हम जिस यथार्थ में रहते हैं, एक दिन अगर वह इतना असह्य हो जाये कि अपनी पीड़ाओं तक को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य हममें ना बचे? ऐसी स्थितियों के सामना करने के लिए कलाकारों के पास पर्याप्त साधन होते हैं। वह कम से कम इस स्थिति को अभिव्यक्त कर सकता है। अभिव्यक्ति के संसाधन कम पड़ने पर वह कला की सीमाओं का अतिक्रमण तक कर सकता है, नई विधाओं का आविष्कार कर सकता है।
हमारे दैनिक यथार्थ विरूपित हो जाएँ, हमारे संबंध अपने अर्थ खोने लगें और हम अधिनायकवादी संसार में जी रहे हों, हम पर लगातार सेंसर का शिकंजा कस रहा हो तो अभिव्यक्ति को भी ‘लीप ऑफ़ फ़ेथ’ की गरज होगी। हॉरर जॉनरा ऐसे ही किसी लीप ऑफ़ फेथ से निकला होगा। वर्णनातीत की अभिव्यक्ति। हॉरर के नाम पर आपको बहुत कुछ घिसा-पिटा देखने को मिल जाएगा लेकिन एक श्रेष्ठ हॉरर फ़िल्म देखने की इच्छा हो तो आपको आंद्रेज ज़ुलावस्की की ‘Possessions’ (1981) जरूर देखनी चाहिए। और हाँ, आपको ग्राफ़िक्स की अति के लिए तैयार रहना होगा। लेकिन इसमें वे सामान्य ग्राफ़िक्स नहीं हैं जिसे आप आमतौर पर देखने के आदी हैं।

वर्णनातीत की अभिव्यक्ति इसलिए क्योंकि इसके पात्र एक अधिनायकवादी विश्व के नागरिक हैं। यथार्थ इतना अधिक यातनाप्रद है कि उनके दैनिक जीवन तक से गायब है। वे अति-यथार्थ या असंभव यथार्थ में प्रवेश कर गए हैं जिसकी पृष्ठभूमि में सिर्फ़ और सिर्फ़ पागलपन है। मजबूरियाँ हैं, जो हमें पागल कर देती हैं। एक बार जब हम पागल हो जाएँगे तो स्वतंत्र होकर चीख सकते हैं, दहाड़े मारकर रो सकते हैं, अभिव्यक्ति की हर सीमाओं को तोड़कर ख़ुद को व्यक्त कर सकते हैं।
एक व्यक्ति है जो अपने पालतू कुत्ते की मौत से ऑब्सेस्ड है। वह जीवन की किसी दुविधा में होता है तो लगभग भनभनाते हुए पूछता है ‘वह कुत्ता अपने आख़िरी समय में पोर्च के नीचे क्यों घुसा था? क्या उसे वहाँ बचने की कोई आख़िरी उम्मीद दिखती थी?’ जब यह कुत्ता मरा तो वह एक बच्चा था। अब वह एक बच्चे का बाप है। उसकी पत्नी उसे छोड़कर चले जाना चाहती है। वह नहीं चाहता उसका जाना। उसे रोकने के हर संभव प्रयत्न करता है। वह एक पागलपन की हद तक पहुँच चुका है। एक आध्यात्मिक व्यक्ति है जिसे लगता है उसने ईश्वर को पा लिया है और अब वो स्वतंत्र हो चुका है। इन दोनों को लगता है कि वे अना को प्रभावित करके उसका दिल जीत सकते हैं। दोनों के अपने-अपने गुरूर हैं। हाइनरिख और मार्क और उनके बीच है अना।
लेकिन अना तो पलायन कर चुकी है। वह सबसे पलायन कर चुकी है। यथार्थ की यातनाएँ अब उसके लिए नहीं है। वह एक स्वप्न में चल रही है। एक लंबे अंतहीन स्वप्न में। इस स्वप्न में वह सब कुछ है जो उसे चाहिए। इस लंबे अंतहीन स्वप्न में कुछ बाधाएं हैं, मसलन उसका बेटा बॉब, उसका पति मार्क और उसका प्रेमी हाइनरिख। ये सभी एक जटिल और भयानक यथार्थ के जंजाल में फँसे हुए हैं।

फिल्मकार जुलावस्की का कहना है कि यह उनकी सबसे आत्मकथात्मक फ़िल्म है। इस फ़िल्म में कम्युनिस्ट अधिनायकवाद के दृश्य छटाओं पर अदृश्य होकर तैरते हैं। बर्लिन की दीवार टूट चुकी है मगर क्या लोगों के दिलों में जो दीवारें खड़ी हुईं थीं, वे भी गिर चुकी हैं? जी नहीं। यह विभाजन हर ओर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। चरित्रों के एक-एक एक्शन में।
और अना? अना तो कुछ और ही हो चुकी है। जैसा कि वह कहती भी है कि मैं स्वयं ईश्वर हूँ। वो ईश्वर है। उसने खोया है। उसने पाया है। उसने नष्ट किया है। उसने पैदा किया है। अना की भूमिका में इजाबेली अजानी का अभिनय अविस्मरणीय है। अगर आप हॉरर के प्रशंसक ना भी हों तो अजानी के शानदार अभिनय और अद्भुत सौंदर्य के लिए इस फ़िल्म को देखना चाहिए। अभिनय भी अगर अभिव्यक्ति है तो अभिव्यक्ति में ऐसी ईमानदारी और सच्चाई बहुत कम ही देखने को मिलेगी। असल में ऐसा अभिनय एक तरह का नंगापन है। अश्लील नंगापन नहीं बल्कि एक वल्नरेबल नंगापन। ख़ुद अभिनेत्री ने इस बात को स्वीकार किया है। मुझे लगता है दोस्तोएवस्की ने मानव स्थितियों का खुलासा करने के लिए अपने साथ जो क्रूरताएँ कीं, लगभग वैसी ही क्रूरता अजानी ने अना के किरदार को व्यक्त करने के लिए अपने साथ किया है।
यह बुखार, यह पागलपन, यह खुलापन बहुत कम संभव हो पाता है।

इन सभी जटिलताओं को कला की एक इकाई के रूप में बना पाना फिल्मकार के लिए एक उपलब्धि है। ख़ासकर वह फ़िल्म को जिस स्थिति में लाकर छोड़ता है, वह उसे एक अंत देने की जगह अनन्त की संभावनाओं तक लेकर जाता है। फ़िल्म को बंद करने की जगह खोलकर छोड़ देता है। बाद में इस तरह का पागलपन डेविड लिंच की फ़िल्मों में दिखाई ज़रूर देता है लेकिन वहाँ फिर भी इतना खुलापन नहीं है। उनके वहाँ पागलपन पर एक नियंत्रण दिखाई देता है।
यह फ़िल्म मुझे असग़र फरहादी की मशहूर फ़िल्म ‘A Separation’ की याद दिलाती है। मेरी राय में फरहादी की इस मशहूर फ़िल्म को हॉरर फ़िल्म ही कहना चाहिए। ऐसी फ़िल्में आदमी सिर्फ़ बुख़ार में बना सकता है, ऐसे बुखार में, जो ठीक होने का नाम नहीं लेता, ऐसा बुखार जो हमें घिसटता चलता है मानो किसी असीम पर ले जाकर हमें गुब्बारे की तरह फोड़ देगा।

आंद्रेज ज़ुलावस्की
फ़िल्म पति पत्नी के अलगाव के बारे में है लेकिन इस बिंदु पर वह जैसे अपने साथ समूचे कायनात को अपने आगोश में लेकर अपनी कहानी को बयान करता है। उसकी पीड़ा ब्रह्मांडीय बन जाती है। शायद कलात्मक अभिव्यक्ति की इससे बड़ी सफलता कुछ और नहीं।