साल 2002 में जम्मू-कश्मीर के विधान सभा चुनाव में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने 87 में से केवल 16 सीटें जीती थीं। फिर भी, दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के बाद मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस को 20 सीटें मिली थी। उन चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) ने 28 सीटें जीती थीं लेकिन उसे विपक्ष में बैठना पड़ा।
इसके बाद 2008 के विधान सभा चुनावों में एनसी ने फिर से 28 सीटें जीतीं लेकिन उस समय तक कांग्रेस ने पीडीपी से नाता तोड़ लिया था। इसने एनसी के साथ गठबंधन किया और पीडीपी को बाहर रखते हुए गठबंधन सरकार बनाई।हालांकि, इस बार पीडीपी के पास 2002 की तुलना में 5 अधिक यानी 21 विधायक थे। बहरहाल, मई 2009 में शोपियां में आसिया और नीलोफर नाम की दो महिलाओं के साथ कथित बलात्कार और हत्या की घटना सामने आई। इसके बाद पीडीपी ने पूरे मुद्दे को जोरशोर से उठाया और उमर अब्दुल्ला की सरकार तब मुश्किल में नजर आई।
जब गिरी महबूबा मुफ्ती की सरकार
इसके बाद 2014 में पीडीपी ने विधानसभा चुनावों में 28 सीटें हासिल कीं और भाजपा के साथ गठबंधन करके सरकार बनाई। अब 2018 की शुरुआत में जाएं, तो रेसाना बलात्कार और हत्या मामला हुआ। पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती द्वारा की गई बेहद उग्र बयानबाजी आखिरकार उस साल के जून में उनके पतन का कारण बनी। उन दिनों में उनका सबसे विवादित बयान तिरंगे को लेकर था। उन्होंने कहा था कि ‘तिरंगे को कोई कंधा देने वाला नहीं होगा।’ जाहिर तौर भाजपा-पीडीपी गठबंधन के दौरान महबूबा मुफ्ती को संतुष्ट करने के लिए, भाजपा ने अपने उपमुख्यमंत्रियों और कई मंत्रियों को बदल दिया था। इससे संभवत: महबूबा का मनोबल बढ़ा और एक तरह से कहें तो उन्होंने आरएसएस के फैसलों का गलत अनुमान लगाया।
साल 2024 में पीडीपी 90 सदस्यीय सदन में केवल तीन विधानसभा सीटें जीतकर और सिमट गई है। विधानसभा में एनसी के 42, भाजपा के 28 और कांग्रेस के छह सदस्य हैं। विधानसभा में पीडीपी की यह हार कम से कम 2029 के अंत में होने वाले अगले चुनाव तक बनी रहेगी। हालांकि, पीडीपी अब अपने पुराने तरीकों पर लौट रही है। वह बयानबाजी के जरिए और कश्मीर के नाजुक हालात, जलवायु परिवर्तन आदि का हौव्वा खड़ा कर रही है।
सैटेलाइट कॉलोनियों की योजना के बारे में बात करते हुए महबूबा ने आरोप लगाया है कि ये नाजुक पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डालेंगी। उन्होंने कहा कि इसका पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) किया जाना चाहिए। यह सारी बयानबाजी मूल रूप से अस्तित्वहीन मुद्दों को उठाने के उद्देश्य से है। यह सबकुछ एक तरह से कश्मीरियों के बीच भय का माहौल बनाने की कोशिश है, जो पीडीपी के लिए समर्थन जुटाने का मूल आधार भी रहा है।
पंचायत और शहरी स्थानीय निकायों चुनाव पर नजर
पीडीपी की इस सारी बयानबाजी का उद्देश्य आने वाले दिनों में पंचायत और शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) चुनावों में बेहतर स्कोर हासिल करना है। वहीं, सीएम उमर अब्दुल्ला के लिए चुनौती दो स्तरों पर है, एक तो जम्मू-कश्मीर के अब तक के सबसे कमजोर मुख्यमंत्री के रूप में छवि बनने की बात और दूसरा एलजी सिन्हा की शक्तियों से निपटना।
नवंबर में श्रीनगर में आयोजित विधान सभा के पांच दिवसीय सत्र में, पीडीपी ने अनुच्छेद 370 की बहाली, राज्य का दर्जा और अन्य मुद्दों पर एनसी को पहले ही घेरने की कोशिश करके पूरे मामले को लगभग हाईजैक कर लिया था। ये और बात है कि उमर ने पीडीपी द्वारा उनके लिए बिछाए गए जाल में फंसने से इनकार किया और उस परिस्थिति से अच्छी तरह उबरने में कामयाब रहे। पीडीपी और पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (पीसी) के सज्जाद लोन जैसे अन्य लोगों की आलोचनाओं को नजरअंदाज करना एनसी की अब तक की रणनीति रही है।
साल 2024 के विधानसभा चुनावों में, दोनों क्षेत्रों के बीच विभाजन स्पष्ट रूप से नजर आया। इसमें जम्मू ने भाजपा के लिए और कश्मीर ने एनसी के लिए मतदान किया था। 2014 में भी यह क्षेत्रीय विभाजन स्पष्ट था जब भाजपा ने जम्मू में सभी 25 सीटें जीतीं थी। वहीं पीडीपी ने 28 सीटों पर जीत हासिल की थी। इनमें से अधिकांश कश्मीर में थीं। जो लोग घड़ियाली आंसुओं को दिखाकर इस विभाजन पर विलाप करते हैं, उनके लिए बेहतर होगा कि वे इसे जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक जमीनी हकीकत के रूप में स्वीकार करें।
महबूबा मौजूदा समय में भले ही राजनीतिक नखरों में लिप्त हो सकती हैं। उनके सहयोगी भी उनकी उग्रता से प्रेरित हो सकते हैं, लेकिन निकट भविष्य के लिए पीडीपी का पूर्ण हाशिए पर जाना एक वास्तविकता है और ये बनी रहेगी।
खबरों से आगे: उमर सरकार और एलजी मनोज सिन्हा के बीच टकराव क्यों लगभग तय है?