1-
‘शिखरों पर
जिस को जाना था वह चला गया –
हाय मुझी पर पग रख
मेरी बाँहों से
इतिहास तुम्हें ले गया!
सुनो कनु, सुनो
क्या मैं सिर्फ एक सेतु थी तुम्हारे लिए
लीलाभूमि और युद्धक्षेत्र के
अलंघ्य अन्तराल में!
अब इन सूने शिखरों, मृत्यु-घाटियों में बने
सोने के पतले गुँथे तारों वालों पुल-सा
निर्जन
निरर्थक
काँपता-सा, यहाँ छूट गया – मेरा यह सेतु जिस्म।
– जिस को जाना था वह चला गया। ‘
2-
मान लो कि मेरी तन्मयता के गहरे क्षण
रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे –
तो सार्थक फिर क्या है कनु’
पिछले दिनों रंजन बंदोपाध्याय की दो महत्वपूर्ण बांग्ला किताबों के हिंदी अनुवाद सामने आये। इन दोनों किताबें का अनुवाद शुभ्रा उपाध्याय ने किया है और ये विश्वकवि गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के जीवन से सम्बंधित हैं। पहली पुस्तक ‘मैं रवीन्द्रनाथ की पत्नी’ में उनकी पत्नी की कथा-व्यथा है , तो दूसरी पुस्तक ‘कादंबरी देवी का सुसाइड नोट’ में उनकी भाभी की व्यथा-कथा । स्त्री जीवन को समझने की दृष्टि से ये दोनों ही किताबें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। यह आलेख दूसरी किताब पर केन्द्रित है।
ठीक कनुप्रिया की ही तरह इस किताब की नायिका कादंबरी कहती है-‘ मैं यदि तुम्हारे जीवन से क्षण भर के लिए हट जाऊँ तो जीवन-सागर में तुम सचमुच कूल किनारा खो दोगे… यदि कोई अन्य चेहरा तुम्हें अकस्मात दिख गया तो तुम लज्जा से मर जाओगे … मैंने इन बातों पर विश्वास कर लिया था…मैं क्योंकर विश्वास करूँ कि केवल कुछ महीनों में ही तुम इतना बदल जाओगे कि तुम यह लिख सकोगे -‘यहाँ से जाओ पुरातन, यहाँ नूतन क्रीड़ा आरंभ हुयी है।’
कनुप्रिया की राधा की तरह कादंबरी भी ‘कादंबरी देवी के सुसाइड नोट’ में अपने ‘ठाकुर पो’ अपने रवि से कुछ ऐसे ही सवाल बार-बार और लगातार करती दिखती है। उसके लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर का अपनी शादी के लिए हाँ कर देना, पिता क आज्ञा को सिर झुकाकर स्वीकार कर लेना, शादी कर लेना, सबकुछ एक अविश्वसनीय किन्तु सच था, जिसको गले के नीचे उतार लेना उनके लिए असंभव हुआ जा रहा था।
‘कादम्बरी देवी का सुसाइड नोट’ विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर की भाभी के त्रासद जीवन की मार्मिक कथा है। प्रेम हमेशा नैतिकता के दायरे में बंधा हो यह संभव नहीं। लेकिन अगर ऐसा हो सका तो प्रेम की राह में निरंतर आनेवाली कठिनाइयों भरे मार्ग का एक रोड़ा तो कम हो ही जाता है। और जहां ऐसा नहीं होता, दुश्वारियों की फेहरिस्त और लंबी हुयी जाती है। लेकिन दुनिया में कुछ ऐसे रिश्ते होते हैं जिन्हें न प्रमाण और सम्मान की जरूरत होती है, न समाज में अंगीकार किए जाने की आशा, पर वे होती हैं तो होती हैं और अपनी भव्यता और दिव्यता में सम्पूर्ण होती हैं, ठीक राधा कृष्ण के प्रेम की ही तरह। और ऐसे प्रेम को स्वीकार करने के लिए, उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखने के लिए, उसे महसूस करने के लिए बस एक सहानुभूतिपूर्ण स्नेही हृदय की जरूरत होती है न कि सामाजिक परिमाणों और उनकी तुष्टि की… …
कनुप्रिया और कादम्बरी की यह तुलना हो सकता है कुछ सुधि पाठकों को बेमानी जान पड़े, लेकिन मुझे इस किताब से गुजरते हुये लगातार कनुप्रिया की स्मृति आती रही। शायद यह इसलिए भी की राधा की तरह कादंबरी भी रवीन्द्रनाथ टैगोरे की बाल सखा थी, केलि सखा थी। दूसरा सामंजस्य दोनों के बीच यह रहा कि कादम्बरी और रवि का प्रेम भी राधा और कृष्ण की तरह परकीया प्रेम है। कादंबरी भी दूसरे पुरुष की वाग्दत्ता है, भले ही वह दूसरा पुरुष उनके पति का सगा भाई ही क्यूँ न हो…
दूसरी किताब जो इसे पढ़ते हुये लगातार याद आती है, वो है- सफिया अख्तर की जाँनिसार अख्तर को लिखी गयी चिठ्ठियों की किताब-‘ तुम्हारे नाम।‘ न सिर्फ फॉर्म के स्तर पर अपितु कथन और कहन के स्तर पर भी ये दोनों किताबें बहुत सन्निकट आ खड़ी होती हैं। इन किताबों से गुजरते हुये बार-बार यह प्रश्न मन में आता है कि चाहे कोई भी युग क्यों न हो, चाहे कैसा भी समय, हमेशा से ही क्यूँ स्त्रियों के लिए प्रेम ही उनकी दुनिया, उनका सबकुछ होता है; जिसके चुकते ही या चुक जाने पर उनके लिए यह जीवन अप्रासंगिक हो उठता है? जबकि पुरुषों के लिए उनके जीवन का वह एक अध्याय, एक मोड़ याकि प्रसंग भर। प्रेम से कहीं आगे और दीगर उनके सामने उनकी सारी दुनिया होती है। अन्य और अन्यान्य प्रेम संबंध भी…
कहते हैं अगर दिल में दर्द नहीं, प्रेम की पीड़ा नहीं तो आपकी रचनाओं में वह दुर्निवार आकर्षण, पाठकों को अपने मोहपाश में बांधे रखने की वह क्षमता आ ही नहीं सकती। रवीन्द्रनाथ की रचनाओं में यदि वह गहराई है, वह उदात्त मानवता, स्त्री पक्ष और प्रेम है तो इसका श्रेय बहुत हद तक कादंबरी को जाता है। कहते हैं कादंबरी देवी की मृत्यु के बाद रवीन्द्रनाथ गहरे अवसाद में चले गए थे। इस अवसाद से बाहर आने में उन्हें लंबा वक्त लगा- ‘चारों ओर पेड़, मिट्टी, पानी, सूरज, चंद्रमा सितारे पहले की ही तरह अचल बने रहे और फिर भी वह व्यक्ति जो वास्तव में वहाँ था, जो जीवन, मन और हृदय के साथ संपर्क के हजारों बिन्दुओं के माध्यम से, मेरे लिए और भी सच्चा था , बस वही…’ ऐंड्रूज़ को लिखे अपने खत में वे लिखते हैं- ‘she is my queen, has died and my world has shut against the door off its inner apartment of beauty which gives on the real taste of freedom.’ और जैसे कादंबरी देवी का मन पढ़ते हुये उन्होने यह भी लिखा, जैसे कि खुद वही उनसे कह रही हो–‘अगर मैं यहाँ से दूर चली जाऊँ, फिर भी याद रखना/ अगर पुराने प्यार को, प्यार के नए फंदे ने दबा दिया हो, मुझे फिर भी याद रखना। ‘(टोबू मोने रखो)
कादंबरी देवी रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियों कविताओं की सबसे बड़ी प्रेरणा रही थी। इतिहास कहता है कि टैगोर का लेखन कादंबरी देवी से काफी प्रभावित रहा। हर कलाकार के दिल में एक प्रेरणा होती है, जो उसे रचना के लिए उत्साहित करती है, उकसाती और बेचैन भी किए रहती है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के लिए वह प्रेरणा-उद्गम कादंबरी रहीं। टैगोर ने जितने भी प्रेम गीत रचे, या महिलाओं की जितनी भी पेंटिंग बनाई, उसके केंद्र में कादम्बरी ही रहीं। रवीन्द्र खुद कहते हैं- ‘13 से 18 वर्ष की आयु के बीच रचित और ‘शोइशब संगीत’ में संकलित सारे गीत उन्होने कादंबरी के लिए, उनके ही बगल में बैठकर लिखा था और उन स्नेहिल क्षणो की सभी यादें इन कविताओं में जीवित हैं।‘ 19 साल की उम्र में उन्होंने अपने गीतों की किताब उन्हें ही समर्पित की थी- ‘ तुम, जो मेरे जीवन का मार्गदर्शक पुंज हो’ ( तोमरई कोरियची जीबनर ध्रुवोतारा )।
यही नहीं उनकी यादों और उनकी कहानियों को उन्होने ‘चोखेरबाली’ और नष्ट-नीड़ (द ब्रोकेन नेस्ट) में उनके मृत्युपरान्त भी चित्रित किया। इसकी नायिका चारुलता को भी अपने पति के भाई से प्रेम हो गया था। कादंबरी की तारह चारुलता भी भरे पूरे परिवार में भी खुद को अकेली महसूस करती है। जिस पर परिवार कि महिलाओं का अंकुश ज्यादा है, स्नेह नहीं। कादंबरी का पति भी अपने व्यावसायिक उद्यम, शौक और सामाजिक गतिविधियों में इस तरह डूबा रहता है कि अपनी पत्नी को बिलकुल वक्त नहीं दे पाता।
उस समय बाल-विवाह का प्रचलन था। टैगोर का परिवार भी उच्च शिक्षित और संभ्रांत होने के बावजूद इन कुरीतियों से दूर नहीं हो सका था। कादंबरी देवी रवीन्द्रनाथ टैगोर के बड़े भाई ज्योतिन्द्र्नाथ टैगोर की पत्नी थी। परंपरा के अनुसार कादंबरी और ज्योतीन्द्र नाथ की उम्र के बीच एक बड़ा अंतराल था। कादंबरी के पति को थियेटर, संगीत, पेंटिंग आदि विभिन्न कलाओं का शौक था। इसके अलावे भी सामाजिक कार्यों और व्यापार में भी वे निर्लिप्त रहते थे। कादंबरी के लिए उनके पास न पर्याप्त वक्त था, न उस तरह का प्यार और सम्मान। कोलकाता के एक विद्वान ‘तीतिर गुहा’ लिखते हैं -‘यतीन्द्र्नाथ आईसीएस अधिकारी थे, अपने कामों में व्यस्तता के चलते वे कादंबरी को कम वक्त दे पाते थे। लिहाजा कादंबरी का ज्यादा समय रवीन्द्र के साथ बीतता था।‘ इसीलिए समवयस नन्ही कादंबरी भाभी से कहीं ज्यादा रवि की दोस्त बनकर रह गयी थी और यह दोस्ती युवा होते-होते और ज्यादा प्रगाढ़ होती गयी। अपनी किताब ‘छेबेलबाई’ ( बचपन के दिन) में वे कादंबरी के अपने घर में आगमन के दिनों की चर्चा करते हैं-‘ एक नयी दुल्हन घर में आई, उसके नाजुक भूरे हाथों पर सोने के कंगन हैं… मैं एक सुरक्षित दूरी से चारों ओर उसके चक्कर लगाता, लेकिन पास जाने की हिम्मत नहीं थी। वह घर भर के स्नेह का केंद्र थी और मैं एक उपेक्षित-अपमानित बच्चा … माँ के गुजर जाने के बाद मेरे सौभाग्य से नूतन बउठान को ही मेरे देखभाल और मन बहलाव का कार्यभार सौंपा गया। ‘ लगाव के कोमल तंतुओं से शुरू हुआ यह रिश्ता बड़ा ही अलग और अजीब सा रहा, रवीन्द्र कि जहां माँ नहीं रही थीं, वहीं कादंबरी संतानहीन। अपना सारा स्नेह, सारा दुलार वह रवीन्द्र पर ही उड़ेल देती थी और उड़ेलती रही। बदले में रवि से उन्हें वह आत्मीयता वह महत्ता और प्रतिष्ठा प्राप्त हुयी जोकि जोड़ासंको के उस घर में उन्हें आजीवन नहीं मिली। जहां वे हमेशा एक छोटे घर-परिवार की अशिक्षित याकि कम शिक्षित गंवार स्त्री की ही तरह देखी जाती रही।
यहाँ गौर करनेवाली एक बात और है- उपर्युक्त पंक्तियों में टैगोर खुद को ‘ उपेक्षित-अपमानित बच्चा कहकर संबोधित करते हैं, वो शाद इसलिए की वो अपने अन्य भाइओं की तरह डिगरीधारी नहीं थे, वो एक एसकेपीपीएल ड्रॉप आउट स्टूडेंट थे। रंग रूप के आधार पर भी परिवार में उन्हें कम के ब अतौर ही देखा जाता रहा। क्योंकि उनका रंग अपने अन्य भाई-बहनों और परिवारजनों की अपेक्षा दबा हुआ था। रवीन्द्रनाथ अपने माता-पिता की पंद्रहवीं संतान थे। सबसे छोटे शिशु। स्वाभाविक है कि अपने चौदह अनया बच्चों को [आलते-पालते माँ थक चुकी थी, सो रवि के हिस्से उनका कम स्नेह ही आया और वह स्नेह भी उनकी मृत्यु के साथ उनसे छीन चला।ऐसे में सहज है कि कादंबरी ही उनका एकमात्र संबल थी।
टैगोर का अपनी भाभी से यह मानसिक लगाव का रिश्ता परिवार वालों को बिलकुल मंजूर न था। यह वह दुखद भावनात्मक संबंध था, जिसे समाज भी कभी स्वीकार नहीं कर पाया। ठाकुर घराने के मुखिया, महर्षि देवेन्द्रनाथ ने अपनी बहू की आत्महत्या के एक-एक साक्ष्य को नष्ट कर देना अपरिहार्य समझा? उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व ने किसी भी सूचना को बाहर आने नहीं दिया। आनन फानन में सारे साक्ष्य मिटा दिए गए। महर्षि देवेन्द्र्नाथ टैगोर ने 22 वर्ष की उम्र में उनका रिश्ता 11 वर्षीय भवतारिणी देवी के साथ करवा दिया और कादम्बरी ने महज पच्चीस वर्ष की उम्र में अफीम खाकर आत्महत्या कर ली थी। वह भी तब जब रवींद्रनाथ के विवाह के केवल चार महीने हुए थे!
वह कादंबरी जिसका रवीन्द्रनाथ के व्यक्तित्व को गढ़ने में सर्वाधिक योगदान रहा था … इस शादी के होने से उसे ऐसा लगा था, मानो उन्होने अपने जीवन की सारी आशा, सारी उम्मीदें ही गुमा दी हो, अपने जीवन का सारा संबल ही जैसे खो दिया हो। क्योंकि उन्होंने अपना सबसे बड़ा समर्थन जो खो दिया था। संतानविहीन, उपेक्षित और अपनी एक अलग सोच रखनेवाली सशक्त कादंबरी का एकमात्र दोस्त, सखा, मार्गदर्शक, प्रेमी सबकुछ तो छिन गया था, इस एक विवाह के साथ …हालांकि आजीवन उनके दिल में बसी कादंबरी की याद ने कादंबरी के भीतर बसे उस भय को खारिज कर दिया था, लेकिन फायदा क्या था, कादंबरी नहीं थी अब …
कादम्बरी देवी ने आत्महत्या क्यों की थी? आत्महत्या कोई क्यूँ करता है, इसका कारण किसी और को पता ही नहीं होता सिवाय उस शख्स के। लेकिन मोटे तौर पर हम सब अपनी तरह से कयास जरूर लगाते रहते हैं। ऐसे लोग ज़िंदगी की सबसे बड़ी चाह-‘ चाहे जाने की चाह’ के शिकार हो जाते हैं। वे ज़िदगी से हारनेवाले लोग नहीं होते, बल्कि एक बेहतर ज़िंदगी की चाहना रखनेवाले लोग होते हैं। वे अपने सामने खड़ी बदशक्ल ज़िंदगी से चिढ़े हुये और नाराज लोग होते हैं। जिनके मन में एक बेहतर ज़िंदगी की आशा होती है, जो बार-बार कौंधकर उनके ज़िंदगी की बदशक्लियत को और ज्यादा बदरंग करती होती है। ये वो लोग होते हैं जिनके पास ज्यादा गहरी आँखें होती हैं। ज्यादा संवेदनशील मन होता है। बंजर और बहरे और अंधे हो चुके समाज के लोग जिसे न देख पाते हैं और न ठीक से समझ ही पाते हैं। गौर से अगर हम देखेँ तो आत्महत्या असल में प्रेम और सहानुभूति पाने का आखिरी प्रयास होती है। कादम्बरी देवी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। रवींद्रनाथ के विवाह ने उन दोनों के बीच के सारे संबंध–सूत्रों को जैसे छिन्न-भिन्न कर दिया था, कादंबरी पहले से भी कहीं अधिक एकाकी और असहाय हो गयी थी। पति, संतान, गोद ली हुयी पुत्री कोई तो ऐसा नहीं बचा रह गया था उसके जीवन में जिसके लिए उसे जीना था। जिसके लिए वो जीना चाहती। इसके बाद कादम्बरी का जीवित रहना असम्भव हो गया था- ‘ठाकुर पो संतान न होने का सारा दायित्व, सारी अक्षमता ही मेरे मत्थे मध दी गयी, कोई चिकत्सकीय परीक्षण न हुआ। मुझे बांझपन की बदनामी ढोनी पड़ी…’
‘ठाकुर पो, इन दो वर्षों में मैं यह बात भली-भांति जान गयी थी, तुम्हें बिना पाये मेरे लिए जीवित रहना असंभव है। इतनी पीड़ा हो सकता है नहीं होती, यदि मेरी कोई संतान होती…उसके सहारे ही शायद बाकी जीवन बिता लेती।‘
‘मेरे प्राण- प्रिय रवि, दिवसावसान अभी संध्या की ओर अग्रसर है। मेरे जीवन का अंतिम सूर्यास्त और अन्तिम संध्या है। स्मृतियों की विद्युत इस आंधी-तूफान में कौंध-कौंध जा रही… उर्मिला (दत्तक पुत्री) तबतक शांत हो चुकी थी, उसकी जरा सी जान निकलने में ज्यादा समय नहीं लगा था। तभी से स्वयं के समक्ष बड़ी अपराधी हो गयी हूँ। स्वयं को ही जिम्मेदार मानती हूँ। मेरे पाप के कारण ही उर्मिला को मारना पड़ा। ठाकुर पो तुम्हारे प्रति मेरा यह प्यार अन्याय है अन्याय। एक दिन उर्मि को मरना पड़ा, आज मुझे मरना पड़ रहा है। शायद तुम भी कष्ट पाओगे, आजीवन तहस-नहस रहोगे।‘
कादम्बरी की मृत्यु के सवा सौ साल से भी अधिक समय बाद प्रकाशित यह उपन्यास मानव-मन के न जाने कितने ऐसे अंधेरे कोनो की पड़ताल करता है, जो अनदेखे ही रह जाते हैं। भय-असुरक्षा, प्रेम की कमी ऐसे तमाम मुद्दों पर भी खुलकर बात करता है जो मानव-मन और उससे भी ज्यादा कहीं स्त्री- मन की विवशता हैं। यह कादम्बरी देवी की मृत्यु के इतने सालों बाद उन अंधेरी कोठरियों में कोई एक रोशनदान खोलने का प्रयत्न तो करता ही है, यही नहीं तमाम छिन्न-भिन्न और क्षीण सूत्रों को एकत्र करते हुये अनगिनत अनुत्तरित प्रश्नों को आत्मीय व्याकुलता से समझने सुलझाने की एक राह भी ढूढ़ता और बनाता चलता है! और हम इस एक घटना के बहाने उस पूरे समय की सीवन को उधेड़ कर देख पाने की कोशिश कर पाते हैं ।
एक प्रश्न यह भी है कि अपने प्रिय कवि की दिनचर्या को अहर्निश दुहराने वाला बंगाल इतनी बड़ी बात को आखिर कैसे भूल गया! छोटी से छोटी बात की तह तक बिना पहुंचे न थमने वाला खोजी बंगाली मन आखिर क्यों जोड़ासांको के भव्य प्रासाद की इन गुत्थियों को यूं ही छोड़ देता या जाने देता रहा? बंगाल के विख्यात ठाकुर घराने की इस भयानक घटना का कहीं कोई जिक्र नहीं? यह प्रश्न भी कम प्रासंगिक नहीं। तो उसकी यह चुप्पी चुप्पी क्योंकर थी, इसके भी तमाम कारण है। सबसे बड़ा कारण तो यही था कि सिर्फ बंगाल ही नहीं अपितु समस्त भारतवर्ष को विश्व मानचित्र पर महिमामंडित करनेवाले उस अलौकिक रचनाकार, चित्रकार, गायक और कला साधक की छवि को वहाँ के लोग उनके युवा दिनों की इस विह्वल-प्रेमगाथा के आलोक में धूमिल, दूषित और धूसरित नहीं करना चाहते थे! इसलिए उन्होने इस किताब को नजरंदाज किया। इसे कपोल-कल्पित मान लिया। वे कहते हैं-‘रंजन बन्द्योपाध्याय हमेशा से ही ऐसा करते हैं। उनका काम है महान लोगों की ज़िंदगी के कुछ सांकेतिक लेकिन सनसनीखेज मसलों को उठाकर उस पर किताबें लिखना।‘ वे लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि बांग्ला में इन दो उपन्यासों को कोई महत्व नहीं मिला। वह तो हिन्दी-जगत है जो इसे हाथों हाथ लिए फिर रहा। उनका यह विनम्र अनुरोध है, कि इस किताब को इतनी गंभीरता से न लिया जाये। तो पहली बात यह कि बंदोपाध्याय कहीं भी इस किताब को इतिहास या इतिहास की किताब नहीं कहते, वे इसे जीवनी भी नहीं कहते, वे इसे उपन्यास कहते हैः तो इस तरह उन्हें विषयवस्तु के साथ छूट लेने की, आजादी के साथ उसे बरतने की, काल्पनिकता को उसमें शामिल करने की पूरी छूट है।
तो उनके यह तर्क कहीं-न-कहीं अपने प्रिय और महान की छवि के टूटने और उसके विध्वंस को लेकर है, यह बहुत आसानी से समझ में आ जाने वाली बात है। इसके लिए वे एक बड़ा भावुक सा तर्क भी देते हैं- ‘रवीन्द्रनाथ के जीवन में कितनी ही नारियां आईं, परन्तु क्या रवीन्द्रनाथ खुद किसी के पास चलकर गये थे? वृक्ष की छांव में सभी ठहरते हैं, हरा-भरा वृक्ष हो तो निहारते भी हैं। पर क्या वृक्ष उनके साथ चलता है?’ तो फिर कवीन्द्र दोषी कैसे हुये, वे दोषी हो ही नहीं सकते। कादंबरी का ही मन कच्चा था। वे ही मन-ही-मन रवीन्द्र के स्नेह और सहानुभूति को प्रेम मानती और समझती रहीं। जबकि रवीन्द्र ऐसा नहीं सोचते थे। यदि ऐसा ही होता तो वे अन्यत्र शादी ही क्यूँ करते।’ एक पल को अगर हम यह बात मान भी लें तो सुनील गंगोपाध्याय के ‘प्रथम आलोक’ को भी इसी तरह खारिज किया जाना इस समाज की सोच को ही प्रश्नांकित करता है, जिससे यह साफ तौर पर स्पष्ट हो जाता है कि मामला यहाँ प्रमाणिकता-अप्रमाणिकता का, सच-झूठ का तो बिलकुल नहीं, बस छवि- सृष्टि और उसके पूजन मात्र का है।
सच तो यही है कि इन तमाम तर्कों का खोखलापन और कच्चापन इसमें साफ झलकता है, सच तो सिर्फ यह है कि बंगाल के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार श्री रंजन बंदोपाध्याय की यह विवादास्पद कृति प्रिय-अप्रिय, सच-झूठ के खांचे से परे स्त्री मन के एकाकीपन, उसके दुखों, भव्य प्रासादों के बीच के ढोंगों-ढकोसलों और उसमें फंसी प्यार को तरसती एकाकी स्त्री के दुख को बड़ी बेरहमी लेकिन पूरी सचाई से उजागर करती है। यही नहीं वह बाल-विवाहों के दुष्परिणामों को भी सांकेतिक रूप से उजागर करती है, फिर वह चाहे रवीन्द्रनाथ टैगोर की माँ की असामयिक मृत्यु के कारण के रूप में हो, या फिर कादंबरी के रवि से लगाव और उसकी आत्महत्यात्मक परिणति में या फिर भारत के पहले आईसीएस सत्येन्द्र्नाथ टैगोर की पत्नी मेजोबऊ ठकुराईन ‘ज्ञानदानंदिनी’ की कादंबरी के पति ज्योतिंद्र्नाथ से अत्यधिक सन्निकटता। इन सबके बीच उम्र एक मूल कारक रहा, समवयसता वहाँ सम्बन्धों की आधारभूमि और पृष्ठभूमि तैयार करती रही।