जम्मू-कश्मीर की 1947 की त्रासदी को पश्चिमी देश अक्सर ‘सीमाई विवाद’ कहकर नजरअंदाज करते रहे हैं। लेकिन एक हालिया रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि यह कोई सीमा विवाद नहीं, बल्कि पाकिस्तान द्वारा रचा गया सैन्य हमला था, जिसने आने वाले दशकों के लिए आतंक की नींव रखी।
स्वीडिश मानवाधिकार कार्यकर्ता माइकल अरिजेंटी ने ब्रिटेन के ‘द मिली क्रॉनिकल’ में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में लिखा कि इसी पश्चिमी नरमी ने पाकिस्तान को ‘दुनिया का सबसे पुराना आतंक-निर्यात केंद्र’ बनने की आजादी दे दी।
“ऑक्यूपेशन ऐज स्टेटक्राफ्ट: पाकिस्तान्स 1947 कश्मीर इन्वेजन ऐंड इट्स एंडलेस प्रॉक्सीज” नाम से लिखे इस लेख में माइकल अरिजेंटी ने कहा है कि पाकिस्तान की जंगी मानसिकता न केवल बाहरी गलतियों बल्कि देश के आंतरिक पतन के लिए भी खतरा बन रही है। उन्होंने लिखा कि पाकिस्तान की सेना आज भी सत्ता के भ्रम में जी रही है। जनरलों के इसी मोह ने देश को आंतरिक रूप से कमजोर किया है और पाकिस्तान को आर्थिक बर्बादी की तरफ धकेल दिया है।
माइकल अरिजेंटी के अनुसार, 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने ‘ऑपरेशन गुलमर्ग’ नाम से एक सुनियोजित हमला शुरू किया था, जिसे जनजातीय विद्रोह का रूप दिया गया। दरअसल, यह राज्य प्रायोजित आतंक अभियान था जिसमें हथियारबंद पठान कबीलों और पाकिस्तानी सैनिकों ने कश्मीर में नरसंहार, बलात्कार और लूटपाट की थी, ऐसे अपराध जो आज मानवता के खिलाफ अपराधों की श्रेणी में आते।
कश्मीर पर आक्रमण: क्षेत्रीय संघर्ष नहीं, बल्कि आतंक का एजेंडा
माइकल अरिजेंटी ने अपनी रिपोर्ट में 1947 की घटनाओं को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि 22 अक्टूबर 1947 को, पाकिस्तान ने ‘ऑपरेशन गुलमर्ग’ शुरू किया था। यह एक ऐसी सरकारी योजना थी जिसे कबायली विद्रोह के रूप में पेश किया गया। पाकिस्तान सेना के समर्थन से राइफलधारी पश्तून लड़ाकों ने कश्मीर में प्रवेश किया। उनका एक ही मक़सद था- आतंक फैलाना। इसके बाद जो हुआ, वह बड़े पैमाने पर सामूहिक हत्या और यौन हिंसा थी, जिसे आज के क़ानून के अनुसार मानवता के खिलाफ अपराध माना जाएगा।”
अरिजेंटी ने स्पष्ट किया कि 1947 में जम्मू-कश्मीर में जो हुआ वह कोई विवाद नहीं, बल्कि पाकिस्तान की सैन्यीकृत विचारधारा से प्रेरित आक्रमण था। इस विचारधारा ने हिंदू और सिख समुदायों को नागरिकों के बजाय रणनीतिक जमीन हड़पने की राह में बाधा समझा।
78 साल बाद भी नहीं बदली मानसिकता
अरिजेंटी ने लेख में कहा है कि 78 साल बाद भी पाकिस्तान की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं हुआ है। पाकिस्तान की सेना आज भी क्षेत्र को एक ट्रॉफी, नागरिकों को व्यर्थ और जिहाद को एक नीतिगत हथियार मानती है।जिस मानसिकता ने बारामूला और मीरपुर में कश्मीरियों का कत्ल करने के लिए कबायली लश्कर को उतारा था, उसी ने बाद में लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और क्षेत्र को अस्थिर करने वाले हर दूसरे ‘प्रॉक्सी’ आतंकवादी समूह को पैदा किया। अरिजेंटी के अनुसार, “आतंक का निर्यात करो। जिम्मेदारी से इनकार करो। पीड़ित होने का नाटक करो। असहमति को चुप कराओ।” पाकिस्तान ने अक्टूबर 1947 में यह क्रम शुरू किया और तब से यही दोहराता रहा है।
पीओके और जम्मू-कश्मीर की तुलना
अरिजेंटी ने जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) के विकास की तुलना करते हुए पाक को आईना दिखाया है। उन्होंने कहा कि भारत के संविधान संशोधन (2019) के बाद जम्मू-कश्मीर में तेजी से विकास हुआ है। आतंकवाद से पहले के स्तर से ज़्यादा पर्यटन बढ़ा है और स्थानीय चुनावों में दशकों में सबसे ज़्यादा मतदान दर्ज किया गया है। नई सड़कों, अस्पतालों और विश्वविद्यालयों के साथ पर्यटन अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है। वहीं, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) में हालात बदतर हैं। यहां बिजली कटौती, खाद्य संकट, कार्यकर्ता गायब हैं, प्रतिबंधित संगठन और प्रति व्यक्ति आय भारत प्रशासित क्षेत्रों की आधी से भी कम। उन्होंने लिखा कि “2024 में जब वहां नागरिकों ने राशन और बिजली चोरी के खिलाफ प्रदर्शन किया, तो पाकिस्तानी सेना ने उन्हीं पर गोलियां चलाईं।”
उन्होंने कहा, पाकिस्तान ने दशकों तक अफगान तालिबान का समर्थन धार्मिक एकजुटता के बजाय क्षेत्रीय व्यामोह के कारण किया। पाकिस्तान आज भी तालिबान पर आतंकियों को पनाह देने का आरोप लगाता है, जबकि तालिबान नेतृत्व पाकिस्तान की नाक के नीचे क्वेटा और पेशावर में आराम से रहता था। यह एक जहरीली निर्भरता है- पाकिस्तान अफगानिस्तान में अस्थिरता को जिंदा रखता है ताकि वह शांति की शर्तें तय कर सके।
सेना का सत्ता-मोह देश के लिए खतरा
इस बीच इंडिया नैरेटिव की एक अन्य रिपोर्ट ने पाकिस्तान की मौजूदा सैन्य व्यवस्था पर रौशनी डाली है। रिपोर्ट में पाकिस्तान की मौजूदा सैन्य व्यवस्था को ‘देश की सबसे बड़ी बीमारी’ बताया। रिपोर्ट के मुताबिक, से देश की ताकत को बढ़ाना नहीं है। बल्कि, यह पाकिस्तान की एक पुरानी और गंभीर बीमारी का और गहरा जाना है। यह बीमारी सेना का सत्ता का लालच है, जिसने देश को स्थिर होने या आगे बढ़ने से बार-बार रोका है।
रिपोर्ट में कहा गया, “आयूब खान से लेकर जिया-उल-हक और परवेज मुशर्रफ तक हर जनरल ने लोकतंत्र और विकास की जगह सैन्य राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया। हर हस्तक्षेप देश को और अधिक गरीब, अस्थिर और गुस्सैल बनाता गया।”
मुनीर का खुद को धार्मिक नैतिक जनरल के रूप में पेश करना पाकिस्तानी समाज में असरदार भले लगे, लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तान की सेना ने बार-बार अपने ईश्वरीय मिशन के भ्रम में निजी सत्ता को ही राष्ट्रीय शक्ति समझ लिया।
रिपोर्ट में कहा गया है, पाकिस्तान आज नाम के लिए गणराज्य है, लेकिन असल में एक सैन्य छावनी बन चुका है, जहां सरकार सेना की शाखा बनकर रह गई है, न्यायपालिका राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर झुक जाती है और मीडिया पर लगातार शिकंजा कसता जा रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक, मुनीर का दस साल का विस्तार प्रस्ताव (2035 तक पद पर रहने की योजना) इस मानसिकता का प्रतीक है कि कागज़ों पर तो पाकिस्तान एक लोकतंत्र (गणतंत्र) है, लेकिन असल में यह सेना की छावनी जैसा है। यहाँ नागरिक सरकारें सिर्फ़ सेना के आदेशों को लागू करने का काम करती हैं।
अंत में रिपोर्ट में कहा गया है कि “जब तक पाकिस्तान के नागरिक अपनी संप्रभुता को सेना की बैरक से वापस नहीं लेंगे, देश वही रहेगा। एक सैन्य घमंड का मंच, जहां जनरल साम्राज्य के सपने देखते हैं और राष्ट्र कर्ज़, भ्रष्टाचार और निराशा में डूबा रहता है।”

