श्रीनगर से नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के लोकसभा सांसद आगा रुहुल्लाह मेहदी हाल में कुछ मायनों में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के एक तरह से पार्टी में ‘समकक्ष’ के रूप में उभर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में मेहदी ने विभिन्न मुद्दों पर ऐसी-ऐसी राय व्यक्त की है जो उमर अब्दुल्ला और उनके पिता फारूक अब्दुल्ला के रुख से अलग है। मेहदी ने अक्सर ऐसी बातें कही हैं जो उनकी छवि को स्वतंत्र विचारों वाले नेता के रूप में पेश करती हैं। साथ ही उनकी बातें कई बार पार्टी पर अब्दुल्ला परिवार के दबदबे को चुनौती देती भी प्रतीत होती हैं।
नेशनल कॉन्फ्रेंस की स्थापना लगभग एक सदी पहले दिवंगत शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने की थी। उनकी स्थापित परंपरा और परिवार को अब तक चुनौती नहीं दी गई है। शेख के बाद उनके बेटे डॉ. फारूक अब्दुल्ला पार्टी में नंबर एक के रूप में उभरे और वर्तमान में उन्होंने अपने बेटे उमर को अपनी विरासत के उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त कर दिया है। हालांकि, शिया सांसद रूहुल्लाह जिन्हें बडगाम में जबरदस्त समर्थन प्राप्त है, अक्सर पार्टी के भीतर और बाहर अब्दुल्ला पर कटाक्ष करते पाए जाते हैं।
उमर अब्दुल्ला पर ‘केंद्र का आदमी’ होने का लगाया आरोप
उमर के ‘केंद्र का आदमी’ होने के रुहुल्लाह के आरोपों को खारिज करते हुए डॉ. अब्दुल्ला ने कहा कि उनका बेटा लोगों का सीएम है। उन्होंने कहा. ‘वह (उमर) किसी के निर्देश पर काम नहीं कर रहे हैं। लेकिन हमें केंद्र से नहीं लड़ना चाहिए।’ उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि एनसी सरकार को बीजेपी सरकार के साथ काम करने की जरूरत है, भले ही वह बीजेपी के साथ न हो।
यहां ये जानना भी जरूरी है कि अब्दुल्ला परिवार को पार्टी में आखिरी गंभीर चुनौती शेख की मृत्यु के बाद करीब चार दशक पहले 1984 में जीएम शाह से मिली थी। शाह फारूक की बहन खालिदा के पति थे और उन्होंने जीवन भर शेख के साथ काम किया। हालाँकि, जब फारूक ने पार्टी की कमान संभाली तो शाह ने विद्रोह कर दिया। शाह को उम्मीद थी कि उत्तराधिकारी वे बनेंगे। हालांकि, शाह पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच बहुत अधिक समर्थन और स्वीकार्यता हासिल नहीं कर सके।
अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 और 35-ए के निरस्त होने के बाद रूहुल्लाह ने जम्मू-कश्मीर की 1953 से पहले की उस स्थिति की बहाली की भी बात की, जब शीर्ष कार्यकारी पद शेख के पास था, और जिन्हें जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री कहा जाता था। उस जमाने में गवर्नर की जगह सद्र-ए-रियासत होता था। जाहिर तौर पर रुहुल्ला केंद्र सरकार के खिलाफ सख्त रुख अपनाकर पार्टी कार्यकर्ताओं और कट्टरपंथियों के बीच समर्थन हासिल करने की उम्मीद कर रहे हैं।
केंद्र से टकराव से अब तक बचते रहे हैं सीएम उमर अब्दुल्ला
दूसरी ओर मुख्यमंत्री बनने के बाद उमर अब तक व्यावहारिक रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या केंद्र के खिलाफ किसी भी टकराव की स्थिति से बचते रहे हैं। उन्होंने मोदी सरकार से केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए बार-बार मांग की है। केंद्र की ओर से भी आश्वासन मिलते रहे हैं। उमर सार्वजनिक मंचों से यह बात भी खुलेआम कहते रहे हैं कि एक समय वह भारत के सबसे शक्तिशाली मुख्यमंत्री हुआ करते थे लेकिन आज शायद सबसे कमजोर मुख्यमंत्रियों में से एक है। इसके बावजूद उन्होंने केंद्र सरकार के खिलाफ खड़ा होने से सावधानीपूर्वक परहेज किया है।
रुहुल्ला अनुच्छेद 370, अनुच्छेद 35-ए और जम्मू-कश्मीर की तथाकथित विशेष स्थिति पर एक सख्त रुख अपनाने की वकालत करते रहे हैं। वह अक्सर कहते हैं कि उमर के नरम रुख को दरकिनार कर ये मुद्दे लड़ने लायक हैं। इस बीच पूरे मुद्दे पर जारी बहस में उमर के पिता फारूक अब्दुल्ला ने यह कहा है कि एनसी सरकार केंद्र के साथ कोई टकराव नहीं चाहती है। उन्होंने कहा है कि यह जरूरी है क्योंकि जम्मू-कश्मीर के पास पर्याप्त धन नहीं है। दूसरे शब्दों में उन्होंने स्वीकार किया वह मोदी सरकार की उदारता पर निर्भर हैं।
फारूक अब्दुल्ला के बयान के क्या मायने?
कुल मिलाकर डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने परोक्ष रूप से अपनी पार्टी के कैडरों, सांसदों, विधायकों से कह दिया है कि रुहुल्ला के रुख के बावजूद उमर केंद्र के प्रति अपने कथित नरम रुख को नहीं बदलेंगे। हालांकि, अब्दुल्ला और रुहुल्ला की बयानबाजी स्पष्ट रूप से उनके बीच दरार को दिखाती है। यह जम्मू-कश्मीर के भविष्य को लेकर नेशनल कॉन्फ्रेंस के भीतर तनाव का भी संकेत दे रही है। इससे पहले आरक्षण नीति को लेकर उमर और रुहुल्ला के बीच पहले ट्विटर पर बहस हुई थी। रुहुल्लाह ने इस मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व भी किया था।
एनसी के भीतर से किसी भी अन्य पार्टी नेता ने रुहुल्लाह का पक्ष नहीं लिया है, जिससे यह संकेत मिलता है कि कोई भी पिता-पुत्र की जोड़ी का गुस्सा भड़काने का जोखिम नहीं उठाना चाहता। दूसरे स्तर पर, अगर रुहुल्ला खुद को अपने आप में एक नेता के रूप में पेश करने के बारे में सोचते हैं, तो उनका शिया होना एक अलग नुकसान साबित हो सकता है। जम्मू-कश्मीर में अभी तक यह एक अलिखित नियम है कि शीर्ष नेतृत्व वाले हमेशा सुन्नी होंगे, भले ही वे कुछ शक्तिशाली शिया नेताओं को अपने सहयोग के लिए शामिल कर सकते हैं।
अनुच्छेद 370, 35-ए की बहाली और यहां तक कि 1953 से पहले की स्थिति का जिक्र करने के संबंध में रुहुल्लाह के कठोर शब्दों ने उन्हें जरूर सुर्खियों में ला दिया है। इसके अलावा, उनके शब्दों का कोई खास असर होने की संभावना नहीं है क्योंकि अब्दुल्ला हर कदम पर उन्हें कमजोर करने की क्षमता रखते हैं। अब्दुल्ला की तीन पीढ़ियाँ एनसी पर हावी रही हैं और यह जल्द संभव भी नहीं है कि पार्टी पर वे अपनी पकड़ ढीली कर देंगे।