हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 के नतीजे मीडिया और सोशलमीडिया के डोमिनेटिंग नरेटिव के अनुरूप नहीं आये। भाजपा ने 48 सीटों पर जीत प्राप्त कर के अपना ही 10 साल पुराना 47 सीटों का रिकॉर्ड तोड़ दिया। भाजपा की हरियाणा में यह अब तक की सबसे बड़ी जीत है। कांग्रेस की सीटें भी पिछली बार के 31 से बढ़कर 37 हुईं हैं मगर वह 46 सीटों का बहुमत प्राप्त करने के मामले में भाजपा से पीछे रह गयी। किसान आन्दोलन और पहलवान आन्दोलन की पीठ पर सवार कांग्रेस को चुनावी लाभ तो हुआ मगर उतना नहीं, जितनी उसने उम्मीद की होगी।
राजनीतिक दलों के लिए चुनाव परिणाम के लाभ-हानि से अलग एक पत्रकार होने के नाते, मेरी राय में हरियाणा चुनाव ने एक बार फिर से देश की तीन संस्थाओं की पोल फिर से खोल दी है। ये तीन संस्थाएँ हैं- एग्जिट पोल, मीडिया और सोशलमीडिया। मीडिया और सोशलमीडिया का मूल काम है, जनमत तैयार करना है।
चुनाव परिणाम आने से पहले तक एग्जिट पोल वाले हरियाणा में कांग्रेस को बम्पर जीत दिला रहे थे। ज्यादातर एग्जिट पोल वालों ने कांग्रेस को 50 से ज्यादा सीटें पाने का अनुमान जताया था। वहीं मीडिया और सोशलमीडिया के ज्यादातर महारथियों ने भी इस ढर्रे पर चुनाव परिणाम के अनुमान जताये थे। परिणाम बिल्कुल उलट आये। मात्र चार महीने पहले ही लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम से पहले भी इन तीनों संस्थाओं की क्षमता पर गम्भीर सवाल उठे थे।
एग्जिट पोल की उपयोगिता
एग्जिट पोल अब एक उद्योग बन चुका है। इसके दुरुपयोग को लेकर भी आशंका व्यक्त की जाती रही है। सट्टा बाजार, शेयर बाजार में इसके दुरुपयोग के अलावा इसका एक बड़ा कुपरिणाम ये देखने को मिलने लगा है कि एग्जिट पोल अगर वास्तविक परिणाम से उलट हों तो हारने वाला दल एग्जिट पोल से बनी हवा के आधार पर चुनाव परिणाम को खारिज करने लगती है। हरियाणा चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने पत्रकारों से कहा कि यह परिणाम जमीनी हकीकत के उलट है! बुरी तरह चुनाव हारने के बाद भी जमीनी हकीकत के ज्ञाता होने का अहंकार जयराम जी को शायद इसीलिए हुआ क्योंकि एग्जिट पोल ने हवा बना रखी थी कि कांग्रेस आ रही है।
चुनाव हारने के बाद परिणाम को स्वीकार करने के मामले में भाजपा का रुख कांग्रेस से बेहतर दिखता है। शायद लम्बे समय तक विपक्ष में रहने के कारण भाजपा हार को लेकर ज्यादा सहज है, कांग्रेस अभी तक इस मानसिकता से नहीं निकल पायी है कि देश की सत्ता की एकमात्र दावेदार वही है। लोकसभा चुनाव के पहले एग्जिट पोल वालों ने जिस तरह का माहौल बनाया था, उसका लाभ लेते हुए भाजपा भी कह सकती थी कि जमीनी हकीकत से उलट नतीजे हैं मगर उसने ऐसा नहीं कहा।
भाजपा, कांग्रेस या अन्य दलों का रवैया चाहे जो हो, हम आम जनता के मन में भी एग्जिट पोल से जगी आशा-निराशा से उपजे कुप्रभाव को नजरअंदाज नहीं कर सकते। जनता का एक वर्ग उसकी इच्छा के उलट परिणाम आने पर एग्जिट पोल के आधार वह यह मान सकता है कि परिणाम में कुछ गड़बड़ की गयी है। राजनीतिक दल सत्ता की हवस में ऐसी चीजों को हवा भी दे सकते हैं। ऐसे में यह प्रबुद्ध समाज का दायित्व है कि इसके प्रति जागरूकता पैदा करे और एग्जिट पोल की उपादेयता पर बहस चलाये। मीडिया के लिए एग्जिट पोल कन्टेट क्रिएट करने के जरिया होंगे, मगर प्रबुद्ध समाज को किसी भी परिघटना के समेकित परिणाम पर विचार करके राय बनानी चाहिए।
मीडिया कवरेज का खोखलापन
लोकसभा चुनाव 2024 के बाद हरियाणा चुनाव 2024 ने भी साबित किया है कि मुख्यधारा की मीडिया को जमीनी हकीकत का पता नहीं चल रहा है। वह गाजे-बाजे के साथ एक शोर पैदा कर रही है मगर परिणाम मीडिया द्वारा किये जा रहे दावों से काफी अलग आ रहे हैं। मीडिया पर चन्दा लेकर रुझान सेट करने के आरोप पहले से लगते रहे हैं। आजकल उसपर पत्रकार के बजाय वकील की तरह बरताव करने का आरोप लग रहे हैं जिसे एक टीवी एंकर गोदी मीडिया कहते हैं। ये अलग बात है कि खुद उन्हें ही गोदी मीडिया का प्रतीक पुरुष माना जाता है।
कायदे से इसे गोदी मीडिया के बजाय वकील मीडिया कहना चाहिए जो खबर देने के बजाय वकालत (एडवोकेसी) करने में यकीन रखता है। अमेरिका और ब्रिटेन के नामी अखबार भी चुनाव से पहले यह स्पष्ट करते हैं कि वे किस दल को समर्थन दे रहे हैं। फर्क ये है कि भारत में यह पारदर्शिता गायब है। मगर फिलहाल हमारी चिन्ता पत्रकारों के वकील बनने को लेकर नहीं है बल्कि इन पत्रकार रूपी वकीलों के लगातार विफल रहने को लेकर है।
जिस तरह खुद को स्वतंत्र बताने वाला मीडिया जमीनी कवरेज में जनता का मन भाँपने में विफल रहा, उसी तरह नामी चेहरे भी अपने-अपने दल की ढपली बजाते रहे और उन्हें जमीनी सचाई का पता नहीं चला। हरियाणा चुनाव में उसी इलाके के रहने वाले एक इंग्लिश एडिटर परिणाम आने के दो दिन पहले ‘दीवार पर लिखी इबारत’ पढ़ रहे थे मगर नतीजे आने के बाद उनके सुर बदल गये। इससे पता चलता है कि न केवल रिपोर्टर बल्कि चर्चित जानकार भी जमीन से कट चुके हैं।
पत्रकार या एडिटर, भविष्य वक्ता नहीं होते। उनका अनुमान परिणआम से 10-20 प्रतिशत इधर-उधर हो सकता है मगर किसी का अनुमान परिणाम से 70-80 प्रतिशत दूर हो तो उसे अनुमान नहीं तुक्का कहा जाएगा, जो कभी-कभी लग भी जाता है। किसी भी विश्लेषक का मूल्यांकन उसके पिछले पाँच-सात अनुमान के आधार पर लगाया जाना चाहिए। एकाध बार किसी का तुक्का बैठ सकता है तो कोई एकाध बार गलत भी साबित हो सकता है।
सोशलमीडिया की कुकुरझौं
मीडिया की उम्र काफी पुरानी है। संस्थागत मीडिया की उम्र करीब 300 साल हो चुकी है। मीडिया का सबसे नया रूप सोशलमीडिया बिल्कुल नया है। करीब दो से तीन दशक के सफर में सोशलमीडिया ने परम्परागत मीडिया (प्रिंट, रेडियो, टीवी और न्यूजसाइट) को बराबर की टक्कर दी है। कुछ मामलों में यह परम्परागत मीडिया पर भारी भी है, उदाहरण के लिए युवाओं के बीच लोकप्रियता को देख सकते हैं।
सोशलमीडिया के महारथियों को इन्फ्लुएंसर कहा जाता है। हजारों-लाखों-करोड़ों लोग इन्हें सोशलमीडिया पर सीधे तौर पर फॉलो करते हैं। इनमें कई पत्रकार भी हैं। चुनाव के दौरान सोशलमीडिया महारथियों की भूमिका बढ़ जाती है। कई सियासी दल इनसे अपना प्रमोशन भी करवाते हैं। सामान्य जनता की तरह ज्यादातर सोशलमीडिया महारथी भी इस या उस दल के शुभचिन्तक, समर्थक या सदस्य होते हैं।
चाहे किसी भी दल के समर्थक सोशलमीडिया महारथी हों, चुनाव दर चुनाव यह साबित हो रहा है कि उनकी स्थिति भोंपू जैसी हो चुकी है। उनके पास अपना कोई सूचना तंत्र नहीं है और न ही स्वतंत्र विवेचना करने वाला विवेक है। सोशलमीडिया महारथियों को लोग अब ‘बुद्धिजीवी’ की भूमिका में देखने लगे हैं मगर इनके चुनावी आकलन में किसी मौलिक अंतर्दृष्टि या विश्लेषण का अभाव दिखता है।
चुनाव दर चुनाव यह साबित होता जा रहा है कि सोशलमीडिया पर सुचिंतित मत कम और कुकुरझौं ज्यादा हो रही है। आम जनता अब अपनी राजनीतिक उत्तेजना स्खलित करने के लिए सोशलमीडिया का इस्तेमाल भले करती रहे, मगर उसपर भरोसा शायद ही करे।