1947 में भारतीय सेना के जवान 27 अक्टूबर को श्रीनगर पहुँचना शुरू हुए, जिन्हें तथाकथित कबायली हमलावरों को दूर रखने के लिए दिल्ली से हवाई मार्ग से लाया गया था। यह महाराजा हरि सिंह द्वारा भारत के साथ विलय पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर करने के एक दिन बाद हुआ था। लेकिन हकीकत में यह हमला जनजातियों ने नहीं, बल्कि पाकिस्तानी सैनिकों और अधिकारियों ने “जनजातियों” के रूप में भेष बदलकर किया था। इन्हीं लोगों ने जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं और सिखों की हत्या और लूटपाट की थी।
हममें से ज्यादातर लोग अब तक इस पाकिस्तानी हमले को अनजाने में ‘जनजातीय हमला’ कहते आए हैं, जो एक ऐतिहासिक भूल है और जिसे सुधारने की जरूरत है। पिछले करीब आठ दशक से पाकिस्तान के इस हमले को ‘कबायली हमला’ कहा जाता रहा है, जो असल में पाकिस्तान के झूठे प्रचार को मजबूत करने जैसा है। सैकड़ों किलोमीटर तक फैले इन हमलों के ऐतिहासिक दस्तावेज और बाद के विवरण स्पष्ट रूप से दिखाते और सिद्ध करते हैं कि यह पाकिस्तान सरकार की करतूत थी।
साजिश में सिपाही से लेकर जिन्ना तक शामिल थे
इस साजिश में निचले स्तर के सिपाही से लेकर प्रधानमंत्री लियाकत अली खान और पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना तक, सभी शामिल थे। मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं और नेताओं, जो उस समय पाकिस्तान सरकार में पदों पर थे, ने जम्मू-कश्मीर पर कब्ज़े की योजना बनाई और उसे अंजाम दिया। यह ब्रिटिश रणनीति के भी अनुकूल था, क्योंकि ब्रिटेन पहले से ही 1936 से गिलगित-बाल्टिस्तान को अपने नियंत्रण में रखे हुए था और अब उसे पाकिस्तान को सौंपना चाहता था।
जिसे “जनजातीय हमला” कहा गया, वह दरअसल पाकिस्तान सरकार द्वारा रचा गया एक सैन्य अभियान था। मुस्लिम लीग के वरिष्ठ नेताओं ने “कबायली आक्रमण” का भ्रम पैदा किया ताकि असली योजना छिपाई जा सके। इन नेताओं ने हथियारों और गोला-बारूद की आपूर्ति सुनिश्चित की और नियमित सैनिकों व अधिकारियों की तैनाती की। इस पूरी कार्रवाई की कमान पाकिस्तान सेना के पास थी, जिसे “ऑपरेशन गुलमर्ग” नाम दिया गया- जो कश्मीर घाटी के प्रसिद्ध हिल स्टेशन गुलमर्ग के नाम पर रखा गया था।
ब्रिटिश लोगों के तटस्थ होने के बारे में जो कहा जाता है, उसके विपरीत, बड़ी संख्या में ब्रिटिश अधिकारी पाकिस्तानी सैनिकों, अधिकारियों और उनके नेतृत्व वाली टुकड़ियों द्वारा किए जा रहे सभी कामों में गहन रूप से शामिल थे। अब उपलब्ध साक्ष्य यह साबित करते हैं कि ब्रिटिश अधिकारियों को इस अभियान की पूरी जानकारी थी। बल्कि, उन्होंने योजना के कई हिस्सों को तैयार करने और पाकिस्तानी सैनिकों का नेतृत्व करने में भी भूमिका निभाई थी।
अगस्त 1947 से पहले ही मुस्लिम लीग के नेताओं को साफ हो गया था कि महाराजा हरि सिंह पाकिस्तान में विलय के पक्ष में नहीं हैं। आज यह प्रमाणित है कि महाराजा भारत से जुड़ना चाहते थे, लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि पहले वे सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप दें। नेहरू का शेख के प्रति झुकाव और महाराजा की नेशनल कॉन्फ्रेंस से दूरी सबको पता थी। महाराजा नेहरू को खुश करने के मूड में नहीं थे, जबकि नेहरू बिना शेख को सत्ता दिए जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को स्वीकार नहीं करना चाहते थे।
माउंटबेटन की भूमिका
जुलाई और अगस्त 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना ने महाराजा हरि सिंह को पाकिस्तान में शामिल होने के लिए मनाने की पूरी कोशिश की, यह कहते हुए कि राज्य में मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक है। जिन्ना के निजी सचिव खुरशीद अहमद खुरशीद इस संदेश के साथ महाराजा से मिले, लेकिन महाराजा ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। इसके बाद जिन्ना ने तय कर लिया कि जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने का एकमात्र तरीका सैन्य बल का इस्तेमाल है।
नेहरू के करीबी मित्र लॉर्ड माउंटबेटन जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के पक्ष में थे। जून 1947 में राज्य के दौरे पर आए माउंटबेटन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री रामचंद्र काक से मुलाकात की और उन्हें सुझाव दिया कि वे महाराजा पर पाकिस्तान से जुड़ने का दबाव डालें। इस बातचीत का ब्यौरा एलेन कैंपबेल-जॉनसन की किताब “मिशन विद माउंटबेटन” में दर्ज है। कैंपबेल-जॉनसन माउंटबेटन के प्रेस अटैशे थे और उन्होंने अपने डायरी नोट्स से यह किताब लिखी थी।
विडंबना यह है कि लॉर्ड माउंटबेटन भारत के गवर्नर-जनरल थे, लेकिन जम्मू-कश्मीर से जुड़े फैसलों में वे पाकिस्तान के गवर्नर-जनरल बनने वाले जिन्ना के समर्थन में खड़े थे। अगस्त 1947 में जिन्ना ने दिल्ली में मुस्लिम लीग नेताओं से मुलाकात कर यह तय किया कि जम्मू-कश्मीर को या तो समझा-बुझाकर या फिर बलपूर्वक पाकिस्तान में मिलाया जाएगा।
“ऑपरेशन गुलमर्ग” की योजना और क्रियान्वयन में सबसे अहम भूमिका कर्नल अकबर खान ने निभाई थी। वे पाकिस्तान सेना के हथियार और उपकरण विभाग में तैनात थे। वही इस सैन्य अभियान के मुख्य योजनाकार और नेतृत्वकर्ता थे। बाद में वे मेजर जनरल बने और उन्होंने अपनी किताब “रेडर्स इन कश्मीर”में इस पूरे ऑपरेशन की विस्तार से जानकारी दी।
पाकिस्तान की पूरी करतूत “रेडर्स इन कश्मीर” किताब में कैद
“रेडर्स इन कश्मीर” किताब में पाकिस्तान सरकार और सेना की भूमिका का पूरा ब्यौरा दिया गया है, जिससे यह भ्रम दूर हो जाता है कि यह “जनजातीय हमला” था। इसमें विस्तार से बताया गया है कि योजना कैसे बनी और कैसे उसे अंजाम दिया गया। यह किताब पहली बार 1992 में लाहौर के जंग पब्लिशर्स ने प्रकाशित की थी। इसकी डिजिटल प्रति आज भी इंटरनेट पर मुफ़्त उपलब्ध है।
किताब के कुल 18 अध्याय हैं और यह लगभग 160 पन्नों की है। शुरुआती अध्यायों में द रेडर्स , द रीजन व्हाई , रिवोल्ट, ट्राइबल अटैक, इंडियन इंटरवेंशन और टू श्रीनगर जैसे शीर्षक हैं।
कर्नल अकबर खान लिखते हैं- “नेहरू ने हमें ‘रेडर्स’ कहा, अपमानजनक अर्थ में। लेकिन वे नहीं जानते थे कि आज के युद्धकला में ‘रेडिंग’ (छापामारी) एक अत्यधिक विकसित तकनीक है। हवाई जहाज, कमांडो, गुरिल्ला, मोटराइज्ड इन्फैंट्री, टैंक, आर्टिलरी और यहां तक कि जासूसी एजेंट भी युद्ध के लक्ष्य पाने के लिए ‘हिट एंड रन’ तरीके से काम करते हैं। इसलिए, हम खुद को ‘रेडर्स’ कहने में शर्म महसूस नहीं करते। दरअसल सीमावर्ती जनजातियों की लड़ाई की शैली उन्हें कुशल और साहसी ‘रेडर्स’ बनाती है। इस दृष्टि से, हम भी चंगेज़ ख़ान, तैमूर लंग, महमूद गजनी और सिकंदर जैसे ऐतिहासिक ‘रेडर्स’ की श्रेणी में बैठ सकते हैं।”
कर्नल अकबर खान ने लिखा कि यह किताब एक व्यक्तिगत विवरण है, जिससे पाठक को पूरे युद्ध और उसके राजनीतिक-सैन्य संदर्भ को समझने में मदद मिलेगी। सत्रहवां अध्याय ‘हाऊ टू लिबरेट कश्मीर नाऊ’ संघर्षविराम के बाद की स्थिति और भविष्य की रणनीति पर आधारित है, जबकि अंतिम अध्याय में सीमावर्ती जनजातियों का ऐतिहासिक परिचय दिया गया है।

