागर शैली में है, जिसमें बारीक नक़्काशी, नालीनुमा स्तंभ (fluted pillars) और आकर्षक सजावटी डिज़ाइन देखने को मिलते हैं। कहा जाता है कि यह शैली बंगाल के सेन राजवंश की स्थापत्य परंपरा की झलक देती है यानी बंगाल की कला हिमालय में नई ऊँचाइयों पर फिर से जीवित हुई।

सांस्कृतिक जुड़ाव और लोककथाएँ
इतिहास और स्थापत्य से आगे बढ़ें तो कुछ लोककथाएँ भी इस संबंध को मज़बूत करती हैं। रावी घाटी में एक गाँव है – “बड़ा भंगाल” और कांगड़ा घाटी में एक जगह है “छोटा भंगाल”। वहाँ के लोग बताते हैं कि संभवतः उनके पूर्वज बंगाल में आई एक बड़ी बाढ़ से बचकर यहाँ पहुँचे होंगे। माना जाता है कि वे अपने साथ बंगाल की भाषा, रीति-रिवाज और देवी-भक्ति की परंपराएँ भी लाए। हालाँकि इस कथा का ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन यह दिखाती है कि लोगों की स्मृति में बंगाल से जुड़ाव कितना गहरा है।
आज के दौर में बंगाल का प्रभाव
शिमला में काली बाड़ी मंदिर और वहाँ की दुर्गा पूजा इस बात के उदाहरण हैं कि बंगाली परंपराओं ने हिमाचल में भी अपनी जगह बनाई क्योंकि अंग्रेज़ी राज के दौरान बतौर सरकारी कर्मचारी कई बंगाली परिवार शिमला आकर बसे और अपनी सांस्कृतिक छाप इस पहाड़ी शहर में खोजने बसाने लगे। शिमला का नाम भी “देवी श्यामला” के नाम पर पड़ा जो बंगाल में भी पूजी जानी वाली काली माता का ही एक रूप है। यहां मिलने वाला भोग प्रसाद भी लूची (मैदे की पूरी) ही होता है जैसा अमूमन बंगाल में चढ़ाया जाता है।
हिमाचल के नैना देवी, भीमाकाली और हिडिंबा मंदिरों की परंपराएँ भी बंगाल की शक्तिपूजा से मेल खाती हैं। यह वही शक्ति परंपरा है जो कामाख्या (असम), कालीघाट (बंगाल) और नैना देवी (हिमाचल) जैसे शक्ति पीठों को एक ही आध्यात्मिक श्रृंखला में जोड़ती है।
विविधता का गढ़ रहा हिमालय
हिमाचल और बंगाल का यह रिश्ता सिर्फ इतिहास की बात नहीं है, बल्कि यह कला, प्रवास, विश्वास और स्मृति की कहानी है। मंडी और सुकेत के राजवंश खुद को बंगाल के सेन और पाल वंश से जोड़ते हैं और उनके मंदिरों में बंगाल की स्थापत्य झलक मिलती है। लोककथाएँ जैसे बड़ा भंगाल की कहानी और आज के समय की सांस्कृतिक उपस्थिति, ये सब मिलकर बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश की विविधता में यह जुड़ाव कितनी गहराई से बुना हुआ है।
भले ही हर मान्यता का ठोस ऐतिहासिक सबूत न मिले लेकिन इतनी बात तो तय है कि हिमालय के इन पहाड़ों ने समय समय पर आगंतुकों और खोजियों को न सिर्फ़ अपना हिस्सा बनाया है बल्कि अपनी छत्रछाया में बसाया भी है। इसीलिए हिमाचल प्रदेश की परम्पराओं को एकाश्मीय नहीं समझा जा सकता।

