पूरे देश के दिमाग में इन दिनों एक ही सवाल उभर रहा है। अबकी बार किसकी सरकार। बीजेपी को लगता है कि फिर एक बार मोदी सरकार। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जीत की हैट्रिक लगाएंगे। और ऐसी वैसी हैट्रिक नहीं लगाएंगे बल्कि चार सौ पार जाएंगे। इन चार सौ पार सीटों में अकेले बीजेपी के लिए 370 का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। लेकिन विपक्ष को लगता है कि ना, अबकी बार तो मोदी नहीं आएंगे। कांग्रेस नेता राहुल गांधी तो यहां तक कह रहे हैं कि पहले वो सोचते थे कि बीजेपी 180 सीटें जीतेगी, मगर अब लगता है कि वो 150 तक सिमट जाएगी। राहुल गांधी के इस आशावाद के पीछे क्या तर्क है, ये तो वही जानें लेकिन इस चुनाव में किन शर्तों पर किस पार्टी को कितनी सीटें मिल सकती हैं? किस समीकरण से किसके लिए क्या उम्मीदें बंध रही हैं, इसे जरा समझ लेते हैं।
सबसे पहले बीजेपी की इस उम्मीद पर बात कर लेते हैं कि क्या वो खुद 370 और उसके सहयोगियों को मिलाकर सीटें 400 पार जा सकती हैं। बीजेपी ने पिछले लोकसभा चुनाव में 303 सीटें जीती थी।
इसके लिए उसने गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों की सभी सीटें जीत ली थी यानी 77 की 77 सीटें। वही मध्य प्रदेश में 29 में 28, झारखंड में 11 में 9, उत्तर प्रदेश में 78 सीटें लडकर 62 सीटें, बिहार में 17 लड़कर 17 सीटें, झारखंड की 14 में से 11, असम में 14 में से 9 सीटें जीती थी। जबकि अभूतपूर्व तरीके से पश्चिम बंगाल की 42 में 18 यौर ओडिशा में 21 में 8 सीटें जीत ली थी। दक्षिण भारत की बात करें तो कर्नाटक में 28 में 25 और तेलंगाना में 14 में 4 सीटें जीती। महाराष्ट्र में 25 सीटें लड़कर 23 जीती थी।
बाकी उत्तर पूर्व भारत से लेकर दूसरे हिस्सों तक भी बीजेपी कुछ ना कुछ जीतती रही है। 2019 का चुनाव इसलिए भी अहम था कि बीजेपी ने ना सिर्फ अपना बेस वोट बढ़ाया बल्कि उन सीटों को भी जीता जहां पहले कभी जीत नसीब नहीं हुई थी। पश्चिम बंगाल में 16 और हरियाणा, तेलंगाना, ओडिशा और कर्नाटक में 3-3 सीटें बीजेपी ने पहली बार जीती थी। सबसे बड़ी बात ये थी कि एक वक्त ब्राह्मण और बनियों की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी में ओबीसी सबसे ज्यादा जुड़े। ये इसलिये भी मुमकिन हुवा कि ग्रामीण अंचलों में बीजेपी का वोट बेस काफी तेजी से बढ़ा है। साथ ही महिला वोट भी बीजेपी की झोली में जमकर गया। अब अगर बीजेपी चाहती है कि वो 303 के कांटे को 370 पर ले जाये तो ये तभी मुमकिन है जब 2019 के वोट इन्टैक्ट रहें और सीटें इसी तरह आएं। और तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में कम से कम 70 फीसदी सीटें वो जीत जाए।
लेकिन क्या ये आसान है? पिछले चुनाव में पुलवामा कांड के बाद देश में पाकिस्तान को लेकर आक्रोश खौल रहा था। फिर मोदी सरकार के पांच साल ही पूरे हुए थे। सरकार को लोग मौका देने के मूड में दिख रहे थे। मोदी सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड साफ सुथरा था। नोटबंदी वौर जीएसटी को भी लोगो ने नकारात्मक रूप से नहीं लिया। लेकिन इस बार दस साल राज करने के बाद सरकार को लेकर नाराजगी बढ़ी है, इसी भाव के साथ विपक्ष मैदान में है। अब अखिलेश भले कह रहे हैं कि यूपी में बीजेपी को 80 में सिर्फ एक सीट मिल सकती है और वो भी वाराणसी में पीएम मोदी की। और राहुल गांधी को भले लगता है कि पूरे देश में बीजेपी 150 पर सिमट जायेगी। लेकिन राहुल और अखिलेश को भी जन्नत की हकीकत पता है।
बीजेपी की छवि एक ऐसी पार्टी की बनी है जो अपने वादे को पूरा करती है। जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म करने के बीजेपी के बहुत पुराने वादे को मोदी सरकार ने पूरा कर दिया। उसी तरह अयोध्या में भी भव्य राम मंदिर का निर्माण भी मोदी सरकार के खाते में गया। 80 करोड़ लोगों को पांच किलो राशन के अलावा हर घर शौचालय, आयुष्मान भारत – स्वास्थ्य योजना और किसानों के खाते में सीधे पैसे से एक बड़ा लाभार्थी तबका तैयार हुआ है। वो लाभार्थी चुनाव में पीएम मोदी को लाभार्थी बना सकते हैं। बाकी काम अयोध्या, काशी, उज्जैन समेत तमाम मंदिरों के निर्माण और जीर्णोद्धार से प्रसन्न धर्मार्थी कर सकते हैं। और इन सबके ऊपर एक राष्ट्रीय नेता के रूप में जो प्रभाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है, वो किसी दूसरे समकालीन नेता का नहीं है। फिर भी जनता के मुड को भांपना आसान काम नहीं है।
बीजेपी के बारे में अलग अलग मीडिया रिपोर्ट, ग्राउंड रिपोर्ट और विश्लेषणों से पता चलता है कि कई राज्यों में बीजेपी की सीटें घट सकती हैं। उनमें हरियाणा, राजस्थान, बिहार, कर्नाटक और महाराष्ट्र का नाम लिया जा रहा है। उसकी वजहें भी गिनायी जा रही हैं। महाराष्ट्र में कहा जा रहा है कि शिवसेना और एनसीपी में टूट के बाद लोगों में उद्धव ठाकरे वौर शरद पवार के लिये सहानुभूति उमड़ी है। उसी तरह बीजेपी की छवि एक परिवार और पार्टी तोड़ने वाले दल की बनी है। साथ ही अजित पवार, छगन भुजबल, प्रफुल्ल पटेल जैसे नेताओं को उप मुख्यमंत्री बनाने से लेकर मंत्री बनाने तक पवित्र काम बीजेपी ने कर दिया। यानी जिन पर भ्रष्टाचार के बेहद गंभीर आरोप लगे, उनको ही सत्ता का प्रसाद बीजेपी ने दे दिया। उसी तरह इलेक्टोरल बॉन्ड से लेकर अग्निवीर जैसी योजनाओं पर अगर लोगों की नाराजगी वोटों में तब्दील हुई, तब बीजेपी के लिए बहुमत का आंकड़ा मुश्किल हो सकता है।
इसमें सबसे अहम फैक्टर उत्तर प्रद्रेश है। अखिलेश यादव और राहुल गांधी को आखिर ऐसा क्यों लग रहा है कि वो उत्तर प्रदेश में बड़ी जीत हासिल करेंगे। इसका एक बड़ा आधार विधानसभा चुनाव के नतीजे हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी और बीएसपी का गठबंधन फेल हो गया। लेकिन 2022 विधानसभा चुनावों में बगैर बीएसपी के समाजवादी पार्टी यूपी में बीजेपी के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। उसको 403 में 111 सीटें मिली थीं। यानी करीब 28 फीसदी सीटें समाजवादी पार्टी ने जीती। इसी आधार पर कहा जा रहा है कि लोकसभा में समाजवादी पार्टी को 22-24 सीटें तो मिल सकती हैं। और यदि इसमें एक-दो प्रतिशत वोट और जुड़ा तो आंकड़ा बढ़ भी सकता है। मतलब उत्तर प्रदेश में बीजेपी गठबंधन 50 या उससे भी कम पर सिमट सकता है। पर इस आधार पर जो भी विश्लेषण कर रहा है उसे ये ध्यान रखना चाहिए कि 2022 में समाजवादी पार्टी के साथ आरएलडी थी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर की पार्टी का साथ भी था। इस बार ये दोनों बीजेपी के साथ हैं। इसलिए इस संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता कि बीजेपी गठबंधन पिछली बार के नतीजों को दोहरा दे।
दूसरा अहम फैक्टर बिहार है। हाल के दिनों में बिहार में तेजस्वी यादव का ग्राफ बढ़ा है। और नीतीश कुमार की लोकप्रियता का ग्राफ बहुत गिरा है। नीतीश कुमार की तबीयत खराब है। इससे ये अनुमान लगाया जा रहा है कि बीजेपी और जदयू गठबंधन पिछली बार का करिश्मा नहीं दोहरा सकेगी। पिछली बात इस गठबंधन को 40 में 39 सीटें मिली थीं और बीजेपी के सभी 17 उम्मीदवार चुनाव जीत गए थे। लेकिन बहुत से जानकार ये दावा कर रहे हैं कि इस बार बीजेपी और जदयू गठबंधन को तगड़ा नुकसान होने जा रहा है। मगर यहां ये भी ध्यान रखने लायक बात है कि 2014 के चुनाव में जदयू के साथ के बिना बीजेपी गठबंधन ने बिहार की 40 में 31 सीटें जीत ली थीं और उनमें 22 सीटें अकेले बीजेपी की थीं। कुछ सीटों पर मुकाबला जरूर है, लेकिन बीजेपी को ज्यादा नुकसान होगा, इस अनुमान में बहुत दम नहीं लगता है। फिर भी कुछ नुकसान हो सकता है।
मतलब बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए की सीटें उत्तर प्रदेश और बिहार में घट सकती हैं। हरियाणा और राजस्थान में घट सकती हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी थोड़ा नुकसान होने की उम्मीद है। लेकिन आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सीटें बढ़ सकती हैं। तमिलनाडु और केरल में भी खाता खुल सकता है। मतलब महाराष्ट्र और कर्नाटक के नुकसान की भरपाई आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल से हो सकती है। उत्तर प्रदेश और बिहार के नुकसान की भरपाई पश्चिम बंगाल और ओडिसा से हो सकती है। ऐसा हुआ तो बीजेपी के आंकड़ों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। और यदि उत्तर प्रदेश और बिहार में बीजेपी गठबंधन को नुकसान नहीं हुआ तो बीजेपी की सीटें बढ़ भी सकती हैं। कम शब्दों में बीजेपी की सीटें 300 से 20 कम या 300 से 20 ज्यादा के बीच रह सकती हैं।
हांलाकि इस तरह के गणित चुनावों में नहीं चलते। हर सीट पर अलग से देखने पर लगता है कि मुकाबला है। मगर पिछली दो बार से जनता ऐसे सभी अनुमानों को गलत साबित करती आ रही है। पिछले दोनों चुनावों में उसने नरेंद्र मोदी को देख कर वोट दिया है। कम शब्दों में चुनावों में राजनीतिक गणित से ज्यादा धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक रसायन काम करते हैं। अब उसी रसायन की ईवीएम से 4 जून को वास्तविक नतीजे सामने आएंगे।