‘अमृतसर आ गया’ ने आज कई बार भावुक किया। आँखें छलक आयीं। मन भारी हुआ। इसके पहले फ़िल्म देखकर तो अक्सर ऐसा हुआ है, पर अपने दस फ़ीट दूर मंच पर क्रिएट दृश्य देखकर पहली बार ही रोये।
दिल्ली में यह नाटक त्रिवेणी कला संगम में मंचित हुआ। हॉल में घुसने से पहले ही नाटक ने खुद से जोड़ना शुरू कर दिया था। नाट्य कलाकार हॉल के रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूर पर पंक्तिबद्ध खड़े थे और आने वाले दर्शकों का अभिवादन और स्वागत कर रहे थे। मंच तक पहुँचे तो हॉल खचाखच भरा था। दिल्ली में तो लोग कितनी दूर दूर से आते हैं। उस पर भी रात का शो, सारी सीटें फुल। दर्शक गैलरी में, सीढ़ी पर भी बैठे हैं।
मंच के पास खुद निर्देशक अरविन्द गौड़ व्यवस्था संभाल रहे थे… कई दर्शक जगह न मिलने के कारण हॉल के बाहर ही रह गये थे सो वे सबको आगे पीछे करके जगह बनवा रहे थे कि दर्शकों को निराश न लौटना पड़े। हालाँकि फिर भी कुछ तो लौटे ही..
कथा और सम्प्रेषणीयता
यह नाटक भीष्म साहनी की कहानियों पर है। कई कहानियों का कोलाज बनाकर एक पटकथा पर काम किया गया है। नाटक बंटवारे के बाद हुए दंगे, फसाद, लूट में फँसे आम लोगों की पीड़ाजनक दास्तान है। इस त्रासदी पर तमाम कहानियाँ और उपन्यास लिखे गये हैं, फ़िल्में बनी हैं। कितने भयानक दौर से हमारा देश गुजरा है। आज भी जगह-जगह होने वाले दंगे उन्हीं ज़ख्मों को कुरेद देते हैं।
इस कई कहानियों के कोलाज के बीच में सन चौरासी के हिन्दू सिख दंगे को भी कुछ शामिल कर लिया गया है। नाटक को शायद मौजूदा परिस्थिति से जोड़ने के लिये ऐसा किया गया हो। पर यह टुकड़ा पूरे नाटक से अलग लगता है। अन्यथा पूरा नाटक हिन्दू मुस्लिम सम्प्रदायिकता को दिखाता है। नाटक में एक केंद्रीय किरदार है जो अपने समय यानी बंटवारे के नफ़रत और खौफ से भरे माहौल की कहानी याद करता है। उस समय कैसे एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के निर्दोष लोगों की हत्या कर रहे थे, सम्पत्ति लूट रहे थे, वहीं ऐसे लोग भी थे जो इतनी भयानक मार काट और अविश्वास में दूसरों की हिफाज़त में अपनी जान पर खेल गये थे।
इस नाटक में आम जनता की तकलीफ तो उभारी गयी है पर कुछ दृश्यों में इसके लिये जिम्मेदार राजनीति पर भी थोड़ी बात होती तो बेहतर होता, हालाँकि एकाध बार जिन्ना का नाम जरूर आया।
‘अमृतसर आ गया’ नाटक भले आजादी के तुरंत बाद की कहानी कहता हो, लेकिन लग कुछ यूं रहा था जैसे हम बस आज का ही दौर देख रहे हैं। जैसे कि सब कुछ बीता नहीं है, वह कहीं नहीं गया, आज भी साथ ही चल रहा है।
आज़ादी के दशकों बाद तक हम उस दौर से निकल नहीं पाए हैं यह एहसास विचलित करता है। अमृतसर आ गया – साम्प्रदायिकता के उसी जख्म को उघाड़ देता है जिसे हम भरा हुआ मान चुके थे। लेकिन अब पता लगा कि वह तो नासूर बन चुका है। यही कारण है कि हर दर्शक नाटक से जुड़कर अपनी आँख नम कर लेता है।
हाँ, यह बात फिर से कहनी होगी कि नाटक की प्रेषणीयता ज़बरदस्त थी। हर दर्शक ने नाटक से कनेक्ट किया। अच्छे दृश्यों पर भावुक होकर खूब तालियाँ बजायीं। भावुक करने वाले दृश्य मसलन जब दंगों में शेरसिंह ने इमामुद्दीन को बचाया, शकूर मियाँ ने अपने परिवार से बिछड़ गये हिन्दू बच्चे पाली को गोद ले लिया और बाद में उसके परिवार को वापस कर दिया, जबकि बच्चे के जाने से उनके परिवार का सहारा छिन गया।

नाटक में कितनी बार तालियां बजीं, इसकी कोई गिनती नहीं। मेरी तरह कई दर्शक भावुक हुए और उनकी आंखों में आंसू आए। ये आँसू शायद विवशता के रहे हों, हम आज भी ऐसी घटनाओं को रोकने में पर्याप्त सक्षम नहीं हैं।
नाटक की खास बात यह भी थी कि बहुत कम प्रॉपर्टीज में शानदार दृश्य और अभिनय देखने को मिला। मंच पर ट्रेन और ट्रक चलने का दृश्य बहुत प्रभावशाली लगा। जबकि इसमें न लाइट्स का प्रयोग किया गया, न किसी और सहारे का। अभिनेताओं ने अपनी एक्टिंग से जताया कि ट्रेन चल रही है। इसी तरह दंगे, जुलूस, लूट का चित्रण भी बहुत सहज और सजीव था। केवल कलाकारों के अभिनय ने जैसे सब कुछ संप्रेषित कर दिया।
हालांकि इसमें यह कहीं नहीं बताया गया कि भीष्म जी की अन्य कौन सी कहानियां इस मंचन में सम्मिलित हैं। भीष्म साहनी की कहानियों से अपरिचित दर्शकों के लिए यह जानकारी जहां एक तरफ उनका ज्ञानवर्धन करती वहीं दूसरी और उन्हें इन कहानियों के पाठ के लिए प्रवृत भी कर सकती थी।
नाटक के अंत में अरविंद गौड़ खुद दर्शकों से संवाद के लिये प्रस्तुत हुए। कई दर्शकों ने उनसे अपनी राय साझा की। नाटक के तुरंत बाद दर्शकों से सीधे फीडबैक लेना दिलचस्प प्रक्रिया है। कई दर्शकों ने काफी अप्रिशिएट किया। वे नाटक के प्रभाव में बहुत ज्यादा थे। एकाध लोगों ने सुझाव भी दिए। नाटक की प्रस्तुति कितनी सफल रही यह दर्शकों और निर्देशक के चेहरे को देखकर स्पष्ट था।
नाटक खत्म होने पर बाहर निकलते हुए सभी कलाकार हमसे रास्ते में उसी तरह मिले जिस तरह अंदर जाते हुए वे मिले थे। जैसे उन्होंने आते वक्त स्वागत किया वैसे ही जाते वक्त विदाई दी।
बाहर आते हुए मैंने एक कलाकार से बात की और संयोग देखिए कि वह कलाकार प्रतापगढ़ के निकले– ‘रावल मान्धाता।’ जाहिर है कि इलाहाबाद के बगल के कलाकार को देखकर अतिरिक्त खुशी हुई।
सामाजिक जागरुकता की पक्षधर:अरविंद गौड़ की ‘अस्मिता’
अरविंद गौड़ और उनकी संस्था ‘अस्मिता थिएटर ग्रुप’ 32 सालों से रंगकर्म में सक्रिय है। दिलचस्प बात यह भी कि यह ग्रुप सामाजिक राजनीतिक विषयों पर गंभीर प्रस्तुति देता आ रहा है। ये लोग यूनिवर्सिटी और कॉलेज के अलावा देश विदेश में प्रस्तुति देते आ रहे हैं। आम जनता में जागरूकता के लिये ये नुक्कड़ नाटक भी खूब करते हैं। इनकी सक्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये एक साल में करीब साठ शाम नाटक मंचन करते हैं।
अरविन्द गौड़ की टीम खासी बड़ी है। इतनी बड़ी टीम को निर्देशित करना किसी भी निर्देशक के लिए चुनौती हो सकती है। मंच पर जब कलाकार उतरते हैं तो एक दूसरी दुनिया की निर्मिति हो जाती है। उनकी टीम में कई भाषाओं और धर्मों के कलाकार हैं। ये अलग से रेखांकित हुए बिलकुल अच्छा नहीं लगता फिर भी कहना जरूरी इसलिए है कि नाटक में जिस तरह हिन्दू-मुस्लिम-तनाव, सिख-हिन्दू-तनाव आदि दिखाये गये हैं और आज भी हमारा समाज जिस तरह सम्प्रदायिकता और जातिवाद से गहरे जूझ रहा है, वहां यह तथ्य दुहराना ज़रूरी है। इस तरह एक साथ काम करके समाज की विभेदकारी खाई को पाटने में अस्मिता ग्रुप की एक अदृश्य भागीदारी है। कम से कम आप यह भरोसा कर सकते हैं कि यह ग्रुप धर्म, जाति, भाषा, लिंग के आधार पर आपसी व्यवहार में भी कोई भेदभाव नहीं करता। बल्कि समाज को एक प्रेरक सन्देश देता है।

अरविन्द गौड़
नाटक के मंच पर के सभी पक्ष मजबूत थे। डा. संगीता गौड़ का संगीत उसी दौर में ले गया। स्त्री पुरुषों का वस्त्र विन्यास वही आज़ादी के समय वाला। ऊँचे कुर्ते, पटियाला सलवार, सिकुड़े हुए सूती वस्त्र। कसे बंधे हुए बाल। पुराना पंजाब मंच पर जीवित हो गया। कई बार बुनियाद सीरियल के चरित्रों की भी याद आयी। नाटक की टीम बड़ी है और इस नाटक में ये बहुत सारे कलाकार मिलकर ही वह परिदृश्य रचते हैं जो इसे विशिष्ट बनाता है। सभी किरदार अनुशासित और सधे हुए हैं। सबके नाम लिख पाना तो सम्भव नहीं है फिर भी कुछ मुख्य कलाकार हैं – रावल सिंह , प्रभाकर पाण्डेय, आशुतोष सिंह, अंकुर शर्मा, संजीव सिसोदिया, करुणा शर्मा, यंगशीन, सावेरी श्रीगौड़, आकांक्षा तिवारी आदि। हालाँकि दर्जनों कलाकारों में गिने चुने नाम लेना उचित नहीं है क्योंकि हर कलाकार ने अपनी तरफ से बेहतरीन ज़िम्मेदारी निभाई।

अरविन्द गौड़ के बारे में कहा जाता है कि वे मंच पर प्रतिरोध रचते हैं. नाटक करने के लिये कोई बड़ा फंड नहीं लेते बल्कि दर्शकों के ऊपर ही निर्भर रहते हैं। नाटक के अंत में दर्शकों से संवाद करते हुए उन्होंने खुद बताया कि यह नाटक हमने आपको निःशुल्क इसलिए दिखालाया क्योंकि हम आपको अच्छे नाटक का नमूना दिखाना चाहते थे, जिससे आप हमारे नाटकों को समझें और आगे आप टिकट लेकर हमारा नाटक देखें। इस तरह कभी-कभी निःशुल्क नाटक दिखाकर हम नये दर्शक तैयार करते हैं। और हम आप पर टिकट की राशि भी उतनी ही डालते हैं जितनी हम खुद वहन कर सकते हैं।
अरविन्द जब यह बोल रहे थे मेरे बगल में बैठे साथ के दर्शक अभिभूत थे। उन्होंने बताया कि उन्हें अरविन्द के नाटक इतने पसन्द हैं कि वे इनके नाटकों का इंतज़ार करते हैं। मैंने पूछा आपने टिकट लेकर इनका नाटक देखा? तो उन्होंने कहा – हाँ टिकट लेकर देखा। सपरिवार देखा। आखिर हम फ़िल्म भी तो टिकट लेकर देखते हैं।
दिल्ली में यह माहौल ऐसे ही भरोसेमंद निर्देशकों के कारण बना है, जिन्होंने इतना अनमोल दर्शक वर्ग गढ़ा है। दर्शक भी निर्देशक को बेधड़क सलाह दे रहे थे और फूल भी भेंट कर रहे थे।

