वरिष्ठ कांग्रेस नेता रविंदर शर्मा ने जम्मू-कश्मीर में उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को पांच विधायकों को नामित करने के लिए दी गई शक्तियों की कड़ी आलोचना की है। जाहिर है इससे विधान सभा में विधायकों की कुल संख्या बढ़कर 95 हो जाएगी, जबकि चुनाव में 90 विधानसभा क्षेत्रों के लिए सूबे के लोगों ने वोट डाले थे। इन मनोनीत विधायकों के पास सदन की सभी कार्यवाही में वोट देने के अधिकार सहित दूसरी विधायी शक्तियां भी होंगी।
इसका मतलब यह होगा कि विधानसभा में पूर्ण बहुमत के लिए किसी पार्टी या गठबंधन को 48 सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता होगी। चूंकि विधानसभा में निर्वाचित सदस्यों की संख्या 90 है, इसलिए शुरू में यह गलत गणना की गई कि पूर्ण बहुमत के लिए 46 विधायकों के समर्थन की जरूरत है। कांग्रेस नेता रविंदर शर्मा सहित नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के कुछ नेताओं ने मनोनीत विधायकों की व्यवस्था को ‘अलोकतांत्रिक और अनैतिक’ सहित लोकतंत्र की भावना का उल्लंघन करार दिया है।
कांग्रेस नेता का कहना है कि यह भाजपा को दिया गया एक अनुचित लाभ है क्योंकि वोट की गिनती से पहले ही उनके पास पांच विधायक हो गए थे। बता दें कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं और एनसी-कांग्रेस के गठबंधन ने अभी बहुमत के लिए जरूरी 48 सीटें जुटा ली हैं। एनसी को सबसे ज्यादा 42 सीटें मिली। वहीं, कांग्रेस को 6 सीटें मिली हैं। बीजेपी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है और उसे 29 सीटों पर जीत मिली हैं।
विधानसभा में मनोनीत सदस्य को लेकर क्या है नियम?
सवाल है कि मौजूदा नियमों के अनुसार किसी केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभा में विधायकों को मनोनीत करने के संबंध में क्या असल स्थिति क्या है? जम्मू-कश्मीर के बाहर किसी और राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में मनोनीत विधायकों को क्या अधिकार दिए गए हैं? यह सब समझने के लिए हमें अतीत में थोड़ी और गहराई में जाना होगा। इसे समझने के लिए हमें किसी केंद्र शासित प्रदेश में विधायिका की शुरुआत करने की प्रक्रिया को देखना होगा और जब हम ऐसा करना शुरू करते हैं, तो हमारा ध्यान सबसे पहले पुडुचेरी की ओर जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह पहला केंद्र शासित प्रदेश था, जहां विधायिका स्थापित हुई।
किसी केंद्र शासित प्रदेश में विधायिका बनाने का प्रावधान केंद्र शासित प्रदेश सरकार अधिनियम, 1963 (UT Act, 1963) कानून के तहत लाया गया था। इसलिए हम कह सकते हैं कि जम्मू-कश्मीर के एलजी मनोज सिन्हा ऐसी शक्तियों का प्रयोग करने वाले पहले शख्स नहीं हैं, क्योंकि यह व्यवस्था संविधान में पिछले छह दशक से ज्यादा समय से है। इस कानून में कुछ भी नया नहीं है जो कि कभी कांग्रेस सरकार द्वारा किया गया संवैधानिक संशोधन ही था।
केंद्र शासित प्रदेश सरकार अधिनियम, 1963 के तहत यह निर्दिष्ट किया गया था कि पुडुचेरी विधानसभा में 30 निर्वाचित विधायक और तीन मनोनीत विधायक होंगे। यूटी अधिनियम, 1963 को तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने संसद में पेश किया था और यह केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी के लिए एक विधायिका बनाने के लिए लाया गया था।
कांग्रेस की मंशा तो पूर्ण मनोनीत विधायिका बनाने की थी…
दिलचस्प बात ये है कि उस समय की कांग्रेस सरकार का प्रारंभिक प्रस्ताव यह था कि एक पूर्ण मनोनीत विधायिका बनाई जाए। जाहिर है इसमें विधान सभा क्षेत्रों को बनाने सहित चुनाव का कोई प्रावधान नहीं था। हालांकि, तत्कालीन सरकार को जब कड़े विरोध का सामना करना पड़ा, तो वह 30 निर्वाचित और 3 मनोनीत विधायकों को रखने वाली विधायिका बनाने के लिए मजबूर हुई।
इस तरह 100 प्रतिशत मनोनीत विधानसभा रखने की बजाय कांग्रेस ने यूटी विधायिका में 10 प्रतिशत नामित विधायक रखने का निर्णय लिया। अब यदि वर्तमान केंद्र सरकार ने कांग्रेस सरकार द्वारा स्थापित पैटर्न का पालन किया होता, तो वह एलजी मनोज सिन्हा को 9 विधायकों को नामित करने की शक्तियां दे सकती थी, क्योंकि जम्मू और कश्मीर में 90 विधानसभा क्षेत्रों के लिए चुनाव हुए हैं।
इस तरह यह स्पष्ट है कि केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभा में विधायकों को नामित करने की एलजी की शक्तियां 1963 में कांग्रेस द्वारा स्थापित पैटर्न पर ही आधारित हैं। जुलाई 2023 में पुनर्गठन अधिनियम-2019, जिसके तहत जम्मू-कश्मीर एक केंद्र शासित प्रदेश बना, उसमें संशोधन कर पांच विधायकों को नामित करने की शक्तियां एलजी को दी गईं। यह संशोधन मूल कानून पारित होने के 60 साल बाद किया गया। जाहिर है केंद्रीय गृह मंत्रालय उस समय केवल पुडुचेरी यूटी मॉडल का ही पालन कर रहा था। यूटी विधानसभा में मनोनीत विधायकों के संबंध में प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 239ए में देखे जा सकते हैं।
अपने बनाए कानून को ही अनैतिक बता रही कांग्रेस: भाजपा
भाजपा प्रवक्ता अरुण गुप्ता ने कांग्रेस द्वारा पैदा किए जा रहे इस अनावश्यक शोर-शराबे को लेकर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस यूटी विधानसभा में मनोनीत विधायकों का प्रावधान लेकर आई थी और यह छह दशकों से अधिक समय से चला आ रहा है। भाजपा नेता ने कहा कि अब कांग्रेस उसी कानून की प्रक्रिया को अलोकतांत्रिक और अनैतिक बताकर जनता को गुमराह करने की कोशिश कर रही है।
संविधान के अनुच्छेद 239ए के तहत किसी केंद्र शासित प्रदेश की विधायिका आंशिक रूप से निर्वाचित और कुछ मनोनीत सदस्यों पर आधारित रह सकती है। इस व्यवस्था को 1963 में कांग्रेस सरकार द्वारा ही संविधान में शामिल किया गया था। भाजपा प्रवक्ता अरुण गुप्ता ने कहा कि केंद्र शासित प्रदेश में किसी विधायिका में निर्वाचित और मननीत सदस्यों को शामिल किया जाना एक स्थापित मानदंड है और कांग्रेस ने इस मौजूदा कानून में किसी भी बदलाव की मांग कभी भी नहीं की और न ही एक शब्द इसके खिलाफ बोला। उन्होंने कहा कि अब कांग्रेस पार्टी अचानक जाग गई है और लगता है कि अपने ही किए को नकारते हुए सभी को गुमराह करने की कोशिश कर रही है।
संसद के संबंध में भी इसी तरह के प्रावधान का हवाला देते हुए भाजपा नेता ने कहा कि राष्ट्रपति राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि इन निर्वाचित सदस्यों को भी समान रूप से संसद में मतदान का अधिकार प्राप्त होता है, सिवाय इसके कि वे राष्ट्रपति के चुनाव में वोट नहीं कर सकते।
कांग्रेस को अपना इतिहास भी देखना चाहिए
यदि हम संवैधानिक इतिहास में और पीछे जाएं तो पाते हैं कि अगस्त 1947 में आजादी के बाद संविधान बनाया गया था और राज्यों को पार्ट ए, बी, सी और डी में वर्गीकृत किया गया था। एक दशक बाद राज्यों का पुनर्गठन हुआ और पार्ट सी और डी वाले राज्यों को केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) में विलय कर दिया गया। इन केंद्र शासित प्रदेशों का प्रशासन तब सीधे तौर पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार चलाती थी। इसके बाद केंद्र शासित प्रदेशों को अधिक शक्तियां सौंपने और इस संबंध में सिफारिशें करने के लिए तत्कालीन कानून मंत्री अशोक कुमार सेन के तहत एक समिति नियुक्त की गई थी।
इसके बाद अनुच्छेद 239ए आया जिसने संसद को केंद्र शासित प्रदेशों के लिए विधायिका बनाने की शक्ति दी। शुरुआत में सरकार का प्रस्ताव संविधान के अनुच्छेद 240 के समान था, जो ‘पार्ट सी’ राज्यों के प्रशासन को नियंत्रित करता था। यही अनुच्छेद केंद्र सरकार को एक ऐसी विधायिका बनाने का भी विकल्प देता था जो पूर्ण रूप से मनोनीत सदस्यों से बनी हो।
इस प्रस्ताव को लोकसभा में कड़े विरोध का सामना करना पड़ा और सदस्यों ने केंद्र शासित प्रदेशों में पूर्ण मनोनीत विधायिका के प्रस्ताव का विरोध किया। इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री ने उनके सुझाव को स्वीकार किया और अनुच्छेद 239ए में प्रावधान किया गया कि केंद्र शासित प्रदेशों के लिए बनाई गई विधायिका या तो पूरी तरह से निर्वाचित हो सकती है, या फिर आंशिक रूप से नामित और आंशिक रूप से निर्वाचित हो सकती है।
पुडुचेरी का 2018 का मामला…सुप्रीम कोर्ट में जब पहुंची थी बात
साल 2018 में पुडुचेरी के तीन विधायकों के नामांकन को मद्रास उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। यह तर्क दिया गया कि केंद्र सरकार ने उन्हें विधानसभा में नामित करने से पहले पुडुचेरी सरकार से परामर्श नहीं किया। पुडुचेरी में तब वी. नारायणसामी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी। उच्च न्यायालय ने उस समय तीन भाजपा सदस्यों के नामांकन को बरकरार रखने का फैसला सुनाया। इसके बाद फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई।
मामले में दिसंबर 2018 में शीर्ष अदालत की तीन जजों की पीठ ने कहा कि सदस्यों को नामांकित करने से पहले पुडुचेरी सरकार के साथ किसी परामर्श की आवश्यकता नहीं थी। (case- के लक्ष्मीनारायणन बनाम भारत संघ और अन्य, 2018)
कोर्ट ने इस बात पर भी विचार किया कि क्या मनोनीत सदस्यों के पास बजट और सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में वोट करने का अधिकार होना चाहिए। यह माना गया कि 1963 का कानून निर्वाचित और मनोनीत विधायकों के बीच अंतर नहीं करता है, इसलिए उन्हें निर्वाचित विधायकों के बराबर ही मतदान की शक्तियां प्राप्त हैं, और उन्हें अविश्वास प्रस्तावों में भी वोट करने का अधिकार है।
आप द स्टेट्समैन (दिल्ली), द टाइम्स ऑफ इंडिया (दिल्ली और जम्मू में), द इंडियन एक्सप्रेस, स्टार न्यूज, दैनिक भास्कर और नई दुनिया जैसी मीडिया संस्थानों के साथ काम कर चुके हैं। जम्मू-कश्मीर से संबंधित मुद्दों में गहरी रुचि रखते हैं और यहां से जुड़े मुद्दों को लेकर कुछ किताबें भी लिख चुके हैं।)