1900 में ड्यूक ऑफ क्लेरेंस गुजरात के सासन गिर जंगलों में शेर देखने आए थे। लेकिन निराश होकर लौटे। क्योंकि गिर के राजाओं ने उनकी यह इच्छा पूरी करने से मना कर दिया, भले ही वन विभाग ने शेरों को लुभाने के लिए शिकार की व्यवस्था की थी।
कई साल बाद, 1983 में ड्यूक ऑफ एडिनबरा (प्रिंस फिलिप) भी एशियाई शेरों को खुले जंगलों में देखने सासन गिर पहुँचे। उस बार भी वनकर्मियों ने भैंस बाँधकर शेरों को आकर्षित करने की कोशिश की, पर चार घंटे इंतजार करने के बावजूद प्रिंस एक भी शेर नहीं देख पाए। ब्रिटिश सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें गाड़ी से नीचे उतरने नहीं दिया। गुजरात के पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक जी.के. सिन्हा याद करते हैं- “प्रिंस फिलिप खुद शेरों के पास नहीं गए, बल्कि उम्मीद कर रहे थे कि शेर ही उनके पास आएँगे- जो जंगल के स्वभाव के खिलाफ था।”
इस “नाकामी” का खामियाज़ा वन्यजीव संरक्षक आर.आर. जोशी को भुगतना पड़ा – उन्हें राजपीपला के वन प्रशिक्षण संस्थान में भेज दिया गया, जो करीब 500 किलोमीटर दूर था।
इस घटना के बाद अधिकारी और सतर्क हो गए। जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सासन गिर एक सिंचाई परियोजना का उद्घाटन करने पहुँचीं, तो उन्होंने सलाह मानकर पैदल जंगल में प्रवेश किया – और पास के जलस्रोत पर शेरों के एक झुंड की हलचल देख पाईं।
विडंबना यह रही कि जहाँ इंग्लैंड के शासक शेरों की झलक तक न देख पाए, वहीं सौराष्ट्र-कच्छ रेंज के तत्कालीन डीआईजी आर.एन. भट्टाचार्य और पद्मश्री आईएएस अधिकारी एस.आर. राव इतने करीब पहुँच गए कि उन्होंने शेरों के मिलन का दृश्य मात्र 25 फीट की दूरी से कैमरे में कैद किया।
सासन गिर राष्ट्रीय उद्यान, जो 1,419 वर्ग किलोमीटर में फैला है, आज 891 एशियाई शेरों का घर है। इसे 18 सितंबर 1965 को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था, जब यहाँ केवल 174 शेर थे।
1986 के सूखे ने इस आख़िरी शेरों के घर को गहरी चोट दी- 239 जलस्रोत सूख गए, कुएँ तक पानी रहित हो गए। हालात इतने खराब थे कि मालधारी समुदाय (जो पशुपालन पर निर्भर हैं) अपने मवेशियों को गिरनार, मिटियाणा और पनिया जैसे आरक्षित जंगलों में चराने भेजने लगे, क्योंकि चारा खत्म हो चुका था।
मैंने उस दौर में तत्कालीन डीएफओ अशोक कुमार शर्मा और जिलाधिकारी बी.के. सिंह के साथ जंगल का दौरा किया था। इसके बाद टाइम्स ऑफ इंडिया (दिल्ली संस्करण) में प्रकाशित मेरे पहले पन्ने की रिपोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का ध्यान खींचा। उन्होंने तुरंत अधिकारियों की टीम भेजी और 25 लाख रुपये की सहायता राशि स्वीकृत की, ताकि शेरों के लिए पानी के टैंकर और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा सकें।
बाद में मध्य प्रदेश सरकार ने गिर के शेरों को श्योपुर जिले के पालपुर कूनो अभयारण्य में स्थानांतरित करने की मांग की – जहाँ 344 वर्ग किलोमीटर का इलाका शेरों के लिए तैयार भी किया गया था। लेकिन गुजरात ने तब से लेकर आज तक इसकी अनुमति नहीं दी। उस समय के वन मंत्री मंगू भाई पटेल, जिन्होंने इसका कड़ा विरोध किया था, आज गुजरात के राज्यपाल हैं।
विडंबना देखिए — जहाँ कभी “गिर के राजा” बसाए जाने थे, वही पालपुर कूनो आज “चीतों का घर” बन चुका है।