अपनी ही रणनीति के शिकार हुए अरविंद केजरीवाल इसलिए मिली करारी हार

दिल्ली विधान सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को करारी हार मिली है। भारतीय जनता पार्टी स्पष्ट बहुमत के साथ 25 साल बाद राजधानी की सत्ता में वापसी कर रही है।

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अरविंद केजरीवाल क्यों हारे?

दिल्लीः दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों को स्वीकार करते हुए आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वो राजनीति में सत्ता के लिए नहीं आए हैं बल्कि सकारात्मक राजनीति करने के लिए आए हैं। अपनी एक मिनट की पहली प्रतिक्रिया में केजरीवाल ने सिर्फ उतनी ही बात कही जितनी बात के लिए उनकी पार्टी का जन्म हुआ था। सकारात्मक राजनीति के इस राजनीतिक आंदोलन से अरविन्द केजरीवाल ने अपनी जो बैंड वैल्यू बनाई। वह वैल्यू इस चुनाव अभियान में गिर गया।

इसकी सबसे बड़ी वजह रही, पिछले छ महीने के चुनावी जंग में आम आदमी पार्टी और खुद अरविंद केजरीवाल की प्रचार रणनीति। इसी रणनीति के दम पर वह तीन बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बनें।

आम आदमी पार्टी का वोट प्रतिशत लगभग 43.5 फीसदी है। जबकि भाजपा को 45.8 फीसदी वोट मिले, इसलिए ये कहना गलत नहीं होगा कि आम आदमी पार्टी का वोटबैंक अभी भी इनटैक्ट है। तो आप की हार की वजह उसकी प्रचार रणनीति रही जो भाजपा के व्यूह में फंस गई। अरविन्द केजरीवाल ने जिस ब्रैंड वैल्यू के दम पर अपना वोटबैंक बचाए रखा था उसी छवि को केजरीवाल स्टेप बाई स्टेप लूज करते चले गए। इसको समझने के पहले सकारात्मक राजनीति के लिए आम आदमी पार्टी का जन्म और प्रचार की रणनीति को समझ लेते हैं।

2013 का विधान सभा चुनाव

आम आदमी पार्टी 2013 के विधानसभा चुनाव में जब 28 सीटों पर जीतकर आई थी। तब उसके पास ना संगठन था, ना काडर था। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन की पिच पर दुनिया भर से समर्थन प्राप्त था। और इस समर्थन में सबसे बड़ा हाथ था। न्यूज चैनलों का और पत्रकारों का। भ्रष्टाचार के खिलाफ अरविन्द केजरीवाल एंड टीम की लड़ाई को घर घर से जबरदस्त समर्थन मिला और जनलोकपाल बिल लागू करने की शर्त पर यह आंदोलन खत्म हुआ। इसके ठीक बाद अरविन्द केजरीवाल ने उच्च राजनीतिक आदर्श पर आम आदमी पार्टी का गठन किया। तब शीला दीक्षित तीन बार की सीएम थीं और अपने विकास कार्यों की वजह से खूब लोकप्रिय थी। लेकिन कॉमनवेल्थ घोटाले, कोल ब्लॉक में फंसी कांग्रेस खुद शीला दीक्षित के घर में लगे एसी के बहाने केजरीवाल की मजबूर आम आदमी वाली छवि ने  चुनाव में आम जनता के दिल में बैठ गई। सब मिले हुए जी, सर जी हम सत्ता के लिए नहीं राजनीति को बदलने आए हैं। बड़ी शर्ट, नीली वैगन आर कार और मफलर में कान ढके केजरीवाल की खांसी भी लोकप्रिय हो गई। अरविन्द केजरीवाल अपने स्ट्रैटजिक प्रचार से कामयाबी की सीढियां चढ़ते चले गए।

 

दो सौ यूनिट बिजली मुफ्त, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन में पहले बेहतर काम करके केजरीवाल ने पहले 2015 फिर 2020 में अपना वोटबैंक ठोस किया। लेकिन इस बार वह उन मुद्दों पर प्रचार रणनीति नहीं साध सके जिनपर भाजपा आक्रामक थी। बल्कि उन सवालों पर उनका वही पुराना राग था। कहते हैं राजनीति में एक नारा एक चुनाव में ही चलता है। पहले शराब घोटाला, फिर शराब घोटाले में जेल जाना उसके बाद मुख्यमंत्री आवास में करोड़ो रुपए खर्च करने को  विपक्ष ने केजरीवाल के वादे और छवि के खिलाफ शीशमहल के तौर प्रस्तुत किया। इसपर भी केजरीवाल सकारात्मक जवाब नहीं दे सके।
इसके साथ ही दिल्ली में अचानक से शीला दीक्षित सिंड्रोम फैल गया जो अप्रत्यक्ष था लेकिन कहीं ना कहीं दिल्ली के लोगों के मन मे शीला दीक्षित के शासन काल में उनके किए गए विकास कार्य कचोटने लगे। कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति उमड़ने लगी थी कि ऐन वक्त पर केजरीवाल ने कांग्रेस से गठबंधन करने से साफ मना कर दिया। केजरीवाल की छवि पर एक तरफ डेंट लग रही थी और दूसरी तरफ शायद केजरीवाल को अपने काडर व वॉलंटियर नेटवर्क और जनता में अपनी छवि को लेकर पूरा भरोसा था। 

इस भरोसे को पुख्ता करने के लिए उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया औऱ आतिशी सिंह को सीएम बनाने का प्लान तैयार किया और अपनी पहली चुनावी मूव में उन्होंने महिला सीएम से महिलाओं के लिए प्रतिमाह 2100 रूपए देने का ऐलान कर अपनी चौथी जीत का रिकार्ड लॉक कर दिया।  लेकिन यहीं से अरविन्द केजरीवाल ओवर कांफिडेंट होते चले गए और भाजपा कांग्रेस के आरोपों के जवाब देने के बजाय मीडिया और सोशल मीडिया पर चुनाव प्रचार में लीड लेने लगे।

यमुना का पानी और प्रदूषण

हद तब हो गई जब मैली यमुना के आरोप पर सकारात्मक जवाब देने की जगह केजरीवाल ने हरियाणा सरकार पर यमुना में जहर डालने का आरोप लगा दिया। केजरीवाल ने यहां तक कह दिया कि दिल्ली जल बोर्ड के इंजीनियरों ने हरियाणा का पानी बॉर्डर पर ही रोक लिया जिसकी वजह से हजारों दिल्ली वालों की जान बच गई मानो जल बोर्ड के इंजीनियर आदमी नहीं सुपरमैन हों। खैर, अरविंद केजरीवाल का ये आरोप जनता को डाइजेस्ट नहीं हुआ। यही वह टर्निंग प्वाइंट था जब केजरीवाल ने अपनी ब्रैंड वैल्यू को एकदम खो दिया। दूसरा कांग्रेस के मजबूती से ना लड़ने के फैसले से केजरीवाल से नाराज जनता भाजपा की तरफ चली गई। और चुनाव का नतीजा बदल गया।

असल में आम आदमी पार्टी अपने जन्मदाता के अतिआत्मविश्वास और आत्ममुग्धता की शिकार हो गई। इसको और ठीक से समझने के लिए आप केजरीवाल के उन खास सहयोगियों या कोर टीम के चुनाव नतीजों को देखें। मनीष सिसोदिया, सौरभ भारद्वाज, सत्येन्द्र जैन, दुर्गेश पाठक चुनाव हार गए जबकि महज तीन महीने सीएम रही आतिशी चुनाव जीत गईं। पार्टी के पुराने चेहरे गोपाल राय, कोंडली की सुरक्षित सीट से कुलदीप कुमार, जिन्हें पार्टी ने पूर्वी लोकसभा सीट से सांसदी भी लड़ाया था, चुनाव जीत गये। आम आदमी पार्टी ने अनुसूचित वर्ग के लिए आरक्षित बारह में से आठ सीटों पर भी जीत हासिल की। यानी दिल्ली की जनता आम आदमी पार्टी के साथ थी लेकिन चुनाव प्रचार के आखिरी राउंड में अरविन्द केजरीवाल और उनकी कोर टीम से जनता बिदक गई। 

अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीति इस आदर्श वाक्य से शुरू की थी कि वो वीवीआईपी कल्चर को खत्म करेंगे। गाड़ी, बंगला और सुरक्षा नहीं लेंगे लेकिन सरकार में आने के बाद उन्होंने न सिर्फ लग्जरी गाड़ियों पर चलना शुरू कर दिया बल्कि केंद्र से जेड प्लस सुरक्षा मिलने के बावजूद पंजाब सरकार की भी सिक्युरिटी भी लगवा ली। और विपक्ष के सवाल का जवाब देने की जगह आरोपों की प्रेसकांफ्रेंस की नीति उनपर भारी पड़ी।

आखिर में दिल्ली चुनाव में अरविंद केजरीवाल के लिए प्रचार करने वाले समाजवादी पार्टी के चीफ अखिलेश यादव की एक ट्वीट से समझिए कि केजरीवाल कहां चूके। चार फरवरी को अखिलेश ने ट्वीट किया था, झूठ बोलनेवालों कि सबसे बड़ी पहचान ये होती है कि वो अपनी कमियों, अपनी गलतियों और अपनी असफलताओं के लिए किसी और को दोषी बताते हैं। 

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