करीब 14 साल की उम्र और महज आठ गीतों की मौजूदगी के बावजूद मास्टर मदन भारतीय संगीत इतिहास में अमर हो गए। जन्मजात विलक्षण संगीत प्रतिभा के मामले में मास्टर मदन की तुलना मोजार्ट, शॉपेन, कुमार गंधर्व, येहुदी मेनुहिन जैसों से ही की जा सकती है।
मास्टर मदन की छोटी सी जिंदगी के लेकर अनगिनत किस्से हैं। उनकी मृत्यु आज भी रहस्यों के घेरे में है। वरिष्ठ फिल्म समीक्षक राजकुमार केसवानी ने लिखा है, “उस दौर में मास्टर मदन के बारे में हक़ीक़त से ज़्यादा अफ़वाहें ही प्रचलित थीं। मसलन यह कि उनकी अद्भुत गायकी से जलने वाले किसी गायक ने उसे पारा खिला दिया, ज़हर दे दिया। वगैरह-वगैरह।”
मास्टर मदन का जन्म 28 दिसंबर, 1927 को पंजाब के तत्कालीन जालंधर जिले के खानखाना गांव में हुआ था। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार खानखाना गांव मुगल शासक अकबर के नौ रत्नों में शामिल अब्दुल रहीम खानखाना ने बसाया था।
मास्टर मदन के संगीत रसिक पिता सरदार अमर सिंह सरकारी नौकरी में थे. उनकी मां पूरन देवी, बड़ी बहन शांति देवी (मदन से 14 साल बड़ी) और बड़े भाई मास्टर मोहन (मदन से 13 साल बड़े) भी संगीत के जानकार थे।
सांस्कृतिक इतिहासकार प्राण नेविल के अनुसार पिता की नौकरी के कारण मास्टर मदन का परिवार ज्यादातर समय शिमला और दिल्ली में रहा। मास्टर मदन की शुरुआती पढ़ाई शिमला के सनातन धर्म स्कूल में हुई थी।
1930 में साढ़े तीन साल की उम्र में मास्टर मदन ने अपना पहला कार्यक्रम हिमाचल प्रदेश के धरमपुर सैनिटोरियम में पेश किया था। उनकी बड़ी बहन शांति देवी के अनुसार उनके गायन को सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए।
संगीत जगत में एक विलक्षण प्रतिभा के उदय की खबर अगले दिन अखबारों में प्रमुखता से छपी। इसके बाद उनका नाम पूरे देश में जंगल की आग की तरह फैल गया. उनके इस प्रदर्शन की गूंज की पहुंच का पता इससे भी चलता है कि दक्षिण भारत के अखबार ‘द हिंदू’ ने भी उनकी तस्वीर के साथ खबर प्रकाशित की थी।
बहुत जल्द ही उन्हें पूरे देश की रियासतों और रेडियो स्टेशनों से कार्यक्रम पेश करने के निमंत्रण आने लगे। नतीजन मास्टर मदन अपने भाई मोहन के साथ लगातार संगीत कार्यक्रमों के सिलसिले में दौरे पर रहते थे।
प्राण नेविल बताते हैं कि मास्टर मदन औसतन महीने में 20 कार्यक्रम पेश करते थे. वो स्थानीय कार्यक्रमों के लिए 20 रुपये फीस लिया करते थे। बाहरी जिलों के कार्यक्रमों के लिए उन्हें 80 रुपये फीस मिलती थी।
मास्टर मदन उम्र में कम होने के बावजूद बहुत आध्यात्मिक स्वभाव के थे। वो बहुत कम बोलते थे। बकौल राजकुमार केसवानी मास्टर मदन आम बच्चों के विपरीत खेलकूद से दूर ही रहते थे।
मास्टर मदन ने सात साल की उम्र में पंडित अमर नाथ से संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की थी। पंडित अमर नाथ फिल्म कंपोजर जोड़ी हुस्नलाल-भगतराम के बड़े भाई थे।
केसवानी के अनुसार मास्टर मदन ने पंडित अमर नाथ के अलावा गुसाईं भगवत किशोर, ज़हीर हैदर, सरदार हुसैन, रमज़ान ख़ान और तालिब हुसैन जैसे संगीतकारों से भी तालीम ली थी।
मरणोपरांत संगीत जगत में मास्टर मदन को सर्वाधिक ख्याति करीब आठ साल की उम्र में रिकॉर्ड करवायी गयी अपनी दो गजलों से मिली। 1935 में रिकॉर्ड हुई इन दोनों गजलों ‘हैरत से तक रहा है जहाने वफा मुझे’ और ‘यूं न रह रह कर हमें तरसाइए’ के लेखक सागर निज़ामी थे। इन गजलों की धुन उनके गुरु पंडित अमर नाथ ने ही दी थी।
अब मास्टर मदन के आठ गाने ही उपलब्ध हैं। इनमें दो गजलें, दो ठुमिरयां, दो सबद(गुरबानी) और दो पंजाबी गीत शामिल हैं।
प्राण नेविल लिखते हैं कि 1931 से 1942 के बीच ढेर सारे रेडियो कार्यक्रमों में प्रदर्शन करने वाले मास्टर मदन के गीतों का गायब हो जाना त्रासद है।
मास्टर मदन की दो उपलब्ध गज़लों के मेयार को आप इससे समझ सकते हैं कि जब मशहूर म्यूजिक कंपनी एचएमवी ने गज़ल गायक जगजीत सिंह की निगहबानी में ‘गज़लों का सफर’ सीडी कलेक्शन जारी किया तो उसमें उनकी ये दोनों गज़लें शामिल थीं। महज दो गजलों से बालक मदन धुरंधर गायकों के बीच जगह बना सका उसकी प्रतिभा का इससे बड़ा क्या प्रमाण होगा।
प्राण नेविल के अनुसार मशहूर गायक केएल सहगल जब शिमला में नौकरी करते थे तो वो अक्सर मास्टर मदन के घर जाया करते थे। सहगल और मास्टर मदन के बड़े भाई मास्टर मोहन मिलकर संगीत का रियाज किया करते थे।
सहगल हारमोनियम बजाते थे और मास्टर मोहन वायलिन. जब वो दोनों गाते-बजाते थे तो तकरीबन दो साल के मदन उन्हें चुपचाप सुना करते थे। बाद में वो अपनी मौज में वही गीत गुनगुनाया करते थे।
सतीश चोपड़ा के अनुसार 1940 में जब महात्मा गांधी शिमला गए तो उनके कार्यक्रम में बहुत कम लोग आए क्योंकि ज्यादातर लोग मास्टर मदन के एक कार्यक्रम में गए हुए थे।
मास्टर मदन ने अपना आखिरी कार्यक्रम कलकत्ता में पेश किया था। उन्होंने राग जौनपुरी में ‘विनती सुनो मोरी अवधपुर के बसैया’ गाया था। राजकुमार केसवानी के अनुसार उनकी डेढ़ घंटे की गायकी ने श्रोताओं पर ऐसा जादू किया कि कार्यक्रम के बाद सारी भीड़ उन्हें उनके गेस्ट हाउस तक छोड़ने साथ गई थी।
दिल्ली रेडियो स्टेशन में एक कार्यक्रम के दौरान मास्टर मदन की तबीयत अचानक बिगड़ गयी। उन्हें इलाज के लिए शिमला ले जाया गया लेकिन वो फिर से सेहतयाब न हो सके। 5 जून, 1942 को भारतीय संगीत जगत के इस अप्रतिम सितारे ने फानी दुनिया को अलविदा कह दिया।
उनके निधन से स्तब्ध शिमला में सारा कारोबार बंद हो गया। उनकी शवयात्रा में हजारों संगीतप्रेमी शामिल हुए। कहना न होगा, भारत में उनसे पहले और उनके बाद ऐसी संगीत प्रतिभा दूसरी न हुई। और शायद ये कहना भी उन्हें कम करके आंकना होगा।