आजादी के वक्त जब अंतरिम सरकार बन रही थी तो मंत्रियों की लिस्ट लेकर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल महात्मा गांधी के पास पहुंचे। गांधी ने लिस्ट देखी और पूछा- इसमें आंबेडकर का नाम क्यों नहीं है। नेहरू पटेल एक दूसरे का मुंह देखने लगे क्योंकि दोनों ही आंबेडकर को मंत्रिमंडल में रखने के पक्षधर नहीं थे। दोनों का हिचकिचाहट भरा सामूहिक जवाब था कि बापू, डिप्रेस्ड क्लास यानी वंचित तबके से जगजीवन राम का नाम तो है ही मंत्रिमंडल में। गांधी ने पूरी दृढ़ता के साथ कहा कि ये कोटा मुझे मत समझाओ। इसमें आंबेडकर का नाम जोड़ो। वो बहुत योग्य व्यक्ति हैं। देश का भला होगा।
गांधी उस आंबेडकर को मंत्री बनाने की पैरवी कर रहे थे जो व्यक्तिगत तौर पर उनके घनघोर आलोचक थे। जिन्होंने गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन नहीं किया था और उस वक्त वायसराय की कौंसिल के सदस्य थे। फिर भी गांधी आंबेडकर को मंत्री बनाने के इसलिए हिमायती थे क्योंकि सवाल देश का था। देश की सामूहिक चेतना को विस्तार देने का था। मैंने ये प्रकरण इसलिए उठाया कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल सबसे ज्यादा किसी का नाम लेते हैं तो वो संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर हैं। लेकिन आंबेडकर के विचारों को नहीं मानते। मानना तो दूर, वोट बैंक की राजनीति में उसका आदर भी नहीं करते।
अरविंद केजरीवाल का भारतीय राजनीति में आना एक बड़ा चर्निंग और टर्निंग प्वाइंट था। उनकी राजनीति चार खंबों पर तैयार किसी किले के कंगूरे पर खड़ी थी। एक खंबा नैतिकता का था, दूसरा भ्रष्टाचार से जंग और ईमानदारी की स्थापना का, तीसरा सादगी और संयमित जीवन का और चौथा निष्ठा और विश्वास का। लेकिन 12-13 वर्षों में एक एक कर सारे पाए भरभराकर गिर गए और भारतीय राजनीति को एक ठगा हुआ विकल्प मिला।
अन्ना आंदोलन के वक्त अरविंद केजरीवाल महान आदर्शों की पृष्ठभूमि पर खड़े थे। ऐसा लगता था कि हमारा पूरा राजनीतिक सिस्टम नैतिक रूप से पतित हो गया है और उसको अन्ना हजारे और उनके चेले अरविंद केजरीवाल ही अपनी टीम के साथ स्वच्छ बना सकते हैं। तब वो कहा करते थे कि राजनीति एक कीचड़ है और हमें इस कीचड़ में उतरकर इसे साफ करना है। वो खुद पर और उनके किसी भी साथी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगते ही इस्तीफा देने की दुहाई देते थे लेकिन आज आजाद भारत में सत्ता के किसी पद पर बैठे किसी भी नेता ने जो काम कभी नही किया, वो काम केजरीवाल ने किया है। दूसरों से इस्तीफा मांगने वाले केजरीवाल शराब घोटाले में ईडी की तरफ से नाम आने और गिरफ्तार किए जाने के बाद भी इस्तीफा नहीं दे रहे हैं। वो कह रहे हैं कि संविधान में कहां लिखा है कि कोई मुख्यमंत्री जेल से सरकार नहीं चला सकता।
बात उनकी सही है और संविधान में ये लिखा नहीं है। लेकिन क्या संविधान में जो-जो बातें नहीं लिखी हैं, क्या वो सब की जा सकती हैं? क्या संविधान में नहीं लिखे होने की वजह से उन सभी बातों को जायज ठहराया जा सकता है?
अब बात उन्हीं बाबा साहेब आंबेडकर की आती है, जिनकी तस्वीर केजरीवाल की कुर्सी के पीछे लगी रहती थी और जिस कुर्सी पर इन दिनों उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल बैठती हैं। बाबा साहेब और संविधान के तमाम अन्य निर्माता उच्च राजनीतिक आदर्शो के प्रतिनिधि थे। उन्होंने तो यही सोचा होगा कि अगर उसूलों पर आंच आई तो हमारे नेता एक क्या सौ कुर्सियां छोड़ने के लिए तैयार रहेंगे। उनकी सोच गलत भी नहीं थी।
एक रेल दुर्घटना हुई तो लाल बहादुर शास्त्री ने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। जिस कांग्रेस के दम पर चंद्रशेखऱ की सरकार चल रही थी, उन्होंने इस बात पर इस्तीफा दे दिया था कि समर्थन देने वाली कांग्रेस ने लेखानुदान पर लोकसभा का बहिष्कार किया था। ये तो राजनीतिक सवाल पर दिए गए इस्तीफे थे। भ्रष्टाचार के आरोप में नेहरू सरकार के मंत्री केडी मालवीय से लेकर मनमोहन सरकार में नटवर सिंह तक का इस्तीफा हुआ। अपने शुरुआती भाषणों में जिस लालू यादव के भ्रष्टाचार का सवाल केजरीवाल अक्सर उठाते थे, उस लालू यादव ने भी चारा घोटाले में नाम आने के बाद इस्तीफा दे दिया था। जब इस्तीफा दिया था, तब तक उनके खिलाफ चार्जशीट भी नहीं आई थी।
ये दूसरी बात है कि आज केजरीवाल से लेकर लालू यादव तक एक ही गठबंधन में शामिल हैं। बात इस्तीफे की हो रही है तो लालू यादव के बाद तमिलनाडु में जयललिता से लेकर हाल में झारखंड के हेमंत सोरेन ने भी जेल जाने से पहले मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया है। लेकिन केजरीवाल ऐसा करने को कतई तैयार नहीं हैं। आखिर क्यों? वो कहते हैं कि उनको गलत तरीके से फंसाया गया है। हो सकता है कि उनकी बात सही हो। फिर जब तक दोषमुक्त नहीं हो जाते, तब तक के लिए तो पद छोड़ देते। लेकिन लोकतंत्र के कंधे पर अधिनायकवाद इसी तरीके से आ बैठता है। अब जेल में बंद हेमंत सोरेन भी कहीं पछता ना रहे हों कि काश, केजरीवाल को पहले जेल हुई होती तो उनसे प्रेरणा लेकर मैं भी जेल से ही सरकार चलाता। ऊंचे आदर्शों की बात करने वाले केजरीवाल ने एक खतरनाक और आपराधिक परंपरा की नींव डाली है कि जेल जाना पडे तो भी कुर्सी मत छोड़ो। और हां, अबकी बार केजरीवाल ने दिल्ली के लोगों से जनमत संग्रह भी नहीं कराया।
अब सवाल भ्रष्टाचार का। अन्ना आंदोलन के दौरान केजरीवाल सबको भ्रष्ट साबित कर रहे थे। बाद में नितिन गडकरी समेत कई नेताओं पर भ्रष्टाचार का अनर्गल आरोप लगाने के कारण केजरीवाल ने माफी तक मांगी थी। लेकिन आज शराब घोटाले में उनकी गर्दन फंसी है तो वो विक्टिम कार्ड खेल रहे हैं। कमाल की राजनीति है केजरीवाल साहब की। वो दिल्ली के लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सुविधा और दिल्ली के बच्चों और युवाओं को बेहतर शिक्षा बल्कि सर्वश्रेष्ठ शिक्षा की दुहाई देकर मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन शराब की दुकानें खोलने में लग गए। ये अद्भुत दलील है कि दिल्ली के अभिभावकों को वो शराब पिलाएंगे और फिर उनके खराब स्वास्थ्य का इलाज करेंगे और उनके बच्चो को पढ़ाएंगे भी। बर्बादी की बुनियाद पर बेहतरी का ख्वाब ऐसे ही दिखाया जाता है।
तीसरा सवाल सादगी का है। केजरीवाल का ढीला ढाला कुर्ता, थोड़े ऊपर तक चढ़ी पैंट, गले में मफलर और पैर में साधारण सी सैंडल…और इन सबके ऊपर वो पुरानी सी वैगर आर गाड़ी। क्या माहौल बना था। केजरीवाल ने ऐसा मोमेंटम बनाया मानो इस देश में सादगी के साथ नेता जीना ही नहीं चाहते थे और वो एक ऐसी सादगीपूर्ण सरकार बनाएंगे जिसका मुखिया दो कमरों के फ्लैट में रहेगा। लेकिन हुआ क्या। दिल्ली के उप राज्यपाल को विजिलेंस विभाग की तरफ से रिपोर्ट आई कि केजरीवाल ने अपने बंगले और कैंपस में बने दफ्तर के रिनोवेशन पर 52 करोड़ 71 लाख रुपए खर्च किए। इनमें से केजरीवाल के घर पर 33 करोड़ 49 लाख रुपए खर्च हुए जबकि कैंप ऑफिस पर 19 करोड़ 22 लाख रुपए खर्च हुए। पुराना बंगला गिराया गया और नया बंगला तैयार हुआ। आम आदमी पार्टी के नेता कहते हैं कि दूसरे नेता भी तो तड़क भड़क के साथ रहते हैं लेकिन वो भूल जाते हैं कि इसी तड़क भड़क के विरोध में दिल्ली और पंजाब के लोगों ने केजरीवाल पर भरोसा जताया था।
वो भरोसा टूटा। बल्कि वो भरोसा ही मेकिंग ऑफ केजरीवाल का चौथा खंबा था। अन्ना आंदोलन में जिन लोगों को केजरीवाल प्रोमिसिंग दिखे, जिन्होने केजरीवाल पर ऐतबार किया और उनको नेता बनाया, उनमें से ज्यादातर लोगों को केजरीवाल ने ठेंगा दिखा दिया। अपनी जेब से एक करोड़ रुपये देकर आम आदमी पार्टी को ख़ड़ा करने वाले मशहूर वकील शांति भूषण और उनके बेटे प्रशांत भूषण हों या योगेंद्र यादव। ऐसे लोग जो हर बात में केजरीवाल की हां में हां मिलाने की जगह उनको सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर सकते थे या भटकने नहीं दे सकते थे, उन लोगों को केजरीवाल ने रास्ते का पत्थर समझकर हटा दिया।
दूसरा विश्वास केजरीवाल दिल्ली की जनता का तोड़ते हुए दिख रहे हैं जिस तरह उनके जेल जाने के बाद आम आदमी पार्टी में अचानक सेंटर स्टेज पर और उसमें भी सेंटर चेयर पर उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल आ धमकी हैं। जेल से छूटकर आए केजरीवाल की पार्टी के संजय सिंह का कहना है कि सुनीता भाभी ही पार्टी में डिप्टी हैं। यानी अगर मुख्यमंत्री पद छोड़ना होगा तो सुनीता केजरीवाल दिल्ली की मुख्यमंत्री हो सकती हैं। 27 साल बाद राबड़ी देवी प्रकरण दोहराया जा सकता है। फर्क ये होगा कि वो मामूली पढी लिखी थीं और सुनीता केजरीवाल आईआरएस ऑफिसर रही हैं। लेकिन राजनीति में दोनों की एंट्री किचन से सीधे कैबिनेट के टॉप बॉस जैसी ही दिख सकती है। अगर सुनीता केजरीवाल मुख्यमंत्री बनती हैं तो वो ऐसा ही होगा जैसे शराब पीने की बुराई बताने वाला कोई आदमी खुद कहीं शराब के नशे में धुत पड़ा हो।
विश्वास का संकट कथनी और करनी से भी जुड़ा है। केजरीवाल अपनी कुर्सी के पीछे दीवार पर दो महापुरुषों की तस्वीर लगाते हैं। जब से जेल गए हैं, तब से बीच में उनकी सलाखों के पीछे वाली तस्वीर लग गई है। यानी एक तरफ बाबा साहेब आंबेडकर, दूसरी तरफ शहीद-ए-आजम भगत सिंह और बीच में केजरीवाल। लेकिन केजरीवाल के लिए ये दोनों महापुरुष सिर्फ दिखाने और वोट पाने के लिए हैं। आप देखिए कि इस वक्त आम आदमी पार्टी के राज्यसभा में दस सदस्य हैं। लेकिन इनमें एक भी दलित, आदिवासी और मुसलमान नहीं है। वहीं खुद केजरीवाल जिस जाति से आते हैं, उसके तीन सांसद हैं यानी तीस फीसदी। क्या इसी जातिवादी सोच के आधार पर केजरीवाल बाबा साहेब आंबेडकर के उस संघर्ष को अंजाम तक पहुंचाएंगे जिनमें दलितों के हितों की रक्षा हो। और क्या इसी तरह जातिवाद की कब्र पर वो उस समाजवाद का फूल खिलाएंगे जिसके गीत जेल में रहते हुए और फांसी के फंदे को चूमते हुए भगत सिंह गाया करते थे।
मुक्तिबोध की एक कविता है कि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है। ये सवाल केजरीवाल से पूछा जाना चाहिए कि उनकी पॉलिटिक्स क्या है। नोटों पर लक्ष्मी गणेश की फोटो लगाने की मांग करने वाले केजरीवाल शहीद भगत सिंह और डॉक्टर आंबेडकर के किस सर्वसमावेशी समाज की रचना कर रहे हैं। प्रश्न आग उगल रहे हैं और उत्तर में खामोशी की बर्फ पसरी हुई है।