गाड़ी का चक्का, भाप का इंजन, मोटर गाड़ी, ट्रेन, मोबाइल या कुछ और, भौतिक आविष्कार एवं बदलाव दो आँखों से साफ दिखते हैं, मगर अमूर्त विचारों को देखने के लिए तीसरे नेत्र की जरूरत होती है। जैसे, शास्त्रीय संगीत के सुरों का प्रभाव महसूस करना सरल है, मगर उसकी आंतरिक संरचना एवं आरोह-अवरोह को समझने के लिए गहरे ध्यान और अभ्यास की जरूरत होती है। उसी तरह अमूर्त धारणाओं और संस्थागत बदलावों को देखने और चिह्नित करने के लिए धैर्य और ध्यान की जरूरत होती है।
वैचारिक अन्वेषण का समीचीन उदाहरण 19वीं सदी से दिया जा सकता है। अमीर और गरीब, सदियों से दार्शनिकों और उद्धारकों की चिन्ता के केन्द्र में थे मगर 19वीं सदी के दार्शनिकों ने यह समझने में सफलता प्राप्त की कि कोई आदमी अमीर कैसे बनता है और कोई प्रतिभा और परिश्रम के बावजूद गरीब कैसे रह जाता है। श्रम, श्रम के मूल्य और उसके दोहन की अवधारणा पर 19वीं सदी में उतना ही विचार किया गया जितना चक्के की अवधारणा पर विचार करके बैलगाड़ी बनाते समय किया गया होगा, भाप की अवधारणा पर विचार करके इंजन बनाते समय किया गया होगा। श्रम के दर्शन के विकास के बाद ही काम के घण्टे, न्यूनतम वेतन,निश्चित अवकाश इत्यादि जैसी मूलभूत लगने वाली सुविधाएँ कामगारों को मिल सकीं। उसी तरह, शिक्षा प्रत्येक मनुष्य का बुनियादी अधिकार है, यह समझ भी 19वीं सदी की देन है।
जिस तरह 19वीं सदी श्रम का उचित मूल्य और शिक्षा का महत्व समझने की सदी थी, उसी तरह 20वीं सदी ज्ञान और सत्ता के परस्पर सम्बन्धों के अन्वेषण की सदी थी। सत्ता के स्वभाव और प्रभाव का अन्वेषण और विश्लेषण करने वाले एक प्रमुख दार्शनिक का नाम था, मिशेल फूको। वर्ष 1969 में प्रकाशित उनकी किताब L’archéologie du savoir (ज्ञान का पुरातत्व) नवोन्मेषशालिनी पुस्तक मानी जाती है। इस पुस्तक का मूल फ्रांसीसी नाम इसलिए दिया है ताकि आपको अहसास हो सके कि मनुष्य का समस्त ज्ञान इंग्लिश भाषा से नहीं आया है।
सत्ता और ज्ञान के आपसी सम्बन्ध पर फूको कहते हैं, “ऐसा कोई सत्ता समीकरण नहीं है, जो अपना ज्ञान तंत्र विकसित नहीं करता और ऐसा कोई ज्ञान तंत्र नहीं है जो किसी सत्ता का पूर्वस्वीकृत और नवनिर्मित सत्ता समीकरण नहीं तैयार करता है।”
फूको ने अपने काम के बारे में बताते हुए कहा था कि वह दीवार में खिड़की बनाते हैं। दीवार में एक खिड़की हमारे प्रिय विनोद कुमार शुक्ल ने भी बनायी थी, मगर फूको की खिड़की यथार्थ लोक में खुलती है, विनोद जी की कल्पना लोक में।
फूको इसलिए खिड़की बनाते थे ताकि हम देख सकें कि सत्ता की दीवार के उस पार क्या है! विनोद जी ने दीवार के इधर के असहनीय यथार्थ की पीड़ा से मुक्ति के लिए उसी दीवार में कल्पना की खिड़की खोल ली। विनोद जी की दीवार और फूको की दीवार में एक बुनियादी अन्तर और है। विनोद जी की दीवार रोजमर्रा के दोहराऊ जीवन (रूटीन लाइफ) की दीवार थी, जबकि फूको के सामने अवधारणाओं और संस्थानों की दीवार थी। फूको ने ज्ञान, सत्ता, पागलपन, पागलखाने, इलाज, अस्पताल, जेल इत्यादि की संस्थागत दीवार में खिड़की बनायी। फूको ज्ञान की पुरातात्विक खुदाई करते थे और विचारों की आनुवंशिकी (Genealogy) तैयार करते थे।
आज हम फूको इसलिए याद कर रहे हैं क्योंकि अज्ञेय-वायर-अशोक-यूनिवर्सिटी प्रकरण के बीजशब्द हैं- ज्ञान, सत्ता, पूँजीपति, उच्च शिक्षा। ध्यान रहे, बीजशब्द वे होते हैं, जिनके अन्दर बड़े-बड़े विचारों के वृक्ष सुप्त पड़े रहते हैं। इन सभी बीजशब्दों को समझने के लिए हम इस यूनिवर्सिटी का पुरातत्व उजागर करना होगा। जिन लोगों ने इस प्राइवेट यूनिवर्सिटी को अपने निजी दस्तावेज सौंपे हैं, उनकी आनुवंशिकीय पड़ताल करनी होगी। इसके धैर्य और ध्यान दोनों की जरूरत पड़ेगी। मगर एक चीज अभी से साफ होने लगी है।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति, पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व नौकरशाहों, कई प्रमुख मार्क्सवादी और गांधीवादी विद्वानों द्वारा अपने कथित ‘निजी दस्तावेज’ पूँजीपतियों की बनायी यूनिवर्सिटी के पेड आर्काइव को देने की जिस प्रवत्ति को इतिहासकार शुभनीत कौशिक ने अपने लेख में रेखांकित किया है, उससे साफ होता है कि भारत में सत्ता और ज्ञान के आपसी सम्बन्ध निर्णायक बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं।
फूको ने कहा था, “ज्ञान के बिना सत्ता का संचालन सम्भव नहीं है, ज्ञान के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह सत्ता को संकटग्रस्त किये बिना बना रह सके।” सत्ता और ज्ञान के इस द्वंद्वात्मक सम्बन्ध के नए अध्याय को समझने के लिए कई संस्थागत दीवारों में नई खिड़की खोलनी होगी। इतने सारे अग्रणी विद्वान पूँजीपतियों द्वारा तैयार की गयी यूनिवर्सिटी को सौंपते जा रहे हैं तो इसके पीछे सुचिंतित कारण होंगे। वो कारण क्या हैं, यह आज नहीं कल सामने आएगा।
शुभनीत कौशिक ने रेखांकित किया है कि अशोक यूनिवर्सिटी में रखे दस्तावेज पर शोध करना किसी पब्लिक इंस्टिट्यूट के मुकाबले कई गुना महँगा होगा। क्या अशोक यूनिवर्सिटी को देकर इन दस्तावेजों को देश की 90 प्रतिशत आबादी की पहुँच से बाहर करने का प्रयास किया जा रहा है? World Inequality Lab की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि 1922 से लेकर अब तक भारत में अमीर और गरीब के बीच का अन्तर अपने सर्वोच्च स्तर पर है! बढ़ती आर्थिक असमानता और शोध कार्य के निजीकरण के बीच क्या कोई अदृश्य सम्बन्ध है जिसे हम नहीं देख पा रहे हैं?
फूको के अनुसार, ज्ञान सत्ता को स्वभावतः संकट में डालता है। इसलिए सत्ता हमेशा ज्ञान के अनुकूलन का प्रयास करती है। मार्क्स और फूको के अवदानों की रोशनी में ज्ञान को अवाम की नजरों से ओझल करना कठिन हो चुका है तो क्या उसे सुनियोजित तरीके से महँगा किया जा रहा है कि देश की बड़ी आबादी उसतक पहुँच ही न पाए! कोई प्रतिभा के दम पर पहुँचना भी चाहे तो उसे पूँजीपति द्वारा दी गयी वजीफे की सीढ़ी थामनी पड़ी ताकि वह ताउम्र उसके अहसान के बोझ तले दबा रहे! सीढ़ी विहीन वंचित जन नीचे के 90 प्रतिशत की निचली कतारों में खटने को बाध्य होंगे!
या फिर, प्राइवेट यूनिवर्सिटी में आरक्षण का प्रावधान न होना, भद्र लोक के एक वर्ग को अशोक यूनिवर्सिटी की तरफ खींच रहा है? जिस तरह आज सरकारी स्कूल वंचित और पिछड़ी आबादी के बच्चों को साक्षर बनाने के जरिया भर बनते जा रहे हैं, यूनिवर्सिटी का भी एक दिन क्या वैसा ही हाल हो जाएगा! जो अच्छी होंगी प्राइवेट और महंगी होंगी। पब्लिक (सरकारी) वाली बस डिग्रीधारी बिजूका तैयार करेंगी!
आज किसी को यह बेबुनियाद आशंकाएँ लग सकती है मगर जरा सोचें, आज से 50 साल पहले कितने लोगों ने सोचा होगा कि एक दिन सरकारी स्कूलों में केवल देश की बॉटम 50-70 प्रतिशत आबादी के बच्चे पढ़ेंगे! इंग्लिश मीडियम एजुकेशन और कल्चरल एक्सपोजर वाले बच्चे उनकी तुलना में बिगनर एडवाटेंज के लाभार्थी होंगे, और थॉमस पिकेटी जैसे अर्थशास्त्री शोध करके कहेंगे कि पिछले एक हजार साल में दुनिया के सम्पत्ति वितरण का अनुपात आज भी कमोबेश वैसा ही है, 10 ऊपर, 90 नीचे! या 20 ऊपर, 80 नीचे! श्रम का शोषण कैसे होता है, शिक्षा का महत्व क्या है, यह सब समझने के 150 साल बाद भी आखिरकार गरीब-अमीर का यह अनुपात क्यों नहीं बदल रहा है! इसमें सत्ता और ज्ञान के आपसी समीकरण की क्या भूमिका है!
आज ही इतना ही। शेष, फिर कभी।