नई दिल्ली: दिल्ली की सड़कों पर पैदल चलना अब सुरक्षित नहीं रहा है। एक नए शोध के अनुसार, दिल्ली की हवा में नैनोकणों की मात्रा बेहद अधिक है और ये कण सीधे हमारे फेफड़ों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। अहमदाबाद के भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला और दिल्ली प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के एक संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि सड़क किनारे नैनोकण की उच्च मात्रा फेफड़ों में जमा हो जाते हैं जो गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा कर सकते हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, अध्ययन से पता चला है कि दिल्ली में पैदल चलने वाले हर दिन लगभग 10-18 मिलियन नैनोकणों के संपर्क में आते हैं। सड़क किनारे इन कणों की सांद्रता यातायात से दूर क्षेत्रों की तुलना में 30% अधिक होती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अल्ट्राफाइन (बेहद सूक्ष्म) कण, जो कुल कण संख्या का 60-80% तक योगदान करते हैं, पीएम2.5 और पीएम10 की तुलना में अधिक नुकसानदेह हैं। अध्ययन में बताया गया कि साल भर में, दिल्ली के लोग 0.5 से 1 अरब नैनोकणों के संपर्क में आते हैं।
नैनोकणों फेफड़ों में प्रवेश कर स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालते हैं
नैनोकणों का आकार मानव बाल से 500 गुना छोटा होता है, जिससे वे फेफड़ों के गहरे हिस्सों में प्रवेश कर सकते हैं। ये कण रक्त प्रवाह में घुलकर शरीर के विभिन्न हिस्सों, यहां तक कि मस्तिष्क तक पहुँच सकते हैं। अध्ययन के अनुसार, सड़क किनारे काम करने वाले लोग, जैसे पुलिसकर्मी, स्ट्रीट वेंडर, ड्राइवर और डिलीवरी कर्मी, इन कणों के प्रति अधिक संवेदनशील हैं।
दिल्ली के रोहिणी जिले में किया गया अध्ययन
यह अध्ययन दिल्ली के रोहिणी जिले में किया गया और इसमें सभी मौसमों के दौरान मानव श्वसन प्रणाली पर नैनोकणों के प्रभाव का विश्लेषण किया गया। शोध दल में दिल्ली प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर राजीव कुमार मिश्रा, भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला के प्रोफेसर एस. रामचंद्रन, और शोधकर्ता कनगराज राजगोपाल शामिल थे। राजीव कुमार मिश्रा ने कहा, दिल्ली जैसे शहर के सटे आवासीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग इन कणों के अधिक संपर्क में आते हैं।
शोधकर्ताओं ने क्या सुझाव दिया?
शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया कि इंजन और यातायात स्रोतों से नैनोकणों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए तत्काल नीतियां बनाई जानी चाहिए। साथ ही, सड़क किनारे रहने वाले और काम करने वाले लोगों के जोखिम को कम करने के लिए विशेष उपाय करने की आवश्यकता पर बल दिया गया। यह अध्ययन एल्सेवियर जर्नल में प्रकाशित हुआ और वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रभावी कदम उठाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण योगदान माना जा रहा है।